खिल रहे हैं नई सोच के रंग

प्यार देना स्त्री का स्वभाव है। उसकी शख्सियत में कोमलता है। भावुकता और समझदारी से वह हर रिश्ते को सहेजती है, पर जब आंच आती है उसके आत्म सम्मान पर तो वही कोमल हृदय स्त्री चत्रन सी मजबूत हो उठती है। उसके व्यक्तित्व में छलकने लगते हैं मजबूत इरादों, अदम्य साहस और इच्छाशक्ति के विविध रंग। स्˜

By Edited By: Publish:Sat, 15 Mar 2014 01:09 PM (IST) Updated:Sat, 15 Mar 2014 01:09 PM (IST)
खिल रहे हैं नई सोच के रंग

प्यार देना स्त्री का स्वभाव है। उसकी शख्सियत में कोमलता है। भावुकता और समझदारी से वह हर रिश्ते को सहेजती है, पर जब आंच आती है उसके आत्म सम्मान पर तो वही कोमल हृदय स्त्री चत्रन सी मजबूत हो उठती है। उसके व्यक्तित्व में छलकने लगते हैं मजबूत इरादों, अदम्य साहस और इच्छाशक्ति के विविध रंग। स्त्री की शख्सियत के इन खास पहलुओं को उभारने वाली महिला प्रधान फिल्मों की सफलता जाहिर करती है हमारे सामाजिक ताने-बाने और सोच में आए बदलाव को।

हाल के बरसों में हिंदी फिल्में कंटेंट प्रधान हुई हैं। इंडस्ट्री में कथित स्टार कल्चर का प्रभाव कम हो रहा है। एक और चीज हो रही है, महिला प्रधान फिल्मों के प्रति दर्शकों की स्वीकार्यता। वह चाहे 'कहानी', 'द डर्टी पिक्चर', 'इंग्लिश विंग्लिश', 'नो वन किल्ड जेसिका' और 'इश्किया' हो। उपरोक्त फिल्मों में नायकों की जिम्मेदारी नायिकाओं ने ली। अपने नाजुक कंधों से फिल्मों को मजबूत सहारा दिया और कथित मर्दो के दबदबे वाली इंडस्ट्री में महिलाओं के दखल को दमदार बनाया। उन्होंने इक मजबूत नींव रखी, जिस पर इस साल बुलंद इमारत बनाने को ढेर सारी महिला प्रधान फिल्में बेताब हैं। उनमें 'गुलाब गैंग', 'बॉबी जासूस', 'शादी के साइड इफ्ेक्ट्स', 'हाईवे', 'क्वीन', 'रिवॉल्वर रानी', 'मैरीकॉम' आदि प्रमुख हैं। पिछले दिनों रिलीज 'डेढ़ इश्किया' भी माधुरी दीक्षित के इर्द-गिर्द रही। इसके बावजूद कि माधुरी दीक्षित शादीशुदा हैं। वह एक अर्से बाद फिल्मों में वापसी कर रही हैं। फिल्म भले बॉक्स ऑफिस पर जलवे नहीं बिखेर सकी, पर माधुरी के काम की खासी तारीफ हुई। 'गुलाब गैंग' में भी वह मेन लीड में हैं। उनके समक्ष फिल्म का विलेन भी कोई मेल कलाकार नहीं है। जूही चावला अपने दो दशकों के कॅरियर में पहली दफा विशुद्ध विलेन की भूमिका में हैं। वह भी टिपिकल लाउड नहीं, शांत चित्त वाली कोल्ड ब्लडेड।

हाल के दशक में वैसी फिल्मों की झंडाबरदार प्रियंका चोपड़ा कहती हैं, 'ऐतराज' के बाद से मैं लगातार हर साल एक महिला प्रधान फिल्में करती रही हूं। इसके बावजूद कि मुझ पर कॉमर्शियल फिल्मों की हीरोइन का लेबल चस्पा है। उस फिल्म में महिलाएं ही फिल्म की नायक थीं। वह चाहे मेरा किरदार रहा हो या फिर करीना कपूर का। 'फैशन' से यह माना जाने लगा कि हीरोइन भी सिनेमाघरों में भीड़ खींचकर ला सकती हैं। आगे फिर विद्या की फिल्मों ने कहर ढाया। मेरे ख्याल से अभिनेत्रियों के लिए यह स्वर्णिम दौर है। यह फेज मेल या फीमेल केंद्रित फिल्मों का नहीं, अच्छी फिल्मों का है। फिल्म अच्छी है तो उसमें हीरो हो या हीरोइन, ऑडिएंस उसे देखने जाएगी ही। व‌र्ल्ड सिनेमा, ग्लोबल टीवी कार्यक्रमों से ऑडिएंस का राफ्ता हुआ है। हीरोइन व महिलाओं को वस्तु मात्र की नजर से देखने व समझने के नजरिए में बदलाव आया है।

