सादगी पसंद और ईमानदार डॉ. हर्षवर्धन, जनता की नब्ज जानते हैं भारत के 'स्वास्थ्यवर्धन'

उनकी सादगी और ईमानदारी पूरे देश में एक नजीर हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ऐसे ही स्वास्थ्यवर्धन की उपाधि नहीं दी थी

By Shashank PandeyEdited By: Publish:Thu, 27 Jun 2019 09:31 AM (IST) Updated:Thu, 27 Jun 2019 09:52 AM (IST)
सादगी पसंद और ईमानदार डॉ. हर्षवर्धन, जनता की नब्ज जानते हैं भारत के 'स्वास्थ्यवर्धन'
सादगी पसंद और ईमानदार डॉ. हर्षवर्धन, जनता की नब्ज जानते हैं भारत के 'स्वास्थ्यवर्धन'

नेमिष हेमंत, नई दिल्ली। बात एक मई 1969 की है, जब कक्षा 9 में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले हर्षवर्धन खेलने के लिए पार्क में पहुंचे, लेकिन खेलने के बजाय वह उत्सुकतावश पार्क में लगने वाली नियमित शाखा में चले गए। वहां, खेलकूद और गुरु नानक देव, गुरु गोविंद सिंह और शिवाजी की देशप्रेम की कहानियों ने उनके किशोर मन पर गहरा असर डाला। शाखा के लोग भी हर्षवर्धन को रोजाना आकर गतिविधियों में भाग लेने को प्रेरित करने लगे। तब जो जुड़ाव शुरू हुआ वह दिनोंदिन गहराता चला गया। 

शुरू से रही है नेतृत्व क्षमता
डॉ. हर्षवर्धन की जिंदगी का ध्येय तीन शब्दों में रचा-बसा है, शुचिता, देशभक्ति व समाजसेवा। परिवार, समाज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें इसी तरह विकसित किया है। नेतृत्व क्षमता उनमें शुरू से रही है। कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी मेमोरियल (जीएसवीएम) मेडिकल कॉलेज में वह जूनियर डॉक्टरों के संगठन से जुड़े और उनके संघर्ष का नेतृत्व किया। जब तक वह वहां रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा भी लगाई। यही नहीं, जब आपातकाल लागू हुआ तो उन्होंने भूमिगत रहकर छात्रावासों में और छात्रों के बीच आंदोलन को खड़ा किया। आपातकाल खत्म होने पर जब प्रजातंत्र को पुनस्र्थापित करने का आह्वान हुआ तो उन्होंने एक टीम का नेतृत्व करते हुए इंदिरा गांधी के विरोध में कानपुर से अमेठी तक के गांवों में जागरूकता यात्रा निकाली। जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज की मौजूदा प्राचार्य व डॉ. हर्षवर्धन की सहपाठी रहीं डॉ. आरती दवे लालचंदानी बताती हैं कि वह अक्सर अपने साथियों से कहते थे कि दिल्ली लौटकर वह सियासत के साथ समाजसेवा करेंगे और दिल्ली में खुद का अस्पताल होगा, जो आगे चलकर सही भी साबित हुआ। उन्होंने ईएनटी (नाक, कान व गले) सर्जन के तौर पर कृष्णा नगर में अपना क्लीनिक शुरू किया। वह दिल्ली विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहने तक नियमित रूप से इस क्लीनिक में मरीज देखते थे। अब भी जब क्लीनिक पर जाते हैं, मरीजों का हाल-चाल ले लेते हैं। सियासत में आने के दशकों बाद तक इसी क्लीनिक की आय से उनका घर खर्च चलता रहा। आज भी उनका घर साधारण ही है। घर के फर्नीचर तकरीबन 30 साल पुराने हैं।

