मत्तेवाड़ा का मर्म: 35 साल की कानूनी लड़ाई के बाद मिली जमीन, अब पंजाब सरकार कर रही बेदखल

लुधियाना केे पास मत्‍तेवाड़ा जंगल के पास स्थित छोटे से गांव सेखेवाला के लोगों को 35 साल की कानूनी जंग के बाद जमीन पर अधिकार मिला था। लेकिन पांच साल बाद ही सरकार उसे छीन रही है।

By Sunil Kumar JhaEdited By: Publish:Sat, 25 Jul 2020 07:31 AM (IST) Updated:Sat, 25 Jul 2020 10:55 AM (IST)
मत्तेवाड़ा का मर्म: 35 साल की कानूनी लड़ाई के बाद मिली जमीन, अब पंजाब सरकार कर रही बेदखल
मत्तेवाड़ा का मर्म: 35 साल की कानूनी लड़ाई के बाद मिली जमीन, अब पंजाब सरकार कर रही बेदखल

इन्द्रप्रीत सिंह, सेखेवाला (लुधियाना)। जीने का संघर्ष क्या होता है, अगर किसी ने यह देखना हो तो उसे मत्तेवाड़ा के जंगल के साथ लगते छोटे से गांव सेखेवाला में जरूर जाना चाहिए। यहां मात्र 70 परिवार बसते हैं, जो अमृतसर और गुरदासपुर से उजड़कर यहां आए हैं और अदालतों के धक्के खा रहे हैं। अदालतें तो उनकी संवेदनाओं को समझ रही हैं, लेकिन वोट देकर चुनी जाने वाली सरकारें संवेदनहीन हो चुकी हैं।

मात्र पांच साल पहले 35 साल की एसडीएम की अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी लड़ाई जीतने के बावजूद आज यह गांव एक बार फिर सरकार के उस फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती देने की तैयारी कर रहा है, जिसमें राज्य सरकार ने इस गांव की सारी जमीन के अधिग्रहण का फैसला किया है। 35 साल लडऩे के बाद यह अदालती लड़ाई कितनी लंबी होगी, यह तो यहां के लोगों को भी नहीं, पता लेकिन उनको इतना अवश्य पता है कि वे जीतेंगे जरूर...।

सेखेवाला गांव में पूर्व सरपंच धीरा सिंह के घर पर रणनीति तय करने के लिए बैठक करते गांव वासी।

अदालतें तो लोगों की संवेदनाओं को समझ रही हैं, लेकिन वोट देकर चुनी सरकारें संवेदनहीन हो चुकी हैं

मत्तेवाड़ा में जिस 955 एकड़ जमीन पर इंडस्ट्रियल पार्क बनाने की बात हो रही है, उसमें से 416 एकड़ पंचायती जमीन गांव सेखेवाला की भी है। 1964 में कांग्रेस नेता सतनाम सिंह बाजवा के कहने पर लगभग 200 दलित परिवारों के ये लोग सतलुज नदी के साथ लगते जंगल के पास अपना आशियाना बसाने आए थे। तब यह रिजर्व फॉरेस्ट नहीं था, बल्कि जगह-जगह लोग जंगलों को साफ करके उसे खेती योग्य बना रहे थे।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ही यह पॉलिसी लाए थे। गांव के पूर्व सरपंच धीरा सिंह ने सालों तक गांव के लोगों की लड़ाई लड़ते रहे। उन्‍होंने बताया, हम 200 परिवारों के साथ यहां आए और जंगलों को साफ करके उसे खेती योग्य बनाने में हमें तीन साल लग गए। दो तिहाई लोग तो वापस भी चले गए। सरकार ने यहां पर आलू फार्म बनाने की योजना पर काम शुरू कर दिया। तभी से इनकी नजर हमारी जमीन पर लग गई।

धीरा सिंह।

धीरा सिंह ने बताया कि चूंकि हमारे पास भी इस जमीन की कोई रजिस्टरी नहीं थी। इसलिए लड़ाई एसडीएम लेवल पर शुरू की गई। यहां से हम जीतते गए और सरकार इसकी अपीलें उच्च अदालतों में करती रही। 1988 में अदालती लड़ाई शुरू हुई। आखिर 2015 में हमें सुप्रीम कोर्ट से न्याय मिला और सारी जमीन का इंतकाल पंचायत के नाम पर हो गया।

