कुछ पहचान बनाने में सफल तो कुछ आंसू बहाने को विवश

पुरखों को जल की हर बूंद सहेजने की चिता थी। इस सच्चाई के संवाहक रामनगरी के वे तालाब हैं जो त्रेतायुगीन विरासत के संवाहक पवित्र सरोवर के रूप में विद्यमान हैं। इन कुंडों की प्रतिष्ठा जलस्त्रोत के रूप में थी ही वे अतीत के गौरव के रूप में युगों से पूजित-प्रतिष्ठित हैं। यदि इस विरसात से न्याय हुआ तो उपेक्षा भी कम नहीं हुई। रामनगरी के कुछ कुंड यदि युगों बाद भी अपनी पहचान बनाए रखने में कामयाब रहे हैं तो इसके पीछे वे लोग हैं जो जल संरक्षण के

By JagranEdited By: Publish:Tue, 09 Jul 2019 11:43 PM (IST) Updated:Wed, 10 Jul 2019 06:26 AM (IST)
कुछ पहचान बनाने में सफल तो कुछ आंसू बहाने को विवश
कुछ पहचान बनाने में सफल तो कुछ आंसू बहाने को विवश

अयोध्या:पुरखों को जल की हर बूंद सहेजने की चिता थी। इस सच्चाई के संवाहक रामनगरी के वे तालाब हैं जो त्रेतायुगीन विरासत के संवाहक पवित्र सरोवर के रूप में विद्यमान हैं। इन कुंडों की प्रतिष्ठा जलस्त्रोत के रूप में थी। वे अतीत के गौरव के रूप में युगों से पूजित-प्रतिष्ठित हैं। यदि इस विरासत से न्याय हुआ तो उपेक्षा कम नहीं हुई। रामनगरी के कुछ कुंड यदि युगों बाद भी अपनी पहचान बनाए रखने में कामयाब रहे हैं तो इसके पीछे वे लोग हैं, जो जल संरक्षण के साथ अपनी विरासत को सहेजने के हामी हैं। कई ऐसे पौराणिक कुंड हैं, जो अपने हाल पर आंसू बहा रहे हैं। इस विडंबना के पीछे शासकीय उदासीनता के साथ वे लोग हैं, जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रकृति और विरासत को दांव पर लगाने से नहीं चूकते। इस हकीकत को बयां कर रही है रघुवरशरण की रिपोर्ट.. कहां गए तालाब)) विरासत के अनुरूप अपेक्षा किसी क्रूर मजाक से कम नहीं

-मैं धनयक्षकुंड हूं। सूर्यवंश के यशस्वी शासक और सत्य के महान पोषक महाराज हरिश्चंद्र के समय से ही मेरा वजूद विद्यमान है। मान्यता है कि मेरा दामन महाराज हरिश्चंद्र के कोषागार से भी गौरवांवित था। मुझे ऋषि विश्वामित्र सरीखे महान तपोनिष्ठ और पराक्रम-पुरुषार्थ के पर्याय के आशीर्वाद की फलश्रुति भी माना जाता रहा। हरिश्चंद्र और विश्वामित्र ने तो इस धरती से विदा ली पर मैं उनकी गौरव गाथा का परिचायक बना रहा। मेरे दामन में लोग दरिद्रनाश और दिव्य रत्नादि की प्राप्ति होने की आकांक्षा से डुबकी लगाते थे। मेरे तट पर आए दिन उमड़ने वाले श्रद्धालुओं का जत्था मेरे गौरव का बखान करता था।

प्रत्येक वर्ष माघ कृष्ण चतुर्दशी के अवसर पर कहना ही क्या। करीब एक किलोमीटर की परिधि का मेरा तट श्रद्धालुओं से पटा होता था। मुझसे लोगों का सरोकार धन-संपदा, निधियों, स्वर्ण, मणियों आदि की आकांक्षा से था और मेरे तट पर उमड़ने वाली भीड़ से स्वत: यह बयां होता था कि लोगों का मुझसे सरोकार जीवंत और प्रवाहपूर्ण है। समय की लंबी यात्रा में यदि मेरी छवि धूमिल पड़ी तो मुझे सहेजा-संवारा भी जाता रहा। दो हजार वर्ष पूर्व महाराज विक्रमादित्य ने रामनगरी के पौराणिक स्थलों को नए सिरे से प्रतिष्ठित किया तो मुझे भी सजने-संवरने का मौका मिला। समय बदला और मैं हाशिए पर सरकने लगा। इसके बावजूद सन 1802 ने एडवर्ड तीर्थ विवेचनी सभा ने जिन पौराणिक स्थलों की पहचान की, उसमें से एक मैं भी था। आज भी मेरे नाम का शिलापट अयोध्या के टेढ़ीबाजार चौराहा से दुराहीकुआं मार्ग पर लगा है, पर मेरा वजूद जलकुंभी से पटे गड्ढे तक सिमट कर रह गया है। विरासत के अनुरूप मेरे दामन से स्वर्ण-रजत की अपेक्षा किसी क्रूर मजाक से कम नहीं है। सच्चाई तो यह है कि मेरा दामन पूरे मोहल्ले के अपशिष्ट से पट गया है और अपनी दशा से आजिज मेरा मन आत्महत्या करने का होता है। ------------------- आओ गढ़ें तालाब)) दिग्गज संत की प्रेरणा से मिली नई पहचान