ऐसा योद्धा जो कभी नहीं हारा
उनकी पहचान एक ऐसे योद्धा की भी है जो कभी हार नहीं मानता। उनके पुराने मित्र डॉ. वीके मोंगा कहते हैं कि उन्हें बराबर लड़ते हुए और जीतते हुए देखा है। जो भी ठान लिया, उसे पूरा करने में पूरी शिद्दत से जुट जाते हैं, इसलिए उनके जीवन में आराम नहीं है। डॉ. हर्षवर्धन ने 1993 से 2013 तक पांच बार दिल्ली में विधानसभा चुनाव लड़ा और जीते। 2014 व 2019 में उन्होंने चांदनी चौक सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता।

 वाजपेयी ने दी थी 'स्वास्थ्यवर्धन' की उपाधि
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ऐसे ही स्वास्थ्यवर्धन की उपाधि नहीं दी थी। उनके सिर दिल्ली समेत देशभर में पोलियो मुक्त अभियान शुरू करने का सेहरा बंधा है। विरमानी बताते हैं कि अपने प्रयासों से उन्होंने इसे जनआंदोलन बना दिया। उन्हें पता था कि अधिकारियों और चिकित्सकों को साथ लेने मात्र से पोलियो से मुक्ति नहीं पाई जा सकती है, इसलिए वह स्कूलों में गए, आरडब्ल्यूए, सामाजिक व धार्मिक संगठनों के साथ लगातार बैठकें कीं। सेलिब्रिटीज को इससे जोड़ा। उनका ही प्रयास था कि इस अभियान को केंद्र सरकार ने अपनाया और देश पोलियो मुक्त हुआ। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें स्वास्थ्य मंत्री बनाने का निर्णय लिया तो हर किसी को यह उपयुक्त लगा। मोदी सरकार की दोबारा ऐतिहासिक जीत के बाद स्वास्थ्य मंत्री बने डॉ. हर्षवर्धन पदभार ग्रहण करने साइकिल से मंत्रालय पहुंचे। यह छोटी यात्रा थी पर इसमें स्वास्थ्य और पर्यावरण के प्रति लोगों को प्रेरित करने वाला व्यापक संदेश था।

सादगी और ईमानदारी है नजीर
उनकी सादगी और ईमानदारी पूरे देश में एक नजीर हैं। डॉ. हर्षवर्धन भाजपा के एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिनके बारे में पूर्व प्रधानमंत्री आइके गुजराल ने कहा था कि यदि उन्हें देश के किसी मंत्री को उल्लेखनीय कार्य के लिए पुरस्कृत करना हो तो वह इसके लिए डॉ. हर्षवर्धन को चुनना पसंद करेंगे। डॉ. मोंगा बताते हैं कि इस बार ही जब स्वास्थ्य मंत्री बने तो डॉक्टरों का एक दल उनको बधाई देने गया। साथ में पैकेट में बंद भगवान की मूर्ति थी। उन्होंने उसे लेने से साफ मना कर दिया। जब उनसे बताया गया कि मूर्ति है तब भी उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। आखिरकार प्रतिनिधिमंडल ने ही पैकेट खोलकर मूर्ति देने का प्रस्ताव रखा जिसे उन्होंने माना और पैकेट की जगह मूर्ति ली। 

मुख्यमंत्री पद के रहे दावेदार
डॉ. हर्षवर्धन की नेतृत्व क्षमता को लेकर भाजपा शुरू से ही आश्वस्त थी। वर्ष 1993 से 1998 तक दो मौके आए, जब उन्हें दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाने की पार्टी में बात चली और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी उनके पक्ष में था, लेकिन परिस्थितियां अनुकूल नहीं रहीं, जिसकी वजह से अंतत: मुख्यमंत्री नहीं बन सके। इसके बाद भी वर्ष 2013 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव पार्टी ने उनके नेतृत्व में लड़ा पर संख्या बल कुछ कम रह जाने की वजह से वह मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। हालांकि इसका मलाल उनके चेहरे पर कभी नहीं दिखा। जनता और पार्टी के हर फैसले को उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। 

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