जीती जंग पहचान की..

जीवन की आग में तपीं और कुंदन बनकर निकलीं। इन्हें विरासत में कुछ नहीं मिला। इन्होंने अपनी किस्मत खुद कमाई। चुनौतियों से संघर्ष कर अपना मुकाम हासिल किया। इनके चेहरे पर आत्मविश्वास और धैर्य की आभा है। सेल्फमेड होने का गर्व है। ये जुनूनी महिलाएं रुकी नहीं हैं। अपने अ

By Edited By: Publish:Mon, 10 Mar 2014 11:39 AM (IST) Updated:Mon, 10 Mar 2014 11:39 AM (IST)
जीती जंग पहचान की..

जीवन की आग में तपी और कुंदन बनकर निकलीं। इन्हें विरासत में कुछ नहीं मिला। इन्होंने अपनी किस्मत खुद कमाई। चुनौतियों से संघर्ष कर अपना मुकाम हासिल किया। इनके चेहरे पर आत्मविश्वास और धैर्य की आभा है। सेल्फमेड होने का गर्व है। ये जुनूनी महिलाएं रुकी नहीं हैं। अपने अनुभव को बांट रही हैं और उन महिलाओं को पैरों पर खड़े होने का संबल भी दे रही हैं, जो जीवन की कठिनाइयों से जूझ रही हैं, लेकिन उनमें कुछ कर गुजरने की जिजीविषा है।

टेलर से चेयरपर्सन तक

'दो साल तक नेशनल रेलवे

कंसल्टेटिव काउंसलर पद पर रहते हुए मैंने पूरे भारत से जानकारी इकट्ठी कि कैसे महिलाओं के लिए बैंक बनाया जाए। आज हमारी यह परिकल्पना और सपना दोनों पूरा होने को है। निश्चित रूप से आगामी वित्त वर्ष में हमारा बैंक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अंतर्गत आ जाएगा। जिसके लिए अब तक जम्मू से हमने 18 हजार सदस्य बना लिए हैं और पांच करोड़ 39 लाख रुपया महिलाओं को लोन भी दिया। यह उन्हीं की बचत है, जो उन्हीं के काम आ रही है और उन्हीं की सफलता की कहानी लिखने जा रही है।' जम्मू की कैलाश कुमारी वर्मा के शब्द उनकी अथक मेहनत का परिचय देते हैं। पुरुषों के कपड़े सिलने से शुरू हुआ उनका सफर आज वूमन क्रेडिट कॉरपोरेशन बैंक की चेयरपर्सन होने पर आ पहुंचा है। कैलाश के पिता बोन टीवी के कारण 35 वर्ष बिस्तर पर रहे। चार बहनों और भाई की जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी। कम उम्र में शादी के बाद जम्मू के आईटीआई में कटिंग-टेलरिंग सीखने के लिए एडमिशन लिया तो पूरे जम्मू-कश्मीर में फ‌र्स्ट आई। पुरुषों के कपड़ों की सिलाई सीखने के लिए कानपुर भेजा गया तो भारत में दूसरी पोजीशन हासिल की। जब लौटकर जम्मू आई तो जानीपुर और तलाब तिल्लों में अनुसूचित जाति की लड़कियों के लिए सिलाई सेंटर खोले। सेंटर बढि़या चल रहे थे, लेकिन परिवार की जरूरत को देखते हुए उन्होंने दोनों सेंटरों को बंद कर अपने ससुराल लौट जाने का फैसला किया। वहां कैलाश ने मर्दाना कपड़े सिलने शुरू किए। इस छोटी सी कमाई का एक हिस्सा वह अपने मायके वालों को देतीं और दूसरा अपने परिवार के लिए रखती। कैलाश कहती हैं, 'हमने अंबेडकर जयंती के मौके पर सरकार से यह मांग की थी कि देशभर में चल रहे वूमन डेवलपमेंट कॉरपोरेशन की तरह जम्मू में भी संगठन बनना चाहिए। तब जम्मू में वूमन डेवलपमेंट कॉरपोरेशन का आगाज हुआ। इसके मैनेजिंग डायरेक्टर का पद मुझे ऑफर किया गया, लेकिन मुझे लगता है कि इस पर कोई आईएएस अधिकारी बैठना चाहिए, जो इस काम की पेचीदगियों को समझ सकें।'