- तालाबों को कैसे सहेजा जा सकता है, इसे पौराणिक महत्व के सरोवर वशिष्ठकुंड से सीखा जा सकता है। चार दशक पूर्व जब त्रेतायुगीन अन्य कुंडों की तरह वशिष्ठकुंड की भी पहचान संक्रमित हो चली थी, तब इस कुंड की दिव्यता को दिग्गज संत राममंगलदास ने पहचाना। उन्होंने अयोध्या की पौराणिकता विवेचित करने वाले स्कंदपुराण एवं रुद्रयामल आदि ग्रंथों का वास्ता देने के साथ अपनी दिव्य ²ष्टि से बताया कि यह स्थल त्रेता में गुरु वशिष्ठ का था। यहां गुरु वशिष्ठ माता अरुंधती सहित रहते थे। एक अन्य त्रेतायुगीन ऋषि वामदेव भी इसी स्थल के समीप विराजते थे। यह भी मान्यता है कि सूर्यवंशीय नरेश महाराज इक्ष्वाकु के कहने पर गुरु वशिष्ठ ने इसी स्थल पर यज्ञ कर पुण्यसलिला सरयू को हिमालय की उच्च उपत्यका में स्थित मानसरोवर से अयोध्या आहूत किया। अतीत को पुनर्जीवित करने की राममंगलदास की पहल अभियान के रूप में सामने आई। तीर्थनगरियों के प्रति उन्नयन के लिए भगीरथ प्रयास के लिए जाने जाने वाले सागरमल जालान, राधेश्याम अग्रवाल जैसे समाजसेवी एवं श्रद्धालु आगे आए। न केवल वशिष्ठकुंड को पूरी रमणीयता के साथ सहेजा गया बल्कि कुंड से लगा गुरु वशिष्ठ का मंदिर एवं मंदिर में स्थापित भगवानराम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न के साथ गुरु की प्रतिमा आज रामनगरी के दर्शनीय स्थलों में शुमार है। दशकों तक वशिष्ठकुंड का प्रबंधन संभालने वाले आध्यात्मिक गुरु जयसिंह के अनुसार वशिष्ठकुंड इस सच्चाई की नजीर है कि कुंडों को गोद लेकर उनसे पूरा न्याय किया जा सकता है। आओ भरें तालाब

कुंडों से न्याय के हौसले का पर्याय

- रामनगरी में ही पौराणिक महत्व के एक अन्य सरोवर विभीषणकुंड उस हौसले का पर्याय है, जिसके बूते तालाबों से न्याय संभव है। विभीषणकुंड नगरी के उन सौभाग्यशाली कुंडों में रहा है, जिस पर जिम्मेदारों की निगाहें समय-समय पर इनायत होती रहीं। चार दशक पूर्व विभीषणकुंड को यदि दक्षिण भारतीय वैष्णव परंपरा के आचार्यों ने कला कलेवर प्रदान किया, तो दो वर्ष पूर्व निवर्तमान नगरपालिका के तत्कालीन अध्यक्ष राधेश्याम गुप्त एवं अधिशासी अधिकारी पूजा त्रिपाठी सहित पालिका के अमले ने सामूहिक रूप से इसे पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया। कुंड के चारो ओर प्रशस्त-मनोरम सीढि़यां और तट पर रामनाम स्तंभ तथा पृष्ठ में अयोध्या-श्रीलंका के त्रेतायुगीन संबंधों की प्रतीक लंकापति विभीषण की प्रतिमा अतीत के गौरव को जीवंत करने वाली है।

निवर्तमान नगरपालिका के प्रयास से कुंड के तट पर बैठने के लिए निर्मित छतरियां, बच्चों के झूले और सुंदरीकरण के अन्यान्य प्रयास से कुंड की संभावनाएं प्रशस्त हुईं। तत्कालीन अधिशासी अधिकारी के तबादले के साथ कुंड के प्रति जिम्मेदारों की दिलचस्पी अपेक्षित नहीं रह गई है। इसके बावजूद रामनगरी के जिन गिनती के कुंडों के तट पर कुछ पल सुकून से गुजारे जा सकते हैं, उनमें से एक विभीषणकुंड भी है।

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