'भीड़ मुझे पीट रही थी, लेकिन मैंने अपना कैमरा नहीं छोड़ा, यही मेरा हथियार है'

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार साल 2015 से लेकर 2018 तक करीब 142 पत्रकार हमलों का शिकार हुए। वहीं साल 1992 से लेकर 2016 के बीच करीब 70 पत्रकार मारे गए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 23 Jan 2019 12:31 PM (IST) Updated:Wed, 23 Jan 2019 12:40 PM (IST)
'भीड़ मुझे पीट रही थी, लेकिन मैंने अपना कैमरा नहीं छोड़ा, यही मेरा हथियार है'
'भीड़ मुझे पीट रही थी, लेकिन मैंने अपना कैमरा नहीं छोड़ा, यही मेरा हथियार है'

नई दिल्ली, अतुल पटैरिया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान की धारा 19 में समाहित स्वतंत्रता के छह अधिकारों में से एक है। यह निष्पक्ष-निडर पत्रकारिता का भी संबल है। कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट की गतवर्ष जारी वैश्विक रैंकिंग में भारत का स्थान 13वां है। पत्रकारों की हत्या की खबर भारत के गांवशहरों-कस्बों से यदाकदा आती रहती है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार साल 2015 से लेकर 2018 तक करीब 142 पत्रकार हमलों का शिकार हुए। वहीं साल 1992 से लेकर 2016 के बीच करीब 70 पत्रकार मारे गए। बावजूद तमाम चुनौतियों के पत्रकारिता की विधा लोकतंत्र के चौथे और प्रभावी स्तंभ का निर्वहन अबाध रूप से करती आई है। ऐसे ही निडर पत्रकारों की कर्तव्यनिष्ठा की एक बानगी।

उस दिन तिरुअनंतपुरम में सचिवालय के सामने सबरीमाला मामले को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शन का कवरेज मैं कर रही थी। मेरा कैमरा ऑन था। प्रदर्शनकारी मुझे जान से मारने की धमकियां दे रहे थे। लेकिन मैं उनकी धमकियों को अनसुना कर अपना काम जारी रखे हुए थी। यह बात उन्हें रास नहीं आई। तभी अचानक किसी ने मेरी पीठ पर जोरदार लात दे मारी। मैं सन्न रह गई। इससे पहले कि संभल पाती, वे मुझ पर टूट पड़े। उनकी पूरी टोली थी। मुझे लात-घूसों से बुरी तरह मारा जाता रहा। गालियां दी जाती रहीं। कैमरा छीनने की भी भरपूर कोशिश की गई। लेकिन मैंने भीषण चोट सहते हुए भी अपना काम पूरा किया...।

कैमरा नहीं छोड़ा...
दो जनवरी को केरल के सबरीमाला मंदिर में दो महिलाओं के प्रवेश के बाद राजधानी तिरुअनंतपुरम सहित चारों ओर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे। कैराली टीवी ने अपनी सीनियर वीडियो जर्नलिस्ट को सचिवालय के निकट चल रहे विरोध प्रदर्शन को कवर करने की जिम्मेदारी सौंपी। 50 वर्षीय अनुभवी वीडियो पत्रकार शाजिला अली फातिमा ड्यूटी निभाने मौके पर जा पहुंची। वे अपना कैमरा थामे घटनाक्रम की रिकॉर्डिंग करने लगीं। तभी उन पर उग्र प्रदर्शनकारियों ने हमला बोल दिया। हमले में उन्हें अंदरूनी चोटें आईं। असहनीय दर्द हुआ। इतना कि आंसू छलक पड़े। वे पिटती रहीं। गालियां और अपमान झेलती रहीं। आंखों से आंसू बह उठे। लेकिन कैमरा नहीं छोड़ा। पत्रकारिता के प्रति उनकी इस कर्तव्यनिष्ठा, उनके जज्बे का नजारा पूरी दुनिया ने देखा और सलाम किया।

कैमरा ही तो हथियार है...
कोई साधारण महिला भीड़ के ऐसे हमले से सहम जाती। हिम्मत हार जाती। लेकिन पचास साल की शाजिला डटी रहीं। हमने शाजिला से पूछा कि वह क्या जज्बा था, जिसने उन्हें यह साहस दिया? तिरुअनंतपुरम, केरल निवासी शाजिला ने बताया, पत्रकारिता ने ही मुझे यह साहस दिया। सच में, यदि कोई और होता तो संभव था कि हिम्मत-हौसला सब खो देता। सामने हिंसक भीड़ थी। जान से मारने की धमकी दी जा रही थी। और फिर हमला हो गया। दरअसल उनका जोर मेरे कैमरे को छीनने पर था। और मेरा जोर हर हाल में कैमरे को बचाने पर था। इसलिए नहीं कि कैमरा कीमती था। बल्कि इसलिए कि कैमरा ही तो मेरा हथियार था। उसी हथियार के बूते मैं डटी रही। पत्रकारिता मेरा कर्तव्य, मेरी रोजी और मेरा धर्म है। मैं हथियार कैसे डाल देती...।

