बताइये मैं क्या करूं

दुनिया की कोई परीक्षा पद्धति ऐसी नहीं जो पूर्णतया निर्दोष हो। होते कौन हैं ये मुझे नाकाम बताने वाले...

By Naveen KumarEdited By: Publish:Mon, 04 Apr 2016 12:24 PM (IST) Updated:Mon, 04 Apr 2016 12:42 PM (IST)
बताइये मैं क्या करूं

घर में मातम! एक-एक, दो-दो करके आते लोग! शोक प्रदर्शन! दरवाजे के बाहर तक सामान्य, हंसते-मुस्कराते, अंदर आते ही गंभीरता ओढ़ लेते हैं। ‘‘क्या हुआ अशोक का?’’ ‘‘नहीं निकला।’’ पापा पचासवीं बार दोहराते

हैं। ‘‘ओह! मैंने पहले ही आप से कहा था, मैथ्स के ट्यूशन के लिए शर्मा जी के पास भेजिए, वर्मा जी किसी काम के नहीं।’’ ‘‘इसके सब दोस्त शर्मा जी के पास....।’’ ‘‘बस! आजकल के लड़के दोस्तों की ही ज्यादा सुनते हैं! मां-बाप तो ए.टी.एम. हैं। ...खैर जो हुआ सो हुआ! एक बार बिठाइए।’’ ‘‘कहां से बिठाएं!’’ लगा, कोई ज्वालामुखी फूट पड़ा। ‘‘दो साल में चार-पांच लाख स्वाहा हो गए, जमा पूंजी गई, कर्ज चढ़ा सो अलग। अब क्या बीवी के जेवर बेंच दूं! खुद को नीलाम कर दूं! दो बच्चे और हैं, उन्हें जहर चटा दूं?’’ पापा का गला भर आया। रो-रोकर मां की आंखें सूज गई हैं। क्या कहना चाहते हैं ये सब लोग! मैंने मेहनत नहीं की! मैं मन लगाकर नहीं पढ़ा, मैंने समय बर्बाद किया। मां-बाप की गाढ़े खून-पसीने की कमाई धूल में मिला दी। आप ही थे न पापा! .... रात को दबे पांव आते थे, कुछ देर चुपचाप खड़े रहते थे, फिर कहते थे, ‘‘अब सो जा, बेटा! रात के तीन बज रहे हैं।’’ और मां- ‘‘हाय... कितना दुबला हो गया है! थोड़ी देर लेट जा बेटा! बैठे-बैठे पांव अकड़ गए होंगे।’’
यकीन मानिए! मैंने घनघोर मेहनत की थी। बारहवीं कक्षा में मेरे छियासी प्रतिशत अंक थे। पर आजकल यह प्रतिशत बेमानी है। पिच्चानवे से ऊपर हैं तो आप अच्छे छात्र समझे जाते हैं। छियासी प्रतिशत का इतना ही लाभ हुआ कि मुझे आई.आई. टी और जे.ई.ई. की परीक्षा में बैठने के काबिल समझा गया! अब कहां जाएं हम और क्या करें? पिछले दो सालों का इतिहास भी सुन लीजिए। ये दो साल घर में कैद रहा हूं। मुझे नहीं मालूम सूरज किधर से निकला और कहां गया। मैं तो घर से कोचिंग और वहां से घर के ही चक्कर काटता रहा। सुबह साढ़े आठ बजे कोचिंग इंस्टीट्यूट जाता हूं। वहां भीड़ में धक्का-मुक्की कर आगे की सीट पर बैठने का प्रयास करता हूं। एक क्लास में डेढ़ सौ लड़के। कॉलर माइक लगाकर पढ़ाता टीचर और निरंतर जलती ट्यूब लाईट। एक क्लास से दूसरी क्लास, दूसरी से तीसरी और इसी तरह छ: क्लासेज। वहां से लौटता हूं दो बजे। खाना खाकर होमवर्क करने बैठ जाता हूं। कभी पूरा होता है, कभी नहीं! शाम को मां आकर कहती, ‘‘दोनों वक्त पढ़ते मिले बेटा! थोड़ी देर बाहर घूम आओ।’’ मेरा दुर्भाग्य यह था कि दसवीं में मेरे टैन सीजीपीएए अर्थात हर विषय में ए-1! ये अंक भी कोई विशेष मेहनत किए बिना, अनायास ही आ गए थे। सब खुश, पापा ने पीठ थपथपा कर कहा। ‘‘देखा! साल भर मटरगश्ती करता रहा, तब इतने अच्छे नंबर। मेहनत करेगा तो जरूर आई.आई.