रामलीला मैदान में भी राहुल गांधी नहीं तोड़ पाए अनमने राजनेता की छवि

अनमने राजनेता की छवि तो तोड़ने के बजाय राहुल गांधी बार-बार अपनी बॉडी लैंग्वेज और बयानों से उसे मजबूत कर रहे हैं।

By Brij Bihari ChoubeyEdited By: Publish:Mon, 10 Sep 2018 02:39 PM (IST) Updated:Tue, 11 Sep 2018 08:00 AM (IST)
रामलीला मैदान में भी राहुल गांधी नहीं तोड़ पाए अनमने राजनेता की छवि
रामलीला मैदान में भी राहुल गांधी नहीं तोड़ पाए अनमने राजनेता की छवि

नई दिल्ली, (जेएनएन)। एक तस्वीर हजार शब्दों के बराबर होती है। सोमवार को कांग्रेस की अगुआई में भारत बंद के तहत राजधानी के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में मुख्य कार्यक्रम में विपक्षी दलों के तमाम बड़े नेताओं के बीच में बैठे राहुल गांधी की तस्वीरें भी उनके बारे में हजारों शब्दों को बयां कर रही है। इनसे उनकी एक अनमने राजनेता की छवि फिर उभर कर सामने आई है। एक ऐसे नेता की, जिसे जबरदस्ती राजनीति में धकेल दिया गया है।

इन तस्वीरों में वह मंच पर बैठे लगभग डेढ़ दर्जन राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों के नेता नहीं बल्कि उनके बीच खो गए किसी व्यक्ति की तरह नजर आ रहे हैं। ऐसा नहीं लग रहा है कि वह विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए आतुर है और उनके मन में अपने भाषण को लेकर उथल-पुथल मची हुई है। बल्कि वे एक ऐसे नेता की छवि पेश कर रहे हैं जो खोया हुआ है, अनमना सा है। यही वजह है कि उनके ज्यादातर भाषण दिल से निकले नहीं बल्कि रटे-रटाए प्रतीत होते हैं। जो नेता इतने गर्मागर्म मुद्दों के होते जनता को अपने पक्ष में न कर सके, उस पर सवाल तो उठेंगे ही।

पढ़ाई के बाद राजनीति नहीं नौकरी

यह पहला अवसर नहीं है जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने बॉडी लैंग्वेज और बयानों से अपने अनमने होने का सबूत दिया है। कई बार तो वे अति महत्वपूर्ण और नाजुक मौकों पर अचानक राजनीतिक क्षितिज से गायब होने के लिए भी उनकी काफी आलोचना होती रही है। सबसे पहले तो पढ़ाई पूरी करने के बाद कई वर्षों तक उनके राजनीति से दूर रहने की मिसाल दी जाती है। ट्रिनिटी कॉलेज लंदन से पासआउट राहुल 1999 में चुनाव में सोनिया गांधी की मदद करने के लिए लौटे लेकिन फिर वापस चले और लंदन में ही कंसल्टिंग फर्म मानीटर में काम करने लगे। वे वहां 2002 तक रहे।

पॉलिटिक्स में धमाकेदार एंट्री

लंदन से 2002 में देश लौटने के बाद 2004 के आम चुनाव में गांधी परिवार की परंपरागत सीट अमेठी से लोकसभा चुने जाने के बाद उन्हें कांग्रेस के ओबामा तक की संज्ञा दी गई। शुरुआत में अपने पिता राजीव गांधी की तरह आदर्शवादी चोले में नजर आए। यहां भी वे अपने जनता को सम्मोहित करने के बजाय पार्टी को आत्मचिंतन की सलाह देते हुए नजर आए। पार्टी उपाध्यक्ष चुने जाने के बाद समापन भाषण को याद कीजिए जिसमें उन्होंने कहा था कि इस केंद्रीकृत और बेहिसाब व्यवस्था को बेहतर बनाने की नहीं बल्कि उसे उखाड़ फेंकने और एक नई गवर्नेंस की एक नई प्रणाली की जरूरत है। यही नहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद भी उन्होंने स्वीकार किया था कि पार्टी जिन राज्यों में कमजोर है वहां उसने जनता के हितों से जुड़े मुद्दे उठाने बंद कर दिए हैं। लेकिन इन आदर्शवादी बातों को लागू नहीं कर पाने के कारण उनकी छवि सिर्फ बोलने वाले नेता की बनी।