अंधेरे से उजाले की ओर

'मैंने कंप्यूटर एप्लीकेशन्स का कोर्स किया और घर बैठकर ही ऑन लाइन ट्रेडिंग का काम शुरू किया। इस काम में मन नहीं लगा तो कॉस्मेटोलॉजी का एडवांस कोर्स किया। 2009 में जालंधर में खुले ओरेन ब्यूटी इंस्टीट्यूट में बतौर सेंटर हेड नौकरी मिल गई। साथ-साथ पढ़ाई जारी रखी और एडवांस ब्यूटी कोर्स किये।' जालंधर की पूजा घई ने कठिन संघर्ष के बावजूद हिम्मत नहीं छोड़ी। आज वह ओरेन इंस्टीट्यूट ऑफ ब्यूटी एंड वेलनेस की वाइस प्रेसिडेंट हैं। मात्र छह वर्ष में वह गृहिणी से कॅरियर वुमेन के मुकाम पर पहुंची हैं। सड़क हादसे में पति की मौत ने अंधकार में ढकेल दिया था, परंतु इस अंधेरे में से उन्होंने उजले भविष्य की राह बनाई। विवाह के बाद 10 साल तक गृहिणी रही पूजा ने अपने दोनों बच्चों के भविष्य के लिए अपने पैरों पर खड़े होने की ठानी। पूजा बताती हैं, 'सबटेक यूके से प्रमाणित अंतरराष्ट्रीय ब्यूटी चेन के मालिकों ने जब काम के प्रति मेरी लगन देखी तो बड़ी जिम्मेदारियां सौंपनी शुरू कर दीं। दो साल से मैं कंपनी की वाइस प्रेसिडेंट हूं। आज 20 सेंटर तथा अंबाला, सोलन, अहमदाबाद में जल्द खुलने वाले सेंटर का सारा बिजनेस देख रही हूं। 3000 से अधिक स्टूडेंट्स को ट्रेनिंग दे रही हूं। कम से कम एक लाख महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने का हमारा मिशन है।'

लड़ती हैं न्याय की लड़ाई

स्लम एरिया के बच्चों और महिलाओं के लिए तन-मन-धन से समर्पित हैं लखनऊ की दुर्गेश मेहरोत्रा। दुर्गेश हर साल स्लम एरिया के पांच-पांच बच्चों को गोद लेकर उनकी पढ़ाई-लिखाई व अन्य खचरें को वहन करती हैं। महज 18 की हुईं, शादी तक दुर्गेश ने स्नातक की पढ़ाई भी पूरी नहीं की थी। ससुराल रूढि़वादी था, पढ़ाई-लिखाई और नौकरी के सख्त खिलाफ। ऐसे माहौल में ससुर ने सपोर्ट किया। ग‌र्ल्स कॉलेज में दाखिला कराकर, स्नातक की पढ़ाई पूरी कराई। पढ़ाई के दौरान भी वह काफी सोशल वर्क करती थीं। 1993 में वह एक समाज सेविका अजंता लोहित के संपर्क में आई तो उनके मन में छिपी समाज सेवा की भावना को हवा मिली। दुर्गेश ने 'सुधनी फाउंडेशन' की शुरुआत की। उन्होंने कोर्ट-कचहरी की बिल्कुल जानकारी नहीं रखने और न्याय पाने के लिए सालों भटकने वाली महिलाओं की मदद करने के उद्देश्य से एलएलबी की पढ़ाई पूरी की। अब वह लोगों को कानूनी सलाहकार के तौर पर नि:शुल्क सलाह देती हैं और कई महिलाओं के लिए खुद न्याय की लड़ाई लड़ती हैं।

आंखों में ढेरों सपने

'सवार हो जाए जब जुनून सिर पर, कि कुछ पाना है, रह जाएगा फिर क्या, दुनिया में जो हाथ नहीं आना है।' इसी जुनून ने झारखंड की आदिवासी बाला बिनीता सोरेन को इतिहास रचने की प्रेरणा दी। गरीब परिवार से थीं बिनीता, लेकिन जब तुमुंग में टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन के कैंप में अभियान दल के सदस्यों को पहाड़ पर चढ़ते देखा तो मन में एवरेस्ट फतह करने का सपना पाल लिया। परिवार के मना करने के बावजूद वे घर से 30-40 किलोमीटर दूर स्थित कैंप साइकिल से पहुंच जातीं। उनकी जीवटता देख पहली महिला एवरेस्ट विजेता बछेन्द्री पाल ने बिनीता को माउंटेनियरिंग का बेसिक कोर्स करने की सलाह दी। फिर क्या था, बिनीता को तो जैसे दिशा मिल गई। एक बार आगे बढ़ीं तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। सबसे पहले सासेर कांगरी, फिर काराकोरम पास, थार अभियान, अजर्ेंटीना स्थित माउंट अकोंकागुआ पर सफलता हासिल की। इनके बाद जब बछेन्द्री पाल ने एवरेस्ट फतह करने का सुझाव दिया तो बिनीता को मानो मन मांगी मुराद मिल गई और वह झट से तैयार हो गई। अपने अनुभव को बयान करते हुए बिनीता कहती हैं, 'जब हम एवरेस्ट अभियान के दौरान 25 मई 2012 को कैम्प फोर से आगे बढ़े तो 120 किमी. प्रति घंटा की रफ्तार से चल रही बर्फीली हवाओं ने हमें रोकने की कोशिश की, लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। मौसम की मार के चलते दल में शामिल एक जर्मन डॉक्टर की रास्ते में ही मौत हो गयी, लेकिन मेरे मन में एक ही बात थी कि चाहे कुछ भी हो हमें खाली हाथ वापस नहीं लौटना है। अगरफतह किए बिना घर वापस लौटे तो बछेन्द्री मैम को क्या मुंह दिखाएंगे। खैर किस्मत ने मेरा साथ दिया और मैं एवरेस्ट की चोटी को चूम पाई। एवरेस्ट पर चढ़ने के बाद तो जैसे थकान ही मिट गयी, लेकिन असली लड़ाई नीचे उतरने की थी, क्योंकि एवरेस्ट की चढ़ाई से ज्यादा खतरनाक उतरना होता है। हिमस्खलन, बर्फीली हवाएं रास्ते में चुनौतियां बन खड़ी रहती हैं। हमारे अभियान दल के 14 सदस्यों में से सिर्फ सात ने ही एवरेस्ट फतह करने में कामयाबी पायी।'

