यहां से गुजरती थी Grand Trunk Road, इस सफर के निशां आज भी बाकी हैं...

अंग्रेज हुकूमत के दौरान शेरशाह सूरी मार्ग ‘ग्रैैंड ट्रंक रोड’ या ‘जीटी रोड’ कहलाने लगा। देश का सबसे महत्वपूर्ण मार्ग होने के कारण यह ‘राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर एक’ बनाया गया।

By Kamlesh BhattEdited By: Publish:Tue, 23 Jul 2019 02:54 PM (IST) Updated:Wed, 24 Jul 2019 04:01 PM (IST)
यहां से गुजरती थी Grand Trunk Road, इस सफर के निशां आज भी बाकी हैं...
यहां से गुजरती थी Grand Trunk Road, इस सफर के निशां आज भी बाकी हैं...

जेएनएन, जालंधर। मैं पुराना राष्ट्रीय राज मार्ग नंबर एक हूं। यूं तो मेरा जन्म मौर्य काल में यानी ईसा से भी तीन सदी पूर्व हुआ और तब मुझे ‘उत्तरापथ’ के नाम से जाना जाता था। समय के साथ शासक बदलते रहे और मेरे नाम भी। 16वीं सदी में शेरशाह सूरी ने पांच साल के संक्षिप्त कार्यकाल में अपने साम्राज्य के विस्तार में मेरा पुनर्निर्माण किया। तब मुझे नाम मिला ‘शेरशाह सूरी मार्ग’ और फिर मुगल काल में मेरा विस्तार बांगलादेश के चटगांव से अफगानिस्तान के काबुल तक हुआ। इतने विशाल व महत्वपूर्ण मार्ग होने के कारण मुझे ‘सड़क -ए-आजम’ का खिताब मिला।

अंग्रेज हुकूमत के दौरान मैं ‘ग्रैैंड ट्रंक रोड’ या ‘जीटी रोड’ कहलाने लगा। देश का सबसे महत्वपूर्ण मार्ग होने के कारण ‘राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर एक’ बनाया गया। आधुनिक पंजाब में मैं राजपुरा से शुरू हो लुधियाना, फिल्लौर से जालंधर होता हुआ अमृतसर के अटारी से पाकिस्तान की ओर जाता हूं, जबकि पहले जालंधर और अमृतसर मेरा हिस्सा नहीं थे। राहगीरों के लिए अनेक सराय व कोस मीनारें मुझ पर बनाई गई थीं, जिनमें से कुछ धरोहर के रूप में मेरे आसपास आज भी स्थित हैं, जिनकी देखरेख भारतीय पुरातत्व विभाग करता है। आइए, आज उन्हीं के सफर पर चलें...

किला सराय सुल्तानपुर लोधी यहां खेले शाहजहां के पुत्र

शहंंशाह अकबर द्वारा सुल्तानपुर लोधी में ऐतिहासिक किला सराय का निर्माण करवाया गया, जिसका इन दिनों अस्तित्व खतरे में है। 719 हिजरी में मुगल सुल्तान नसीरुदीन महमूद के राज में बने इस किले की गोद में स्थापित सफेद मस्जिद में बादशाह शाहजहां के शहजादे औरंगजेब व दारा शिकोह ने अपना बचपन बिताया। यहां की सफेद मस्जिद में इलामा अब्दुल लतीफ साहिब से इन्हें तालीम मिली थी। अब इस स्थान पर करीब सात दशक से पंजाब पुलिस का कार्यालय है।

इतिहासकारों के अनुसार इस इमारत के निर्माण पर उस वक्त एक लाख रुपये खर्च किए गए थे। 400 गज चौड़े और 450 गज लंबे क्षेत्र में बने इस किले के बीचोंबीच मुगल सुल्तान के अधिकारियों के निवास स्थान बने हुए थे। पंजाब सरकार, पुरात्तव विभाग एवं पंजाब टूरिज्म विभाग की अनदेखी के कारण किला सराय एवं किले में स्थापित दरबार हाल खंडहर में तबदील हो चुका है, हालांकि सफेद मस्जिद की हेरीटेज से लगाव रखने वाले कुछ पुलिस अधिकारियों की निजी रुची के कारण हालत कुछ ठीक है।

