टूट रहा 'रंग' का मंच

जागरण संवाददाता, इलाहाबाद : दुनिया के विकास के समय आदिम से आधुनिक बनने के क्रम में मानव ने अपनी भ

By JagranEdited By: Publish:Sun, 26 Mar 2017 08:13 PM (IST) Updated:Sun, 26 Mar 2017 08:13 PM (IST)
टूट रहा 'रंग' का मंच
टूट रहा 'रंग' का मंच

जागरण संवाददाता, इलाहाबाद : दुनिया के विकास के समय आदिम से आधुनिक बनने के क्रम में मानव ने अपनी भावनाओं की छद्म अभिव्यक्ति करना सीखा। यह विज्ञान के विस्तार के साथ मानवीय भावनाओं को पोषित पल्लवित करने का प्रयत्‍‌न भी था। खुद को भूलकर अनजान के समक्ष की गई छद्म भावना अभिव्यक्ति को नाट्य विधा का नाम दिया गया। भारतीय महाद्वीप में नाट्य विधा का विकास क्रम पाश्चात्य सभ्यता से भी पुराना है। इलाहाबाद में साहित्य के विकास का दूसरा सिरा नाट्य विधा से जुड़ा है। दुर्भाग्यवश साहित्य के साथ रंगमंच का दायरा भी सिकुड़ रहा है। यहां अतीत की सुनहरी यादें तो हैं, लेकिन भविष्य की राह धुंधली नजर आ रही है।

इलाहाबाद में न उचित मंचन स्थल हैं, न कलाकारों को मान। कुछ संस्थाएं हैं जो स्वयं के खर्च पर समय-समय पर नाटक करके रंगमंच को जीवित किए हैं। लेकिन उनकी दशा भी खराब है, क्योंकि सरकार से उन्हें कोई सहयोग नहीं मिलता। वहीं कुछ संस्थाएं ऐसी भी हैं जो सरकारी अनुदान मिलने पर नाट्य मंचन कर खानापूर्ति करती हैं। परंतु उससे कलाकार व उससे जुड़े अन्य लोगों का भला नहीं हो रहा।

कवि यश मालवीय बताते हैं कि प्रयाग के रंगमंच और साहित्य के बीच गहरा नाता है। 60 के दशक में अभिनेता पृथ्वीराज कपूर इलाहाबाद आए थे। वह दारागंज में महाप्राण निराला से मिलने गए। निराला उन्हें देखते ही चहक उठे, और बोले 'भाई तुम तो अफगानी पठान हो, फिर भी देखो तुमसे निकलता हुआ कद है मेरा। खैर कद-वद की छोड़ो तुम तो नाटक भी खेलते हो, आज जरूरत इस बात की है कि लोगों को नाटक देखना सिखाया जाए'। निराला की बातें सुनकर पृथ्वीराज कपूर अभिभूत हो उठे थे। उन्होंने कहा था कि 'मंच पर एक कलाकार जीवन के विविध पहलुओं को जीता है। खुशी हो या गम। भय, भूख और भ्रष्टाचार। वह सामाजिक कुरीतियों से संघर्ष करते हुए अंधकार से आगे निकलने के लिए लोगों को प्रेरित करता है'।

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अद्भुत नाटक हुए मंचित

इलाहाबाद : प्रयाग की पहली नाट्य मंडली आर्य नाट्य सभा की स्थापना 1870-71 में हुई, जिसने छह दिसंबर 1871 में सर्वप्रथम 'प्रेम मोहिनी' नाटक का मंचन किया। इस संस्था द्वारा दो नाटक प्रयाग के रेलवे थियेटर में 26 अगस्त 1986 में मंचित किए गए। पहले शीतला प्रसाद का 'जानकी मंगल' और दूसरा देवकीनंदन त्रिपाठी द्वारा रचित 'जय नरसिंह' था। भारतेंदु कृत 'सत्य हरिश्चंद्र' नाटक प्रयाग में पहली बार 1874 में मंचित हुआ। वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल रंजन भौमिक बताते हैं कि सामाजिक परिवर्तन की दिशा में नाटकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह विचार सर्वप्रथम बंगाली रंगमंच ने दिया। दीनबंधु मित्र कृत नाटक नील दर्पण ने 1969 में अंग्रेजों के अत्याचार के विरुद्ध आवाज बुलंद की।

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नाट्य मंचन का स्थल हुआ कम

इलाहाबाद : शहर में नाट्य प्रस्तुति के लिए अनेक केंद्र बने थे। अलग-अलग थियेटरों में सैकड़ों नाटकों का मंचन हुआ। इसमें पैलेस थियेटर, प्रयाग संगीत समिति, ड्रामेटिक हाल, छात्रसंघ भवन, सीनेट हाल, विजय नगरम हाल, निराला सभागार व मुक्तांगन, कोरल क्लब, नार्दर्न रेलवे इंस्टीट्यूट (मनोरंजन गृह), उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, ¨हदुस्तानी एकेडेमी, नाच घर (लोकसेवा आयोग भवन), जगत तारन गोल्डन जुबली प्रेक्षागृह, जार्जटाउन मनोरंजन क्लब, सेंट जोसफ स्कूल प्रेक्षागृह, इलाहाबाद संग्रहालय, भारत स्काउट एंड गाइड भवन, आइईआरटी पॉलिटेक्निक प्रेक्षागृह, टूकर हाल, इविंग क्रिश्चियन कालेज, गोविंद बल्लभ पंत संस्थान, केपी कम्युनिटी प्रेक्षागृह, गांधी भवन, विज्ञान परिषद, बाल भवन, मंसूर अली पार्क, लेडीज क्लब, लक्ष्मी टाकीज शामिल है। वर्तमान में उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, जगत तारन गोल्डन जुबली प्रेक्षागृह एवं प्रयाग संगीत समिति में नाटक मंचित होते हैं।

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समय के साथ आया बदलाव

इलाहाबाद : देश को अंग्रेजों आजादी मिलने के बाद दशक से अधिक समय में आए उतार-चढ़ाव भरी यात्रा ने ¨हदी रंगमंच को नए और निर्णायक मोड़ पर पहुंचा दिया है। अनेक विभूतियों ने मंच एवं उसके परे कलम से सामाजिक परिदृश्य को रेखांकित किया। इब्राहिम अलकाजी, शंभू मित्र, बादल सरकार, शीला भाटिया, अलख नंदन, उर्मिल कुमार थपलियाल, सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, एमके रैना, ऊषा गांगुली, कारंत, श्याम बेनेगल, हबीब तनवीर जैसे रंगकर्मियों ने मंच पर अनेक उतार-चढ़ाव की जीवंत प्रस्तुति की।

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1962 में हुई शुरुआत

इलाहाबाद : समाज के विविध रंगों को मंच के माध्यम से लोगों के सामने लाने के लिए 27 मार्च 1962 को पेरिस में रंगमंच की शुरुआत हुई। इसकी नींव वियना में जून 1961 में हुए इंटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट के नौवें सम्मेलन पर पड़ी। इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष अन्वी किविया ने इसकी पहल की थी। यहां से कला के क्षेत्र में नया अध्याय जुड़ा।

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