शिक्षा ने जोड़ा

'खुदी को कर बुलंद इतना कि तकदीर बनाने से पहले खुदा बंदे से पूछे बता तेरी रजा क्या है।' कुछ ऐसा ही रहा है देहरादून (डोईवाला) की विनीता रानी का जज्बा। विनीता की शादी दिल्ली के एक व्यवसायी से हुई थी। शादी के बाद विनीता को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ा और ससुराल से शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना सहनी पड़ी। शादी के कुछ माह बाद ही पति ने तलाक का नोटिस थमा दिया। पति के तलाक देने और बच्चे की कस्टडी अपने पास ले लेने के बाद विनीता के संघर्ष का दौर शुरू हुआ। जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने की चुनौती के लिए उन्होंने हथियार चुना शिक्षा को। सामाजिक ताने-बाने की परवाह किए बिना पढ़ाई की। मां ने भी बेटी की पढ़ाई के लिए समाज से लोहा लिया। बीटीसी करने के बाद सहायक अध्यापिका के तौर पर कार्य करना शुरू किया। उन्हें कभी भी अपने बच्चे से नहीं मिलने दिया गया, लेकिन स्कूल के छात्र-छात्राओं में उन्होंने अपने बच्चे को देखा और तन्मयता के साथ अपना कर्तव्य निभाती चली गई। सेवानिवृत्ति के बाद भी वह भीमावाला में नौनिहालों को लगातार बिना किसी मानदेय के शिक्षा दे रही हैं। सेवाकाल के दौरान अर्जित की गई संपत्ति व सेवानिवृत्ति पर मिली धनराशि का कुछ हिस्सा उन्होंने अनाथालय को दे दिया। अपने जीवनकाल में ही अपनी वसीयत तैयार कर अपनी सारी पूंजी अनाथ आश्रम, गुरुकुल सहित अन्य कई ट्रस्टों के नाम कर दी। साथ ही अपने जेवर अपनी बहन की लड़की की शादी में दे दिए।

छोटी पहल बनी उद्यम

'पापड़-बड़ी के व्यवसाय ने मेरे घर परिवार की हालत सुधारी है और इसी की बदौलत अपनी तीन पुत्रियों को पढ़ा-लिखाकर उनकी शादी कर पाई हूं। दो बेटों को ग्रेजुएट तक पढ़ाकर व्यवसाय के लिए तैयार किया है।' स्वरोजगार की बदौलत खुद को सम्मानजनक मुकाम पर पंहुचने वाली रांची की पूनम सिंघानी 58 पार चुकी हैं, लेकिन उनके जज्बे में तनिक भी कमी नहीं दिखाई देती। आज रांची के घर-घर में अपने अचार, पापड़, बड़ी, मसाला, चिप्स आदि घरेलू उत्पादों की बदौलत जानी जाती हैं पूनम। गुजराती परिवार से ताल्लुक रखनेवाली पूनम कहती हैं, 'जब मैं 28 साल पहले रांची आई, तब पति गुड़ का छोटा सा व्यवसाय करते थे। उस व्यवसाय की हालत खराब होने पर परिवार की आर्थिक स्थिति डगमगा गई। मैं ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी, बस घर पर ही अचार, पापड़, बड़ी, मसाले चिप्स बनाकर आसपास के घरों में बेचना शुरू किया। इनके स्वाद ने लोगों को प्रभावित किया और मांग बढ़ गई। मेरा छोटा सा व्यवसाय पूनम गृह उद्योग के रूप में स्थापित हो गया। अब तो इनकी मांग विदेशों से भी आती है।' आज पूनम महिलाओं को प्रशिक्षण देकर उन्हें आत्मनिर्भर बना रही हैं।

(यशा माथुर)

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