टी. में निकल जाएगा, ट्रिपल ई तो पक्का है।’’ मुझे भी लगा, हां मेहनत करूं तो निकल जाऊंगा। अस्सी हजार फीस देकर मुझे एक नामी गिरामी कोचिंग इंस्टीट्यूट में भर्ती करवा दिया गया। क्या गन्ने की पिराई होती होगी जो मेरी पिराई हुई! शुरू में तो मैं घबरा गया था। न बाबा, ना! ये मेरे बस का रोग नहीं, कहां आ फंसा? इतनी जल्दी जल्दी पढ़ाते हैं कि जब तक एक बात समझ में आए, दूसरी गुत्थी हाजिर। दूसरी थोड़ी बहुत पकड़ में आई कि तीसरी सामने खड़ी है। तब मन को यही तसल्ली देनी पड़ती है कि घर पहुंचकर दुहराऊंगा तो सब समझा में आ जाएगा। .... मगर ऐसा नहीं हुआ। कुछ समझ में नहीं आता! ये क्या सवाल है? क्यों और कैसे हल होगा? टीचर से पूछा तो ऐसे भन्नाता कि मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती। समझ में नहींआया! अगर मेरे बी ग्रेड माक्र्स होते तो मैं इस गोरखधंधे में फंसता ही नहीं। मजे में इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में भर्ती हो जाता और इलेक्ट्रिशियन बन जाता। बचपन से ही मुझे बिजली की छोटी-मोटी चीजें ठीक करने का शौक है। एक दिन पापा कोचिंग इंस्टीट्यूट पहुंचे। सब प्राध्यापकों से मिले। सब ने एक ही बात कही, मैं बड़ा नियमित छात्र हूं, आज्ञाकारी हूं, बुद्धिमान हूं, मेहनती हूं...वगैरह-वगैरह। बस! थोड़ी मेहनत और करनी चाहिए, मैंने और मेहनत की। दूसरे टेस्ट में थोड़ा सुधार हुआ। जितनी उम्मीद थी उतना नहीं हुआ। मैंने अपना सोने का समय घटाया, नहाते और खाते समय भी फार्मूले रटता रहता। तीसरे टेस्ट में जरा सा और सुधार, पर उतना नहीं जितनी की उम्मीद थी। हे भगवान, अब मैं और क्या करूं? इस बार पापा गणित के प्राध्यापक के सामने रो पड़े। इतनी लज्जा! ऐसा अपमान! नाकारा और नालायक होने का यह अहसास। आज तक मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया था जिससे पापा इतने दु:खी हों। आज मेरी वजह से वो एक अनजान, अपरिचित प्राध्यापक के सामने रो रहे हैं। धरती मैया, तुम फट जाओ। मां-बाप के दिल में कोई शक-शुबहा नहीं है। वो दिन-रात यही दोहराते हैं, अगर थोड़ी मेहनत और करूं तो.... मगर मैं पहले से अपनी सामर्थ्य से ज्यादा, अपनी क्षमता से कहीं अधिक मेहनत कर रहा हूं। इससे ज्यादा और क्या करना है, साफ-साफ बताइए? क्या मैं अक्षम हूं? तो 10वीं में 10 सी.जी.पी. कैसे आए? बौद्धिक रूप से उतना सक्षम नहीं हूं, जितने और लोगों के बच्चे हैं? तो इसमें मेरा क्या कसूर है? मुझे बताइए बौद्धिक क्षमता कैसे बढ़ाई जाती है? मैं पूरी कोशिश करूंगा। अब जो प्राध्यापक कह रहे हैं, थोड़ी मेहनत और करो, उन्होंने ही तो मेरी परीक्षा ली थी, इंटरव्यू लिया था और फिर एप्टीट्यूड टेस्ट भी! यह सब लोग मेरी बौद्धिक क्षमता नहीं आंक पाए। ये मेरा कसूर है? सब कुछ करने के बाद भी मैं कट ऑफ लिस्ट में चार नंबरों से पिछड़ गया। चार नंबर, बस! अगर हर सब्जेक्ट में थोड़ी मेहनत और की होती, एक-दो नंबर की बढ़त लाए होते तो यह सारा मातम उत्सव में बदल जाता। ‘‘लड़की होती तो ब्याह कर देते, छुट्टी होती। लड़के का क्या करें?’’ यह मां बोल रही हैं। सच! क्या नहीं किया मां ने। सुबह बादाम- मुनक्का पीसकर देना, कभी फल काटकर ला रही हैं तो कभी नींबू-पानी। निचुड़ गई है मेरी देखभाल करते-करते। पापा को देखो! दफ्तर के काम के अलावा, ओवर टाइम। मेरी कोचिंग, प्राइवेट ट्यूशन फीस जुटाने के लिए दिन-रात खट रहे हैं। बदले में क्या दिया मैंने! असफलता और अपमान, क्षोभ और दु:ख। आज जो हुआ, उस पर मैं बहुत शर्मिंदा हूं। समझ ही नहीं पा रहा क्या करूं? सारा दु:ख, मेरी वजह से है, अब और बर्दाश्त नहीं हो रहा। कौन सा तरीका ज्यादा आसान है, पंखे से लटकना या कीटनाशक पीना? पंखे से लटकना आसान है। यही ठीक रहेगा! अब आप लोग असली मातम कीजिए। रोइए, छाती पीटिए, सिर कूटिए, भूलकर भी यह मत कहना- ‘यह तूने क्या कर डाला मेरे लाल!’ आप लोगों ने ही मुझे यहां तक पहुंचाया है। अशोक ने बिस्तर पर पड़ी चादर को रस्सी की तरह बटा .... झुलाकर पंखे की रॉड से अटकाया और गांठ लगा दी दूसरे छोर का फंदा बनाया और गले में डाल लिया। बस अब मेज को धक्का भर देना है... उसने गले से फंदा निकाल लिया। पंखे से भी गांठ खोल ली। चादर के बल निकाल, वापस बिस्तर पर बिछा दिया। नहीं! आपका निर्णय गलत है। मैं नाकारा, नालायक और नाकाम नहीं। दुनिया की कोई परीक्षा पद्धति ऐसी नहीं जो पूर्णतया निर्दोष हो, त्रुटि-विहीन हो। मैं इनके निर्णय को नहीं मानता। होते कौन हैं ये मुझे नाकाम बताने वाले! और जिन्हें बड़ा सफल मानते हैं आप, वो क्या कर रहे हैं! जाइए, पता लगा लीजिए। कितने ही इंजीनियर्स कॉल सेंटर्स में काम कर रहे हैं। और जिन्हें बड़ा सफल मानते हैं आप, वो क्या कर रहे हैं। और क्या देश को केवल डॉक्टर-इंजीनियर ही चाहिए? और किसी कौशल की जरूरत नहीं है? ऐसी ही महान है इंजीनियरिंग की डिग्री तो उसे प्राप्त करने के बाद आईआईटियंस इन कोचिंग इंस्टीट्यूट्स में पढ़ाने क्यों आते हैं? मैं बताता हूं क्यों आते हैं? पचीस लाख से एक करोड़ तक का पैकेज मिलता है, इसलिए आते हैं। तो मतलब कौशल से नहीं, पैसे से है। मैं आपको इतना पैसा कमा कर दूंगा कि आप उस पैसे के ढेर तले दब जाएंगे। मेरे हाथ में जादू है। अशोक ने मुंह धोया, कपड़े बदले, करीने से बाल बनाए और अपने कमरे से निकला। तेज रोशनी में नहाए रंगमंच पर जाने से पहले दिल धड़कता ही है। उसने लंबी-लंबी सांसें लीं, दिल की धड़कन पर नियंत्रण किया और फिर नायक की अदा से एक हाथ से बाल संवारता बैठक में आया। अशोक ने वहां चल रही शोक सभा को सिरे से खारिज कर दिया और तेज कदमों से बाहर निकल गया। उसे ‘‘जनता इलेक्ट्रीकल्स’’ पहुंचने की जल्दी थी। जब सारा जीवन और जगत व्यापार है तो देर क्यों? जितनी जल्दी बाजार में उतरा जाए, अच्छा है। कुछ आवाजें धूल की तरह उसके पांवों से लिपटती, उलझती चली आ रही थी। ‘‘जरा देखो तो मां-बाप रो-रोकर हलकान हैं और साहबजादे सजधज के घूमने निकल लिए।’’

लता शर्मा
‘रुद्रप्रियम’, 1-ग-9, विज्ञान नगर,

कोटा-324007 (राजस्थान)

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