जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो

<p>उड गई चिडिया कापी, फिर थिर-हो गई पत्ती। </p>

By Edited By: Publish:Tue, 06 Dec 2011 04:54 PM (IST) Updated:Tue, 06 Dec 2011 04:54 PM (IST)
जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो

उड गई चिडिया

कापी, फिर

थिर-हो गई पत्ती।

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय हिंदी के कालजयी रचनाकार है। उन्हें प्रयोगवाद का प्रवर्तक कहा जाता है। वस्तुत: उनका पूरा रचना संसार परंपरा और प्रयोग का विलक्षण सह मेल है। राहों के अन्वेषी अज्ञेय उन यायावर रचनाकारों में अग्रगण्य हैं जिन्होंने शब्द की संस्कृति को नयी आभा प्रदान की। अज्ञेय के व्यक्तित्व और लेखन को लेकर जाने कितने विवाद उठे। कई बार मौन भी अभिव्यजना है में विश्वास रखने वाले अज्ञेय ने अपने मित कथनों से भी इन चर्चाओं को बल दिया। अपने सरोकारों पर टिप्पणी करते हुए एक बातचीत में वे कहते है, मेरे लिए महत्व की बात यह है कि अपने और अपने आसपास के बीच जो संबंध है उसे जानने पहचानने का प्रयत्‍‌न करूं। उसके सभी स्तरों को समग्रता और जटिलता में, और पहचान के सहारे उस स्वाधीनता को बढाऊं और पुष्ट करूं जो मेरे मानव की सबसे मूल्यवान उपलब्धि है।

7 मार्च 1911 को कुशीनगर, उ.प्र. के एक पुरातत्व-उत्खनन शिविर में जन्मे अज्ञेय को ज्ञान की कई धाराएं विरासत में मिली थीं। उनके पिता पं. हीरानंद शास्त्री बहुविद्याविशारद थे। लाहौर से बीएससी करने वाले अज्ञेय को संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी, बांग्ला सहित कई भाषाओं का ज्ञान था। अपनी मां व्यती देवी के साथ 1921 में उन्होंने पंजाब की यात्रा की थी, उनके मन में स्वाधीनता और संघर्ष के बीज इसी समय पडे। परवर्ती अज्ञेय को देखकर बहुतेरों के लिए यह विश्वास करना कठिन होता था कि यह व्यक्ति हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का सक्रिय सदस्य था। चंद्रशेखर आजाद, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव आदि अनेक क्रांतिकारियों से अज्ञेय की घनिष्ठता रही। कई बार गिरफ्तार हुए, जेल गये, कालकोठरी में रहे, अपने घर में नजरबंद किये गये। अज्ञेय में स्वाधीनता की यह ललक उनके साहित्य में भांति-भंाति से प्रतिबिम्बित हुई। उन्होंने 1924 में पहली कहानी लिखी। सच्चिदानंद हीरानंद को अज्ञेय नाम जैनेन्द्र कुमार ने दिया था।

अज्ञेय सचमुच बहुमुखी व्यक्तित्व थे। उन्होंने खुद लिखा कि जूता गाठने से लेकर बहुत सारे काम करके वे अपनी आजीविका चला सकते है। एक पत्रकार के रूप में सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, थॉट, वाक्, दिनमान, नया प्रतीक और नवभारत टाइम्स में उनके योगदान को बहुमूल्य माना जाता है। रचनाकार के रूप में शीर्ष स्थानीय महत्व तो है ही, रचनात्मक आंदोलनों के नेतृत्व की जो समझ उनमें थी वह दुर्लभ है। तारसप्तक सहित सप्तक चतुष्टय की परिकल्पना और परिणति ने हिंदी साहित्य में नया इतिहास रचा। उन्हें प्रयोगवाद से जोडना स्वाभाविक है, 1943 में तारसप्तक छपा था, लेकिन अज्ञेय प्रयोगवाद की रूढ अवधारणाओं व फल श्रुतियों को मीलों पीछे छोड देने वाले रचनाकार है।

अज्ञेय ने समान शब्द सिद्धि के साथ कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना, यात्रा वृत्तांत ,डायरी, रिपोर्ताज, संस्मरण आदि विधाओं में प्रचुर लेखन किया। भग्नदूत, चिंता, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, आंगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, सागर मुद्रा, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं और ऐसा कोई घर आपने देखा है सहित सोलह संग्रहों में उनकी कविताएं मौजूद है। सचयन आदि तो हैं ही। अज्ञेय की कविता के बीज शब्द है- स्वतंत्रता, निजता, व्यक्ति, मौन, करुणा, प्रकृति, रहस्य, अपार, अंवेषण और जीवन। श्रद्धा और समर्पण को भी जोडा जा सकता है। जन्म दिवस, हरी घास पर क्षण भर, कलगी बाजरे की, नदी के द्वीप, बावरा अहेरी, यह दीप अकेला, चक्रात शिला, असाध्य वीणा और एक सन्नाटा बुनता हूं आदि अनेकानेक कविताओं में अज्ञेय हिंदी कविता को अभूतपूर्व गरिमा प्रदान करते है। निश्चित रूप से वे व्यक्तित्व के वैभव को रेखांकित करते है, पर उन्हें व्यक्तिवाद में सीमित करना अन्याय है। विदेशी साहित्य का सघन पाठक होने के नाते उन पर विचारधाराओं व शैलियों के प्रभाव भी देखे जा सकते है। इन सबके बीच अज्ञेय की मौलिकता अनन्य है।भीतर जागादाता कविता में लिखते है,लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हंसी/ यह आहूत, स्पर्शपूत भाव/ यह मैं, यह तुम, यह खिलना/ यह ज्वार, यह प्लावन/ यह प्यार, यह अडूब उमडना-/ सब तुम्हे दिया। वे हिंदी कविता के एक बडे समय और उन्नयन का नेतृत्व करते है। कई परवर्ती बडे कवियों पर अज्ञेय का प्रभाव दिखता है। कथा साहित्य में अज्ञेय का हस्तक्षेप युगांतरकारी है। शेखर एक जीवनी ,नदी के द्वीप और अपने-अपने अजनबी उपन्यास व्यक्ति और समाज की विभिन्न विडम्बनाओं से जूझते है। स्त्री, प्रेम, इच्छा, विरक्ति, मर्यादा, विद्रोह, संस्कार आदि को अज्ञेय नये सिरे से परिभाषित करते है। उनकी कहानियों के सात संग्रह है। जिनमें गैंग्रीन, हीली-बोन् की बत्तखें, मेजर चौधरी की वापसी, शरणार्थी आदि को क्लैसिक का दर्जा मिल चुका है। अज्ञेय के पास शब्दार्थ को पहचानने और उसे व्यक्त कर सकने की जो अपूर्व क्षमता है वह हिंदी गद्य को बदल देती है।हीली बोन् की बत्तखें के अंतिम वाक्य है,कैप्टेन दयाल ने कुछ कहना चाहा, पर अवाक् ही रह गये, क्योंकि उन्होंने देखा, हीली की आखों में वह निव्र्यास सूनापन घना हो आया है जो कि पर्वत का चिरन्तन विजन सौंदर्य है।