किला सराय का मुख्य द्वार 2013 में गिर गया था जिसके पश्चात टूरिज्म डिपार्टमेंट ने मुख्य द्वार के छज्जे की मुरम्मत का काम मुंबई की अंटरिक्स कंस्ट्रक्शन को 10 मार्च 2015 से सौंपा गया था। 52 लाख से लगभग आधा काम हुआ था और पैसे के अभाव में कंपनी बीच में छोड़ कर चली गई।

सराय अमानत खां तरनतारन जिसने दिया गांव को अपना नाम

अटारी सीमा से यदि हम यह सफर शुरू करें तो यहां से करीब 17 किलोमीटर पर है सराय अमानत खां। मुगल बादशाह शहाजहां ने 17वीं सदी में जब दिल्ली से लाहौर के बीच शेरशाह सूरी मार्ग का आगे निर्माण करवाया था, तब अब्दुल-हक शिराजी नामक कारीगर को अमानत खां का नाम देकर उससे यह बनवाई थी। इस सराए की देखभाल का जिम्मा अमानत खां को सौंपा गया था। वह इस सराय की दीवारों पर बकरों की बग्गी में सवारी करता था। सराय के चारों ओर दस बड़े गूंबद बनाए गए थे। यहां दीवारों पर मीनाकारी और चित्रकारी अपने आप में एक मिसाल कायम करती है। यहां पर एक कुआं भी था, जो समय के साथ वजूद खो बैठा।

पश्चिमी भाग में बेगमों के लिए हमाम भी बनाए गए थे। सराय की लोकप्रियता के कारण साढे तीन हजार की अबादी वाले तथा 884 वर्ग हैकटेयर क्षेत्रफल में फैले इस गांव को सराय अमानत खां के नाम से ही जाना जाता है। अब पुरातत्व विभाग द्वारा बकायदा इस सराय की देखभाल की जा रही है। नानकशाही ईटों से बनी इस ऐतिहासिक धरोहर को सरकार द्वारा सैलानियों के लिए किया जा रहा है। ऐतिहासिक महत्व होने के कारण यहां पर बॉलीवुड की कई फिल्मों तथा पंजाबी गीतों की शूटिंग भी हुई है। तरनतारन के विधायक डॉ. धर्मबीर अग्निहोत्री कहते हैंं कि ऐतिहासिक सराय अमानत खां को और अच्छी बनावट प्रदान करने के लिए प्रदेश सरकार भी कई योजनाएं लाने वाली है, ताकि भविष्य की पीढ़ियों के लिए इस धरोहर को सहेजा जा सके।

नूरमहल सराय है जहांगीर के इश्क की निशानी

जालंधर के प्रसिद्ध कस्बे नूरमहल का नाम सुनते ही मुगल काल में निर्मित ऐतिहासिक सराय की तस्वीर सामने आ जाती है। इसे नूर जहां के आदेश पर जकारिया खान ने 1618 ई. में छोटी नानकशाही ईंटों के इस्तेमाल से बनवाया था। कहते हैं कि आज जहां नूरमहल बसा है, वहां किसी समय ‘कोट महबूब’ के नाम से नगर था। नूरमहल को बादशाह जहांगीर ने अपनी बेगम नूरजहां के हुसन से प्रभावित होकर बसाया था। बादशाह जहांगीर अपनी बेगम नूरजहां को प्रेम से ‘नूर महल’ पुकारता था, जिससे नगर का नाम नूरमहल पड़ गया।

 

