हाथरस के नथाराम ने दुनियाभर में बजाया स्वांग का डंका

लोकनाट्य की प्राचीन विधा स्वांग की चर्चा हो और हाथरस का नाम न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता। यहां के पं. नथाराम गौड़ ने स्वांग को एक नई पहचान देकर दुनियाभर में अपना डंका बजाया।

By JagranEdited By: Publish:Wed, 04 Apr 2018 06:29 AM (IST) Updated:Wed, 04 Apr 2018 06:29 AM (IST)
हाथरस के नथाराम ने दुनियाभर में बजाया स्वांग का डंका
हाथरस के नथाराम ने दुनियाभर में बजाया स्वांग का डंका

अलीगढ़ : लोकनाट्य की प्राचीन विधा स्वांग की चर्चा हो और हाथरस का नाम न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता। यहां के पं. नथाराम गौड़ ने स्वांग को एक नई पहचान देकर दुनियाभर में अपना डंका बजाया। देश में स्वांग की दो विधाएं हैं। एक कानपुर तो दूसरी हाथरस शैली। कानपुर शैली प्राचीन है। इस पर पं. नथाराम गौड़ ने शोध किए और स्वांग को नया स्वरूप दिया। वहां के स्वांग में फटकेबाजी (द्विअर्थी बातें) होती है, लेकिन हाथरसी स्वांग में इसका कहीं स्थान नहीं है। खास बात यह है कि स्वांग खास किरदार की वीरगाथाओं पर ही गाया जाता है। महिलाओं का अभिनय पुरुष ही करते हैं। कलाकार उच्च स्वर में गायन करते हैं। मुख्य वाद्य यंत्र नगाड़ा होता है।

भजन से निकला स्वांग: करीब डेढ़ सौ साल पहले हाथरस में वासुदेव बासम सब डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल थे। उनकी गायन-वादन में खासी रुचि थी। मथुरा के गोपीचंद्र की चंग पर भजन गायकी से प्रभावित होकर हाथरस में बासम अखाड़ा शुरू किया। बाद में राय मुरलीधर ने भजन गायकी अखाड़ा बनाया। इनसे जुड़े चिरंजीलाल ने भजन गायकी को नया रूप दिया। भजन गायन में फटकेबाजी शामिल की। एक-दूसरे पर गायन शैली में ही कटाक्ष किए जाते थे। यही सब कानपुर शैली के स्वांग में था। सिर्फ वाद्ययंत्रों का अंतर था। यह सब जानकारी होने पर वासुदेव बासम का अखाड़ा फिर स्वांग की मंडली बन गया। 1890 के दशक में इस स्वांग मंडली से पं. नथाराम गौड़ जुड़ गए और स्वांग के मंचन से अपनी अलग पहचान बना डाली। उनका जन्म हाथरस जंक्शन के गांव दरियापुर में 14 जनवरी 1874 को हुआ और 1947 में उनका निधन हो गया। उनकी स्वांग मंडली में मदनलाल, बिहारीलाल, जानकी प्रसाद, लच्छीराम, हीरालाल, चुन्नीलाल जैसे कलाकार रहे।

श्याम प्रेस की स्थापना : पं. नथाराम गौड़ के वंशज गौरीशंकर गौड़ बताते हैं कि कानपुर शैली के स्वांग में 16 छंद होते हैं, जबकि हाथरसी शैली के स्वांग में करीब 156 छंद हैं। आपसी सद्भाव, भाईचारे को बढ़ावा दिया जाता है। इसके लिए पं. नथाराम गौड़ को देश में ही नहीं विदेशों में भी कई पुरस्कार मिले। इनकी मंडली ने उत्तरी अमेरिका, मारीशस, इंडोनेशिया तक स्वांग का डंका बजाया। रंगून में तो कई लोगों ने स्वांग समझने के लिए ¨हदी भाषा सीखी। वहां रंगून के लोगों पर आधारित स्वांग रचा गया था। पं. नथाराम ने महापुरुषों व वीरों पर अनेक स्वांग लिखे, जिनकी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। साथ ही अलीगढ़ रोड पर श्याम प्रेस की स्थापना की, जो आज भी संचालित है।

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