अरे यायावर रहेगा याद और एक बूंद सहसा उछली में अज्ञेय के यात्रा वृत्तंात है। देश और विदेश में घूमते अज्ञेय इन वर्णनों से पाठक की चित्तवृत्ति उदार बनाते है। वे कविर्मनीषी थे। लगभग बारह संग्रहों में उनके निबंध है जिनके केंद्र में साहित्य, संस्कृति, विकास और मनुष्यता से जुडे अनेक प्रश्न है। यहां उनकी तार्किक भारतीयता दिखाई पडती है। कुट्टिचातन नाम से अज्ञेय ने अनेक ललित निबंध लिखे जो सबरग,सबरग और कुछ राग व छाया का जंगल आदि में है। उनका गीतिनाट्य उत्तर प्रियदर्शी युद्ध, शांति और करुणा को समकालीन संदर्भो में व्याख्यायित करता है। भवन्ती,अन्तरा,शाश्वती आदि डायरी पुस्तकें और स्मृतिलेखा व स्मृति के गलियारों से संस्मरण संग्रह अज्ञेय के सृजन और चिन्तन के अनूठे साक्ष्य है। सप्तक श्रृंखला सहित अठारह से अधिक ग्रंथों का संपादन किया। अज्ञेय एक मर्मान्वेषी अनुवादक भी थे। उनका अवदान विपुल व बहुमूल्य है। अज्ञेय के जन्मशती वर्ष में उनके साहित्य के पुनर्मूल्याकन के बहुतेरे उपक्रम हो रहे है। कई आलोचक पश्चाताप भाव से भर उठे है कि हमने वाद ग्रस्तता के कारण इतने बडे शब्द शिल्पी की अनदेखी की। कुछ आलोचक ऐसे भी है जो इस स्मरण वर्ष की भावुकता से लाभ उठाकर मा?र्क्सवादियों को मुंहतोड जवाब जैसी वीरोचित व्याख्याएं कर रहे है। वस्तुत: ये दोनों ही उपक्रम इस बात के प्रतीक है कि अज्ञेय जैसे बडे रचनाकार को समझने में होने वाली भूलें हिंदी समाज का सहज स्वभाव जैसी है। अज्ञेय ने एक जगह बुद्धिजीव और बौद्धिक का फर्क स्पष्ट किया है। उन्हें बौद्धिक के रूप में ही समझा जा सकता है। प्रेम, प्रकृति और स्वाधीनता आदि अनेक रचनात्मक विशेषताएं अज्ञेय को बडा बनाती है। युवा आलोचक व कवि पंकज चतुर्वेदी उनकी जीवन दृष्टि को रेखांकित करते हुए कहते है कि,मनुष्य की अनियंत्रित स्वार्थपरता, भोगवाद और क्रूरता क्रूरता के मद्देनजर यह कवि की भविष्य-दृष्टि के प्रेसिशन या अचूकता की मिसाल है। अज्ञेय इसलिए बडे कवि है कि उनमें सुंदर और उदात्त की अभिव्यक्ति की संस्कृति ही नहीं, धारा के विरुद्ध जाकर अप्रिय और असुविधाजनक सच कहने का साहस भी था। अपने सच को ही कहने की बात करने वाले अज्ञेय कई बार अप्रत्याशित भी है, जिससे उन्हें समझने में कई कठिनाई हो सकती है। रागात्मक संबंधों पर तो उनकी अभिव्यक्तियां अद्वितीय है। प्रकृति का इतना बडा प्रेमी भी मिलना कठिन है।

अज्ञेय लिखते है मैं वह धनु हूं, जिसे साधने में प्रत्यचा टूट गई है/ स्खलित हुआ है वाण, यद्यपि ध्वनि दिग्दिगन्त में फूट गई है-। सच यही है कि ऐसे रचनाकार की शब्द में समाई कठिन होती है। अज्ञेय भारतीय साहित्य को गौरव प्रदान करने वाले महान रचनाकार है।

[ सुशील सिद्धार्थ]

बी2/8, केशवपुरम् लारेस रोड,

नयी दिल्ली- 35 

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