कहते हैं, शहर की तंग गलियों में एक बुजुर्ग रहा करता था तंबूनुमा साज बजाता था। इस संबंध में ढाडी अमर सिंह शौंकी ने एक गीत लिखा था जो धीरे-धीरे लोकगीत का रूप धारण कर गया। ‘इक तारा वजदा वे रांझणा नूरमहल दी मोरी।’

अब अवैध कब्जे व पार्किंग

शहर के बीरबल नाहर ने बताया कि नूरमहल व नूरजहां बेगम बारे दिए विवरण के बाद मुगल दौर की बेहतरीन शिल्प कला की अनमोल निशानी जिसे पुरातत्व विभाग की तरफ से राष्ट्रीय विरासत का दर्जा प्राप्त है। लेकिन अब यहां अवैध पार्किंग व कब्जों के कारण सैलानियों को काफी दिक्कत का सामना करना पड़ता है।

शाही सराय फिल्लौर जो शाहजहां ने बनवाई

आज फिल्लौर के जिस किले में पुलिस एकेडमी चलती है वहां मुगल काल में सेना के ठहरने के लिए एक सराय थी। कहा जाता है कि शाहजहां (1627-1658) के शासनकाल में फिल्लौर में शाही सराय का निर्माण किया गया था। बाद में, शहर पर ककरहा सिखों द्वारा कब्जा किया, जिनका दमन महाराजा रंजीत सिंह (1780-1839) ने किया। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद, महाराजा रणजीत सिंह ने वर्ष 1809 के करीब दीवान मोहकम चंद को इम्पीरियल सराय पर कब्जा करने के लिए भेजा।

अपने फ्रांसीसी और इतालवी अधिकारियों यानी वेंचुरा व अल्लार्ड की मदद से इसे एक दुर्जेय किले में बदल दिया। यह अंग्रेजों के जवाब में बनाया गया था, जिन्होंने लुधियाना में एक छोटा किला बनवाया था और फिल्लौर के घाट की सुरक्षा के लिए था। 1846 में अंग्रेजों ने इस किले पर कब्जा कर लिया था। 1890 में इसे सिविल अधिकारियों को सौंप दिया गया और इसके बाद पुलिस प्रशिक्षण के लिए उपयोग किया जाने लगा।

दक्खनी सराय जहांगीर, नकोदर में थे 124 कमरे

नकोदर से कपूरथला की ओर चलें तो करीब 10 किलोमीटर पर एक गांव आता है जहांगीर दक्खनी। यह गांव सिर्फ कागजों में ही है। जहांगीर उसके साथ सटा हुआ गांव है। इसकी मुख्य सड़क से करीब दो किलोमीटर की दूरी पर जहांगीर दक्खनी सराय है। इसका निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां के समय में 1640 ईस्वी के करीब हुआ। अली मरदान खान द्वारा बनाई गई इस सराय का मकसद यात्रियों के पड़ाव तथा बाहरी हमलों से फौज की सुरक्षा रखना था। इसी कारण इस सराय की चारों दिशाओं में चार ऊंची बुर्जियां बनाई गई थीं। दक्खनी सराय में 124 कोठड़ियां थीं और चार कुएं भी। साथ ही एक मस्जिद भी बनाई गई थी। लाल पत्थर से बनी सराय के मुख्य द्वार पर टाइलों से सजाया गया था। इसके बाग भी बहुत सुंदर थे।

सराय लशकरी खां खन्ना ‘रंग दे बसंती’ से हुई हिट

खन्ना के नजदीक मुगल काल की निशानी सराय लश्करी खान मौजूद है। इसे 1667 में लश्करी खान और अश्करी खान ने बनाया था। यह सराय शेरशाह सूरी ने अपने सैनिकों तथा खुद के आराम के लिए विशेष तौर पर बनवाई थी। इसमें दो कुएं तथा एक मस्जिद भी बनाई गई। बॉलीवुड फिल्म ‘रंग दे बसंती’ की शूटिंग के बाद यह सराय भी लोगों में ‘हिट’ हो गई। फिर ‘यमला पगला दीवाना’ तथा पंजाबी धारावाहिक ‘रुस्तम-ए-हिंद’ की शूटिंग भी यहां हुई। केन्द्र सरकार द्वारा इस सराय को टूरिज्म काम्पलेक्स में बदलना तय हुआ था। इसके लिए तीन करोड़ 60 लाख रुपये भी भेजे गए। विडंबना यह रही कि इमारत की हालत इतनी बुरी थी कि वह राशि मात्र चारदीवारी व मुख्य द्वारों की मरम्मत में ही खत्म हो गई। अब सराय आगे की कार्रवाई की इंतजार में है।

