आज के समय में ऐसे ही मुस्कुराया जा सकता है

क्या होता है जब इन कैंपस प्लेसमेंट में अच्छा पैकेज पाने से कोई चूक जाए? पढ़िए इस धारदार कथा में...

By Preeti jhaEdited By: Publish:Tue, 05 Jul 2016 12:17 PM (IST) Updated:Tue, 05 Jul 2016 12:30 PM (IST)
आज के समय में ऐसे ही मुस्कुराया जा सकता है

आज सुबह से उसका मन खिन्न था। इसीलिए उसने अपने नाश्ते में फेरबदल कर लिया। गोया नाश्ता बदल लेने से हालात बदल जाएंगे। वह जानती थी कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है फिर भी उसने तयशुदा नाश्ता करने की जगह दो किलोमीटर अधिक दूर जाकर दूसरा नाश्ता करने की ठानी। ‘वन मोमोज प्लीज!’ रेस्त्रां में पहुंचकर उसने बैरे को आदेश दिया ही था कि उसके कानों से एक आवाज टकराई। ‘नो-नो! नॉट वन... टू मोमोज...

प्लीज...!’

नमिता ने देखा कि उसकी मेज से लगभग सटकर आयुषी खड़ी थी। आयुषी को देखकर नमिता का मूड और खराब हो गया। यह यहां भी चली आई...मगर क्यों? कैसे? मेरा पीछा कर रही थी क्या? ‘हाय! गुडमॉर्निंग आयुषी! यहां कैसे? आज इडली-सांभर को डिच कर दिया?’ मन ही मन कुढ़ती हुई नमिता ने पूछा। आयुषी रोज सुबह के

नाश्ते में इडली-सांभर ही खाना पसंद करती है। ‘नहीं, ऐसा तो नहीं! इडली-सांभर खा चुकी हूं....एक्चुअली, वही खाकर निकल रही थी कि तू दिखाई दी...पैदल-पैदल इधर आती हुई...मुझे आश्चर्य हुआ तो तुझे फॉलो करने लगी....बस!

मगर सोचती हूं कि एकाध मोमोज भी खा लूं फिर आज ही दोपहर बाद चेन्नई के लिए निकलना है....यू नो, तैयारी तो पूरी हो गई है फिर भी फ्रेंड्स से मिलते-मिलाते लंच तो छूट ही जाएगा।’ आयुषी ने इत्मिनान से बैठते हुए कहा। ‘यू आर लकी...’ नमिता के मुंह से निकला और फिर उसने अपने दांतों तले अपनी जीभ दबा ली। उफ! ये क्या कह बैठी वह। अब आयुषी को लगेगा कि नमिता बुरी तरह हताश है। नमिता स्वयं को कोसने लगी।

‘डोंट वरी नमि! आई एम श्योर दैट नेक्स्ट टाईम इज योर्स! मुझे भी दुख है तुम्हारे लिए.... हम दोनों एक साथ चलते तो कितना मजा आता, है न!.... बट, मुझे विश्वास है कि अगला सलेक्शन तुम क्लियर कर लोगी!’ आयुषी ने वही सब कहा जिसका डर था नमिता को। उसका मन बुझ-सा गया। ‘इट्स ओके, आयुषी!’ नमिता ने स्वयं को संभालते हुए कहा। तभी बैरा मोमोज ले आया। इस रेस्त्रां के ए.सी. चैंबर में सर्विंग सुविधा दी जाती थी। वरना ए.सी. चैंबर के बाहर सेल्फ- सर्विस थी। नि:संदेह, यह सुविधा सेल्फ-सर्विस की अपेक्षा मंहगी थी और इसका आनंद ‘डेट’ पर रहने वाले युवा ही ‘अफोर्ड’ करते थे, शेष नहीं।

बैंग्लोर शहर मंहगा भी है और सस्ता भी। थोड़ा-सा कष्ट उठाकर बचत कर लो तो सस्ता है वरना मंहगाई के एक से एक आयाम भी आसानी से देखे जा सकते हैं। नमिता, आयुषी और उसके दोस्त अकसर बचत पर ही चलते थे।