शाजिला ने कहा, पत्रकार के लिए कलम और कैमरा ही तो हथियार हैं। ये समाज की सुरक्षा के काम आते हैं। यदि गलत हाथों में पड़ जाएं तो घातक भी साबित हो सकते हैं। मैं समाज को सच दिखाने को लेकर प्रतिबद्ध थी। यही वो जज्बा था, जिसने मुझे जीवन की उन कठिनतम परिस्थितियों में भी संभाले रखा।

हर पल चुनौतियों का सामना...
सात साल तक कैराली टीवी में डेस्क पर काम करने के बाद 2013 में शाजिला कैमरापर्सन बनी थीं। कई राजनीतिक प्रदर्शनों, हिंसक प्रदर्शनों में रिपोर्टिंग की। लेकिन ऐसा उनके साथ पहले कभी नहीं हुआ था। शाजिला ने कहा, जब पीछे से किसी ने मेरी पीठ पर जोर से लात मारी तो मैं अवाक रह गई। ये मेरे प्रोफेशनल करियर का सबसे बुरा अनुभव था। ऐसा बुरा अनुभव मुझे इससे पहले कभी नहीं हुआ था। हालांकि हर एक पत्रकार को हर एक दिन, हर एक पल किसी न किसी रूप में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। हम इसके अभ्यस्त हो जाते हैं और इसे ही जीवन मानकर आगे बढ़ते चले जाते हैं।

तो समाज सुरक्षित नहीं रहेगा...
शाजिला का पत्रकारिता के प्रति यह बेमिसाल जज्बा शायद दुनिया न देख पाती, लेकिन यह सबकुछ जब हो रहा था उसी दौरान किसी ने शाजिला की फोटो ले ली। पिटते हुए और आंसू बहाते हुए भी कैमरा थामे शाजिया की यह तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो गईं। देश ही नहीं दुनिया ने पत्रकारिता के प्रति शाजिला की निष्ठा को सलाम किया। एक नेता की ओर से माफी मांगने की बात पर शाजिला ने कहा, नेताओं को पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। बिना इसके समाज सुरक्षित नहीं रहेगा...।

मुझे ड्यूटी दी गई थी...
उस दिन के घटनाक्रम को याद करते हुए शाजिला ने बताया, दो जनवरी को जिस समय विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ, चैनल द्वारा मुझसे कहा गया था कि मैं सचिवालय के सामने हो रहे प्रदर्शन की कवरेज की जिम्मेदारी संभालूं। वहां कई दिनों से भूख हड़ताल पर बैठे कुछ नेताओं से प्रतिक्रिया भी लूं। मैं यही कर रही थी। उसी समय लोगों का एक समूह सचिवालय की ओर मार्च करता हुआ निकला। उन्होंने वहां लगे होर्डिंग और बैनर फाड़ दिए। पत्रकारों को खदेड़ना शुरू कर दिया। जब मैंने इसे कैमरे में कैद करना शुरू किया, तो उस भीड़ ने मेरी ओर रुख कर लिया। शाजिला ने कहा, मुझे इस बात का अफसोस है कि छीना-झपटी में मेरा कैमरा कुछ देर को बंद हो गया जिससे मैं अपने ऊपर हुए हमले की तस्वीरें नहीं ले सकी। इसे नेताओं को और सभ्य समाज के पैरोकारों को भी देखना चाहिए था। बहरहाल, थोड़ा ही सही लेकिन सच सामने आया।

मैं अपना काम ही तो कर रही थी...
शाजिला ने कहा कि वे केवल और केवल अपनी ड्यूटी को पूरा कर रही थीं। कैमरा ऑन कर वीडियो शूट करने के अलावा वे ऐसा कुछ और नहीं कर रही थीं, जिससे किसी को भी कोई आपत्ति होती। वे किस समाचार समूह के लिए काम करती हैं, उसका मालिक कौन है, उसकी निष्ठा या संपादकीय नीति क्या है, यह बात भी उनकी ड्यूटी के आड़े नहीं थी क्योंकि बतौर कैमरापर्सन उस समय उनका काम केवल घटनाक्रम को शूट करने तक सीमित था, जिसे उन्होंने हर हाल में पूरा किया।

अस्पताल की जगह दफ्तर पहुंचीं
बकौल शाजिला, दो घंटे बाद जब वह सब खत्म हुआ तब मैं दर्द से कराह रही थी। जल्द से जल्द अस्पताल जाना चाहती थी। लेकिन सोचा कि अस्पताल जाने से पहले सभी फोटो और वीडियो ऑफिस में जमा कर दूं। मैंने यही किया। मेरे लिए ड्यूटी पहले थी। मैं खुश हूं कि ऐसी स्थिति में भी अपना काम कर रही हूं। इसे इसी तरह जारी रखूंगी...।

अफसोस इस बात का है...
भीड़ मुझे जमकर पीट रही थी। लेकिन गंभीर चोटें सहते हुए भी मैंने अपना कैमरा नहीं छोड़ा। बतौर पत्रकार यही मेरा हथियार है, लिहाजा हथियार डाल देना मुझे कतई मंजूर न था। पत्रकारिता मेरा कर्म और धर्म है और जो हुआ वह मेरे लिए कर्मयुद्ध से कम न था। अफसोस इस बात का है कि छीनाझपटी में मेरा कैमरा कुछ देर को बंद हो गया...।
शाजिला अली फातिमा, वीडियो जर्नलिस्ट, तिरुअनंतपुरम, केरल

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