चुनाव हारने के बाद भी हो गए थे गायब

वर्ष 2014 के चुनाव में कांग्रेस को इतिहास में मिली सबसे बड़ी हार के बाद राहुल गांध अचानक राजनीतिक दृश्यपटल से गायब हो गए और इस पराजय के लिए जवाब देने के लिए अपनी मां सोनिया गांधी को छोड़ गए। इससे उनकी नेता के रूप में छवि को गहरा धक्का लगा। सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया ने उन्हें इसके लिए उनकी खूब आलोचना की।

मनमोहन सिंह के विदाई समारोह में नहीं पहुंचे

पिछले चुनाव के बाद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विदाई समारोह से गैरहाजिर होकर भी राहुल ने अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय दिया। इसकी व्यापक तौर पर आलोचना हुई जिससे उनको राजनीतिक नुकसान झेलना पड़ा।

अनाप-शनाप बयानों से भी कराते रहते हैं किरकिरी

राहुल अपने बयानों से अक्सर अपनी और पार्टी की फजीहत कराते रहते हैं। अपनी हालिया जर्मनी यात्रा में आरएसएस की तुलना मिस्र के आतंकी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से करना उसकी एक मिसाल है। बाद में पता चला कि उसी मुस्लिम ब्रदरहुड के एक बड़े नेता को यूपीए सरकार ने सरकारी मेहमान बनाकर गले लगाया था।

जब लोकसभा में मार दी आंख

बयानों के अलावा वे अपनी हरकतों के लिए भी हंसी का पात्र बनते हैं। मोदी सरकार के खिलाफ अविश्‍वास प्रस्‍ताव पर चर्चा के दौरान लोकसभा में अपने भाषण के बीच पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से गले मिले, इसके बाद वह अपनी सीट पर बैठते ही अपने एक कांग्रेसी सांसद को आंख मारकर हंस दिए...। इससे उनकी छवि एक अगंभीर नेता की बनी।

हिंदुस्‍तान में वो ढाबा वाला दिखा दो जिसने कोकाकोला कंपनी बनाई हो...

दिल्ली में एक ओबीसी सम्मेलन के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष ने ओबीसी वर्ग के उत्थान को लेकर कोकाकोला कंपनी का उदाहरण दिया। इस दौरान राहुल गांधी ने चौंकाने वाली जानकारी दी कि कोकोकोला कपनी शुरू करने वाला एक शिकंजी बेचने वाला व्‍यक्ति था। वह अमेरिका में शिंकजी बेचता था। उसके हुनर का आदर हुआ, पैसा मिला और कोकाकोला कंपनी बनी, हिंदुस्तान में किसी ने ऐसा किया हो बता दो...। ऐसे उदाहरणों की भरमार है। ऐसे में गांधी परिवार से बंधी कांग्रेस में भले ही राहुल नेता बने रहे, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर न तो दूसरे दल और न ही आम जनता उन्हें गंभीरता से लेंगे। रिलक्टेंट पॉलिटिशियन की छवि को उन्हें तोड़ना ही होगा।

पहले कांग्रेसी राज्यों में घटाना चाहिए था पेट्रोलियम के दाम

कांग्रेस ने पेट्रोलियम पदार्थों की आसमान छूती कीमतों के खिलाफ भारत बंद का आह्वान कर राजनीतिक चतुराई का परिचय दिया क्योंकि उसके इस आह्वान के बाद कई राजनीतिक दलों इस बंद को समर्थन देने कीघोषणा की और एक तरह से कांग्रेस के पीछे चलती नजर आई, लेकिन राहुल गांधी को इससे आगे बढ़कर नेतृत्व क्षमता का परिचय देते हुए भारत बंद से पहले ही पंजाब और कर्नाटक में पेट्रोल व डीजल के दाम कम करने की घोषणा करनी चाहिए थी। इससे उसे भाजपा पर हमला करने का मौका मिलता।

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