लेकिन आज नमिता को बचत का विचार नहीं आ रहा था और न आयुषी को। भले ही दोनों के अपने-अपने अलग कारण थे। आयुषी ने स्वर्णिम भविष्य की ओर कदम उठा दिया था जबकि नमिता तो उस मन:स्थिति में थी कि जिसमें कोई भी युवा हताशा से भरकर किसी भी तरह का गलत कदम उठा सकता है। एक अच्छे कॅरियर का उसका सपना कल देर शाम को ही टूटा था जब उसे रिजल्ट-वॉल पर टांकी गई सूची में अपना नाम नहीं मिला। वह स्तब्ध रह गई थी। उसे विश्वास नहीं हुआ था कि उसके साथ ऐसा भी हो सकता है। उसका साक्षात्कार, उसकी

प्रस्तुति...सब कुछ तो ठीक थे...फिर क्या हुआ? सब कुछ खत्म! नमिता ने रिसोर्स ऑफीसर के कमरे से बाहर आते हुए सोचा था। जैसे ही यह खबर घर पहुंचेगी वैसे ही कोहराम मच जाएगा। मां का सपना टूट जाएगा। पापा को सदमा पहुंचेगा। हां, मां चाहती थीं कि नमिता अपना कोर्स समाप्त करते ही किसी अच्छी कंपनी में अच्छे पैकेज पर नौकरी पा जाए जिससे तत्काल उसे अच्छा रिश्ता मिल जाए... और वे अपनी बहन की बेटी के मुकाबले उसे बेहतर साबित कर सकें। पिछले साल उनकी बहन की बेटी का नोएडा में एक मल्टीनेशनल कंपनी में चुनाव हुआ था जिसके कारण उनकी बहन ने बहुत अकड़ दिखाई थी।

पिता भी यही चाहते हैं कि नमिता ने जब बैंग्लोर जाकर पढ़ने में इतना पैसा खर्च किया है तो वहां से वह किसी बडे़ पैकेज में ही जाए ताकि वे शान से अपनी बेटी की उपलब्धि का प्रचार- प्रसार कर सकें। आखिर समाज-परिवार में इससे उनका रुतबा बढ़ेगा और मल्टीनेशनल कंपनी में हाई-पैकेज में काम करने वाली उनकी बेटी के लिए बेहतर रिश्तों की बाढ़ आ जाएगी। नमिता रातभर यही सोचती रही कि अपने मां-पापा से रिजल्ट कैसे छिपाया जाए और सेमेस्टर दोहराने के पीछे कौन-सा कारण बताया जाए। रातभर नींद नहीं आई उसे। डर था कि उसकी बेस्टफ्रेंड आयुषी ही उसका भेद न खोल दे। उसका चयन हो गया था। वह नहीं भी बताएगी तो उसके पेरेंट्स

ढिंढोरा पीटने से बाज नहीं आएंगे कि ‘बुंदेला साहब की बेटी नमिता रह गई और हमारी आयुषी को पैकेज मिल गया।’

‘क्या सोच रही हो? मोमोज ठंडा हुआ जा रहा है! खाना नहीं है क्या?’ आयुषी ने नमिता को टोका जो पिछली शाम और रात की बातों को याद कर परेशान हो उठी थी। ‘सोच रही हूं कि मां-पापा को पता चलेगा तो वे क्या रिएक्ट करेंगे?’ ‘हूं! है तो बात सोचने की!....वैल, तू कह देना कि यह कंपनी तुझे सूट नहीं कर रही थी... सो, तूने अपना परफॉर्मेंस जान- बूझकर बिगाड़ा...वे कनविंस हो जाएंगे।’ आयुषी ने एक तार्किक बहाना सुझाया। नमिता को भी यह बहाना ठीक लगा। आखिर कोई तो सफाई देनी ही पड़ेगी उसे, तो यही सही। नमिता की बात सुनकर आयुषी मुस्कुरा दी।