शंभू मुगल सराय 475 वर्ष पहले बनी यह

पटियाला की ओर से पंजाब में प्रवेश करते ही शंभू बैरियर आता है। इसी शंभू में स्थित मुगल काल की 475 वर्ष पुरानी ऐतिहासिक धरोहर मुगल कारवां सराय, जिसे अब मैरिज पैलेस में तबदील होने जा रही है। मुगल सराय के नजदीक ही छह एकड़ में बनी चैनसन हवेली इस सराय के अधीन ही आती है, जिसे केंद्र सरकार की हिदायतों के अनुसार लीज पर दिया हुआ है।

इतिहास के पन्ने कहते हैं कि भारत पर साल 1540 से 1545 तक राज करने वाले शेरशाह सूरी ने जो दिल्ली- लाहौर मार्ग पर सराय बनवाईं उनमें शंभू की मुगल सराय को लाल चूना मिट्टी से बनाया गया था। सराय में चार बुर्ज, एक मस्जिद, सात कुएं व 124 किलेनुमा कमरे बने हुए हैं। सराय में एक किलोमीटर तक भूमिगत रास्ता है। कहा जाता है कि यह रास्ता तब दिल्ली तक जाता था जिसे बाद में बंद कर दिया गया। पिछले समय में इसी सराय में तैनात रहे मुलाजिमों का कहना है कि सराय में अंडर ग्रउंड रास्ता है लेकिन वह मुगल सराय से एक किलोमीटर दूर बने कुएं तक जाता था। उनका कहना है कि उक्त सराय का निर्माण सैनिकों की सुरक्षा व दुश्मनों से बचाव के लिए करवाया गया था और वह अंडर ग्राउंड रास्ते से पानी भरकर सैनिकों के लिए लाते थे।

सराय के तीन तरफ सैनिकों की सुरक्षा के लिए चार किलोमीटर के दायरे राजगढ़, नौशहरा, चमारू में कोस मीनार का निर्माण करवाया गया था जहां पर नगाड़े बजाने वाले तैनात किए जाते थे। दुश्मनों की आहट होते ही वह अपने नगाड़ों से सभी को सावधान कर देते थे। देश की आजादी के बाद मुगल सराय में डाकखाना, पटवारखाना, सरकारी स्कूल व अन्य अदारे चलते रहे हैं लेकिन 35 वर्ष पहले सभी अदारे सराय से हटवाकर गांवों में शिफ्ट कर दिए गए हैं। कभी-कभार पंजाबी व हिन्दी फिल्मों के कलाकार शूटिंग आदि करने आते हैं। इसके अलावा पुलिस बल के जवानों की भी कभी-कभी ट्रेनिंग करवाई जाती है। देश के विभाजन के दौरान पाकिस्तान से उजड़ कर आए विस्थापितों को पांच वर्ष तक इसी सराय में बसाया गया था। बाद में साल 1948 में राजपुरा नगर का जीर्णोद्धार शुरू करवाकर साल 1952 में ज्यादातर विस्थापितों को वहां बसाया गया था।