धीरा सिंह कहते हैं, 'हमारा पूरा गांव अनुसूचित जाति के लोगों का है और सभी के पास पांच-पांच एकड़ जमीन है, जिस पर हम खेतीबाड़ी करके हम गुजर-बसर करते हैं। कुछ जमीन पर गांव बसा हुआ है। अब सरकार इस जमीन का अधिग्रहण कर रही है, जो भी पैसा सरकार देगी वह तो पंचायत के खाते में चला जाएगा, यानी एक तरह से सरकार के पास ही रहेगा, लेकिन हमारे पास तो एक इंच जमीन भी नहीं रहेगी। हम इस उम्र में अपने बच्चों को लेकर कहां जाएंगे।'

सेखेवाला गांव की सरपंच अमरीक कौर।

ग्राम सभा के जरिए दी कानूनी चुनौती

सरकार ने इस जमीन का अधिग्रहण करने के लिए गांव की सरपंच अमरीक कौर से कहा कि यहां पर पार्क बनाया जाएगा। उन्होंने पंचायत से साइन करवा लिए। अब अमरीक कौर कह रही हैं कि उन्हें धोखे में रखा गया। वह पढ़ी-लिखी नहींं हैं, इसलिए उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं है। उन्होंने कहा हमें यह नहीं बताया कि यहां इंडस्ट्रियल पार्क बनाना है और उन्हें सारी जमीन चाहिए। गांव की ग्रामसभा ने इस जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया है। साथ ही इसे हाई कोर्ट में चुनौती दी जा रही है।

अभी क्या है व्यवस्था

गांव की सारी जमीन पंचायत के नाम पर है और सभी परिवारों के पास पांच-पांच एकड़ जमीन है, जिसे वे ठेके पर लेकर खेती करते हैं। इसके बदले वे पंचायत को 11 हजार रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से ठेके की पेमेंट करते हैं, लेकिन इस बार ठेके पर देने के लिए बोली नहीं करवाई गई।

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प्रमुख तथ्‍य

- 70 परिवार बसते हैं इंडस्ट्रियल पार्क से प्रभावित होने वाले गांव सेखेवाला में।

- 416 एकड़ पंचायती जमीन गांव सेखेवाला की है, जो पार्क के अधीन आएगी।

-1964 में कांग्रेस नेता सतनाम सिंह बाजवा के कहने आए थे परिवार।

-200 दलित परिवारों के लोग सतलुज नदी के साथ लगते जंगल में आशियाना बसाने आए थे। 

-3 साल लगे जंगल के साथ की जमीन साफ करने में। दो तिहाई लोग वापस भी चले गए।

-1988 में जमीन के लिए अदालती लड़ाई शुरू हुई।

-2015 में लोगों को सुप्रीम कोर्ट से न्याय मिला।

- पांच-पांच एकड़ जमीन है सभी परिवारों के पास।

-11 हजार रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से ठेके की पेमेंट करते हैं किसान।

-35 साल की कानूनी लड़ाई जीतने के बावजूद संकट में हैं किसान।

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'अकेले मत्तेवाड़ा जंगल ने पंजाब की 25 फीसद जैव विविधता को बचाया'

'' कुछ भी बदला नहीं है। मुझे लग रहा था कि कोरोना महामारी के बाद सरकारें जैव विविधता, प्रकृति और पर्यावरण को बचाने के लिए काम करेंगी, लेकिन मत्तेवाड़ा जंगल के साथ इंडस्ट्रियल पार्क के प्रस्ताव ने मेरी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। लुधियाना कोई अपवाद नहीं है। यह पहले से ही पंजाब का सबसे प्रदूषित शहर है। इसमें अगर थोड़ी-बहुत सांस लेने योग्य हवा बची है, तो वह मत्तेवाड़ा जंगल की वजह से है। अकेले मत्तेवाड़ा ने ही पंजाब की 25 फीसद जैव विविधता को बचा रखा है। यह ठीक वैसा ही उदाहरण है, जैसा तामिलनाडु के त्रिपुर में टैक्सटाइल इंडस्ट्री ने अपना सारा कचरा व रासायनिक पदार्थ साथ लगती नदी में बहा दिए हैं। यहां भी ठीक ऐसा ही होगा। सारा कचरा सतलुज में बहाने की तैयारी है। मुझे नहीं पता कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ऐसा क्यों कर रहे हैं? अगर हमें इन जंगलों को बचाना है तो इसके लिए संयुक्त प्रयास करने होंगे। लोगों को एक लहर खड़ी करनी होगी।

                                                                              - दविंदर शर्मा, कृषि नीतियों के जाने-माने एक्सपर्ट।

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