‘‘आयुषी, जानती है...कल जब मैं जॉबफेयर की लंबी कतार में खड़ी थी तो मुझे ‘स्प्रिंग ब्वॉयज’ मूवी याद आ रही थी। जैसे उस मूवी में अनाथ बच्चे खुद को बेहतर साबित करने की कोशिश करते है और हरेक बच्चा सोचता है कि गोद लेने वाले उसके परफॉर्मेंस से प्रभावित हों और उसे ही गोद ले लें। क्या हम भी वैसे ही नहीं हैं? नहीं, शायद हम उन अनाथ बच्चों जैसे नहीं बल्कि उन स्लेव्स.....उन मध्ययुगीन गुलामों जैसे हैं जो परिस्थितिवश गुलाम-बाजार में जा पहुंचते थे और इसी उम्मीद में खड़े रहते थे कि हमें एक अच्छा मालिक मिल जाए....जो हमसे भले ही मनचाही मेहनत खरीद ले मगर बदले में हमें इतना पैसा दे दे कि हम अपने परिवार और समाज को जता सकें कि गुलामी कितनी अच्छी, कितनी सुखद चीज है।’’ नमिता ने अपने मन की बात आयुषी के सामने उडे़ल दी।

‘माई गॉड! ये सब तुम क्या सोच रही हो?’ चौंक गई आयुषी। वह बोली, ‘हम गुलाम नहीं हैं, हम मर्जी से जॉब चुन रहे हैं।’ ‘हुंह! हमारी मर्जी? व्हाट ए फुलिश थॉट.... हम सोच ही कहां रहे हैं....हम तो एक बहाव में बह रहे हैं...कॅरियर, पैकेज, मल्टीनेशनल कंपनी....यही तो माहौल है....हम इस माहौल के गुलाम हैं। यू नो आयुषी! शायद तूने कभी पढ़ा हो कि लार्ड मैकाले ने एक शिक्षानीति बनाई थी जिसे देश में ‘बाबू बनाने की नीति’ कहा गया और इस नीति को ले कर लॉर्ड मैकाले को हमेशा कटघरे में खड़ा किया गया.....आज तो कोई ऐसी नीति

नहीं है जो हमें एक ही दिशा में जाने को मजबूर करे, फिर भी हम एक ही दिशा में जा रहे हैं न.... बिलकुल भेड़ों के समान...’ ‘ये सब तू क्या बके जा रही है....आर यू ओके?’ आयुषी ने चिंतित होते हुए पूछा। वह नमिता की बातें सुनकर अब घबराने लगी थी। ‘आई एम फाईन! यस! एब्सोल्यूटली फाईन....बट वी आर स्लेव....इट इस ए ट्रूथ...ब्लैक ट्रूथ!’ नमिता अपनी ही रौ में बोलती चली गई। ‘नो! यू आर नॉट ओके! तू मेरे साथ चल! मन बहल जाएगा।’ बैरे का बिल चुकाती हुई आयुषी उठ खड़ी हुई।

‘नहीं, मैं तेरे साथ कहीं नहीं जाऊंगी। तू जा और एंज्वॉय कर! तू तसल्ली रख, मैं ठीक हूं। एकदम ठीक!’ नमिता ने शांत स्वर में आयुषी से कहा। अब वह अपने मन को हल्का पा रही थी। कम से कम अगले जॉब-फेयर तक। असमंजस में डूबी आयुषी को देर होने का विचार आया और वह हड़बड़ाकर नमिता से विदा लेकर रेस्त्रां के बाहर लगभग दौड़ पड़ी। रेस्त्रां से बाहर निकलते समय नमिता ‘स्लेव-मार्केट’ के अपने विचार पर मुस्कुरा दी। उसके इस विचार ने ही तो उसे उन अंधेरों से बाहर निकाल लिया था जिन अंधेरों के कारण कल की असफलता के बाद

उसके मन में घातक विचार उठ रहे थे। एक बार तो यह भी विचार आया था कि वह अपने छात्रावास की छत से छलांग लगा दे। मां-पापा को सच बताने से तो यही बेहतर लगा था उसे। फिर दूसरे ही पल विचार आया था कि सच तो फिर भी मां-पापा के सामने आ ही जाएगा। टाल दिया था उसने आत्महत्या का विचार। ठीक ही रहा नहीं तो न तो सुबह होती, न ही आयुषी मिलती और न उसे इतना अच्छा बहाना सुझाती। नमिता अपने मन को तैयार करने लगी कि जब उसके पापा उससे पूछेंगे कि आयुषी का चुनाव हुआ मगर तेरा क्यों नहीं? तो यही कहूंगी

कि पापा! वह मालिक मुझे पसंद नहीं आया था! नमिता एक बार फिर यह सोचकर मुस्कुरा दी कि शायद आज के समय में ऐसे ही मुस्कुराया जा सकता है।

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