मुगल कारवां सराय दोराहा आज यह है बदहाल

दोराहा में मुगल कारवां सराय लगभग 400 साल पुरानी धरोहर है, जो आज बदहाल है। राहगीरों के ठहरने के उद्देश्य से इस सराय का निर्माण किया गया था। मुगल वास्तुकला का बेहतरीन उदाहरण पेश करने वाली यह सराय विभिन्न सरकारों के उदासीन रवैये के कारण अब जर्जर हालत में है। 168 वर्ग मीटर में फैली सराय के तीन गेट हैं, इनमें मुख्य गेट मध्य में और दो गेट दक्षिणी और उत्तरी क्षेत्र में हैं। दक्षिण गेट में फूलों वाली चित्रकारी व मीनाकारी है, जबकि उत्तरी गेट को भी फूलों वाले डिजाइन से सजाया गया है, जो लोगों को एकाएक अपनी ओर आकर्षित करता है।

सराय में कुल 132 कमरे थे, जहां राहगीर रुकते थे। इसके अलावा तीन हाल कमरे और एक हमाम भी है। वर्तमान में इनमें से मात्र 62 कमरे ही बचे हैं, शेष उचित देखरेख न होने के कारण ध्वस्त हो चुके हैं। खासबात यह है कि ज्यादातर कमरे रोशनी वाले और हवादार बनाए गए हैं। सराय की छत के अंदरूनी भाग पर भी सुंदर कलाकारी की गई है। इसकी छत के ऊपर किसी समय में पूरे राजसी ठाठ दिखते थे।

सराय में आने वाले लोगों के नमाज पढ़ने के लिए एक खूबसूरत मस्जिद भी यहां बनी है, जो अब जर्जर हालत में है। इस सराय में एक कुआं भी था, जो अब पूरी तरह से सूख चुका है। राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे इस सराय का निर्माण तत्कालीन मुगल फौज के आराम के लिए किया गया था। सराय पर तैनात गार्ड गुरदीप सिंह कहते हैं कि अब इस सराय को देखने पर सिर्फ ऐतिहासिक रुचि रखने वाले कुछ ही लोग आते हैं।

मुगल सराय सरहिंद नायाब वास्तुशिल्प

मुगल बादशाह जहांगीर ने सरहिंद में अपनी आरामगाह आम खास बाग के रूप में बनाई थी। सरहिंद के दिल्ली व लाहौर के मध्य होने के कारण बादशाह जहांगीर यहां आराम करने के लिए जरूर रुकते थे। 1605 से 1621 ईसवी के दौरान बनी इस इमारत में तब के वास्तुशिल्प का अद्भुत नमूना देखने को मिलता है। इमारत को गर्मियों में ठंडा व सर्दियों में गर्म रखने के लिए यहां पौराणिक वातानुकूलित तकनीक अपनाई गई थी।

भवन की चूने व सरहंदी ईंटों (छोटे आकार की) से बनी चौड़ी दीवारों को ठंडा रखने के लिए उनमें मिट्टी के पाइप डाले गए थे। इन पाइपों में ठंडा पानी डाल कर भवन के प्रत्येक हिस्से में घुमाया जाता था, जोकि गर्मियों में पूरे भवन को ठंडा रखता था। इसी प्रकार सर्दियों में भवन को गर्म रखने के लिए इन पाइपों में बोयलरों में पानी गर्म कर के छोड़ा जाता था। दीवारों में डाले गए पाइपों के चिन्ह आज भी मौजूद हैं। मौजूदा समय में जर्जर हालत में पहुंच चुकी इस सराय के पश्चिम दिशा की ओर एक बड़ा कआं बनाया गया था। जहां से पानी लेकर इमारत में लगी पाइपों में छोड़ा जाता था।

आम खास बाग सरहिंद के नजदीक से गुजरने वाला यह मार्ग मंडोफल, धीरपुर, शाहपुर, पतारसी से होते हुआ नलास व राजपुरा तक तथा ज्योति स्वरूप मोड़ से फतेहगढ़ साहिब को जाने वाला मार्ग भी शेर शाह सूरी मार्ग में आता है जोकि मुगलकाल से बने पुल मंडी गोबिंदगढ़ की ओर हैं। इसे बाद में अग्रेजों ने कई स्थानों से सीधा भी किया था।

क्या हैं कोस मीनार?