बकौल जूही, आगे महिला प्रधान फिल्मों का जलवा सिल्वर स्क्रीन पर देखने को मिलेगा। ऐसा देशभर में महिलाओं की उत्तरोत्तर उन्नति और सशक्तीकरण के चलते होगा। महिलाएं हर क्षेत्र में डिसीजन लेने वाले पदों पर अहम् भूमिका अदा कर रही हैं। उसके अक्स से बड़ा पर्दा कैसे महरूम रह सकता है? दूसरी चीज यह कि अब प्रेम कथाओं के बजाय सामयिक अन्य विषयों पर कहानियां बन रही हैं। दर्शक महिलाओं को सिर्फ लवर गर्ल की भूमिकाएं अदा करते देख उकता चुके हैं। उन्हें फीमेल किरदारों से कुछ अलग व नए की तलाश व उम्मीद रहने लगी है। जिन फिल्माें में उनकी वह मांग पूरी होती है, वे उसे भरपूर प्यार देते हैं।

महिला प्रधान फिल्मों के साथ-साथ महिला फिल्मकारों को भी फिल्म जगत हाथों हाथ लेने लगी है। 'मैं हूं ना', 'ओम शांति ओम' जैसी सफल फिल्में बना चुकी फराह खान कहती हैं, हमें रचनात्मकता को जेंडर के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। वैसे भी पहले के मुकाबले अब फीमेल फिल्मकारों व क्रू मेंबर्स की तादाद काफी बढ़ी है। यहां तक कि हॉलीवुड के मुकाबले भी हिंदी फिल्म जगत में महिला निर्देशकों की तादाद ज्यादा है।

'मैं हूं ना' से पहले एक आम धारणा थी कि आला दर्जे की कॉमर्शियल हिट फिल्में एक महिला फिल्मकार से नहीं मिल सकतीं। वे ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील मसलों पर आधारित फिल्में ही बना सकती हैं। 'मैं हूं ना' ने उस अवधारणा को बखूबी तोड़ा। आगे सौभाग्य से गौरी शिंदे की 'इंग्लिश विंग्लिश', रीमा कागती की 'तलाश' और फिर दिव्या खोसला कुमार की 'यारियां' ने अच्छा बिजनेस किया।

एकता कपूर तो पहले ही अपनी काबिलियत का परचम लहरा चुकी हैं। कैमरे के आगे या पीछे महिलाओं की बढ़ती तादाद ने महिला केंद्रित कहानियों को हवा दी है। मेल फिल्मकारों के लिए भी महिला केंद्रित मुद्दे ऐसे विषय हैं, जो अब अनछुआ रहा है। दर्शकाें में भी उन मुद्दों को लेकर जबर्दस्त कौतूहल है। लिहाजा निर्माताओं ने अपने कदम उस दिशा में मोड़े हैं।

कंटेंट के लिहाज से भी महिला प्रधान फिल्मों ने अपने झंडे बीते दशकों में गाड़े हैं। वह चाहे आजादी के तुरंत बाद ही छठे दशक में भारतीय सिनेमा को ग्लोबल पटल पर चमकदार सितारे के रूप में प्रदर्शित करने वाली 'मदर इंडिया' हो या फिर गुलजार की 'आंधी', स्मिता पाटिल की 'भूमिका', महेश भट्ट की 'अर्थ', केतन मेहता की 'मिर्च मसाला', मीनाक्षी शेषाद्री के कॅरियर की सबसे बेहतरीन फिल्म 'दामिनी' और खूबसूरत माधुरी दीक्षित की डी-ग्लैम अवतार वाली 'मृत्युदंड'।

'मृत्युदंड' के बाद महिला प्रधान फिल्मों के लिए दर्शकों को खासा तरसना पड़ा। जैसा रीम कागती कहती हैं, फिल्म जगत विशुद्ध मुनाफे की बुनियाद पर बनी इमारत है। उस वक्त फिल्मों का सीधा सा मतलब होता था दो लगाओ तो कम से कम पांच या दस की रिकवरी होनी चाहिए। दर्शकों के साथ फिल्मकारों का डिमांड व सप्लाई का नात था। लिहाजा यहां अधिसंख्य वही फिल्में बनती थीं, जिनकी डिमांड ज्यादा रहती थी। अब हालात बदले हैं। महिला प्रधान फिल्मों के प्रति माहौल बना है। उनके लिए भरपूर संभावनाएं हैं। काफी हद तक राजकुमार गुप्ता, विकास बहल, मिलन लूथरिया जैसे फिल्मकारों को दाद देनी होगी, जिन्होंने महिला प्रधान फिल्मों को प्राथमिकता दी। आला दर्जे के सिनेमाघरों के बनने से घर में कैद रह महज सास-बहू सीरियल देखने वाली महिलाएं बाहर निकल थिएटर आने लगी हैं। वे एक बहुत बड़ा ऑडिएंस बेस तैयार कर रही हैं। उस चीज को फिल्मकार महसूस करने लगे हैं और उनकी डिमांड की आपूर्ति में वे जुट रहे हैं।

विद्या बालन कहती हैं, अब 'लाज ही औरत की गहना है' जैसी बातें बेमानी हो चुकी हैं। औरतें पहले के मुकाबले ज्यादा सजग, मजबूत और स्वावलंबी हुई हैं। उनकी ख्वाहिशें समंदर से गहरी हुई हैं। उस किस्म की सोच से लैस महिलाओं की कहानी प्रेरक होती है। वे रियल लगती हैं। उनकी कनेक्टिविटी ज्यादा होती है। धीरे-धीरे उनकी अपील क्लास से मास लेवल की होती जा रही है। नतीजतन आने वाला समय महिला प्रधान फिल्मों का है।

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