आप किसी भी सफर पर निकलें तो जगह-जगह मील पत्थर या बोर्ड किसी भी मार्ग पर जगहों की दूरी दर्शाते हैं। क्या आप जानते हैं कि पहले इन मील पत्थरों का काम कोस मीनारें करती थीं। मौर्य काल से ही इन्हें बनाने की परंपरा शुरू हुई लेकिन सूरी काल व मुगल काल में इनकी संख्या में खूब वृद्धि हुई। हर कोस (करीब 3.2 किलोमीटर) पर एक मीनार बनाई जाती थी। करीब 30 फीट ऊंची इन मीनारों से राहगीर स्थान की दूरी का अंदाजा लगाते थे। इनका एक अहम काम डाक व्यवस्था में मदद करना भी था। इसीलिए इन्हें ‘डाक मीनार’ या ‘डाक ठहरें’ भी कहा जाता था।

हर कोस मीनार पर एक सिपाही घोड़े के साथ मौजूद रहता था। यह सिपाही राज संदेश अगली मीनार तक ले जाता और फिर वहां से अगला उसे आगे ले जाता था। जब शेरशाह सूरी या अन्य मुगल शासक लाहौर और दिल्ली के बीच यात्रा करते थे तो इन कोस मीनारों में नियुक्त किए गए व्यक्ति नगाड़े बजाकर अगली कोस मीनार के व्यक्ति को सूचित करते थे और यह नगाड़े दिल्ली से लाहौर तक क्रमवार बजते थे। लोगों को पता लग जाता था कि बादशाह की सवारी आ रही है। ये कोस मीनार और पुल पुरातत्व विभाग ने सुरक्षित स्मारक घोषित किए हैं। आज इनमें से अधिकांश की हालत खराब हैंं।

पाथियां सुखाते हैं लोग कोस मीनार पर

तरनतारन शहर से करीब 6 किलोमीटर पर गांव कोट धर्म चंद में व तीन किलोमीटर पर नूरदी गांव में, नौरंगाबाद- वईंपुर मार्ग पर किसी के खेतों में, झबाल में तथा तरातारन की लेपरसी कालोनी में कुल पांच कोस मीनारें हैं। इनमें से अधिकांश जर्जर हाल में हैं। झबाल वाली मीनार पर लोग पाथियां सुखाते हैं।

बेर साहिब रोड पर खड़ी कोस मीनर

मुगल काल की एक अन्य निशानी सुल्तानपुर लोधी के बस अड्डे के पास बेर साहिब रोड पर खड़ी कोस मीनार है। पुरातत्व विभाग की अनदेखी के चलते और संरक्षण के अभाव में यह अपना अस्तित्व खोने लगी थी। अब गुरु नानक देव जी के 550 वें प्रकाश उत्सव पर प्राचीन धरोहरों को संरक्षित करने के प्रयास में इसकी भी मरम्मत होने की संभावना है।

कोस मीनार पर बनाया शौचालय

लुधियाना के ट्रांसपोर्ट नगर स्थित कोस मीनार खस्ता हाल में है। आसपास कूड़े का डंप है। साथ लगते एक ढाबे पर आने वाले लोग मीनार के साथ बने अस्थायी शौचालय का भी उपयोग कर रहे हैं। शहर के अधिकांश लोग इस धरोहर के ऐतिहासिक महत्व से अंजान हैं। आस पास ट्रकों के जमावड़े के कारण इस पर नजर भी कम ही पड़ती है। पुरातत्व विभाग द्वारा भी इस पर एक बोर्ड लगा कर केवल औपचारिकता निभाई गई है। हालांकि बोर्ड पर लिखा है कि मीनार को नुक्सान पहुंचाने के अपराध में सजा का प्रावधान है लेकिन शायद बोर्ड लगाने के बाद इसकी सुध किसी ने नहीं ली है।

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