"सीजेआई का पद सूचना का अधिकार कानून के दायरे में आता है या नहीं" पर भी आएगा CJI का फैसला

आरटीआइ के तहत सीजेआइ का कार्यालय आता है या नहीं इस पर अदालत में सुनवाई हो चुकी है मगर फैसला नहीं आया है। इस मामले में भी CJI को फैसला सुनाना है।

By Vinay TiwariEdited By: Publish:Wed, 06 Nov 2019 03:11 PM (IST) Updated:Wed, 06 Nov 2019 03:11 PM (IST)
"सीजेआई का पद सूचना का अधिकार कानून के दायरे में आता है या नहीं" पर भी आएगा CJI का फैसला
"सीजेआई का पद सूचना का अधिकार कानून के दायरे में आता है या नहीं" पर भी आएगा CJI का फैसला

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। भारत के प्रधान न्यायाधीश का पद आरटीआई के तहत आएगा या नहीं? इस मामले पर भी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को अपना फैसला सुनाना है। CJI की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ तीन अपीलों पर सुनवाई कर रही थी। सुनवाई के बाद इस मामले पर फैसला सुरक्षित रख लिया गया था।

मालूम हो कि ये अपीलें सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल और शीर्ष अदालत के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के साल 2009 के उस आदेश के खिलाफ दायर की गई थी, जिसमें कहा गया है कि सीजेआई का पद सूचना का अधिकार कानून के दायरे में आता है। इस पीठ में जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना भी शामिल हैं।

मुख्य न्यायाधीश और राज्यपाल का कार्यालय आरटीआइ के दायरे से बाहर 

केंद्र सरकार ने कहा है कि देश के मुख्य न्यायाधीश और राज्यपाल का कार्यालय आरटीआई के दायरे में नहीं आते हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री जीतेंद्र सिंह ने लोकसभा को इसके बारे में जानकारी दी थी। उन्होंने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश और राज्यपाल का कार्यालय केंद्रीय सूचना आयोग के रेकॉर्ड्स में लोक प्राधिकारी के तौर पर दर्ज नहीं किए हैं।

आरटीआई कानून से जनता सरकार से संबंधित सवाल पूछ सकती है। सरकार को एस निश्चित समय-सीमा के भीतर पूछे गए सवाल का जवाब देना होता है। भारत की संसद ने सूचना का अधिकार अधिनियम पारित किया। 12 अक्टूबर 2005 को लागू हुए इस कानून के तहत भारत के सभी नागरिकों को सरकारी फाइलों/रिकॉडर्‌‌स में दर्ज सूचना को देखने और उसकी जानकारी लेने का अधिकार देता है। न्यायालय ने कहा कि कोई भी व्यक्ति अपारदर्शी व्यवस्था के पक्ष में नहीं है, कोई भी व्यक्ति अंधेरे में नहीं रहना चाहता, ना ही किसी को अंधेरे में रखना चाहता है।

वकीलों की राय 

इस पर वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने आरटीआई कानून के तहत न्यायपालिका के सूचना देने को लेकर अनिच्छुक होने को दुर्भाग्यपूर्ण और परेशान करने वाला बताया। उन्होंने कहा कि क्या न्यायाधीश अलग ब्रह्मांड के निवासी हैं? सभी को इसके तहत आना चाहिए। उन्होंने कहा कि शीर्ष न्यायालय राज्य (शासन) के अन्य अंगों के कामकाज में हमेशा ही पारदर्शिता के लिए खड़ा होता है लेकिन जब उसके खुद के मुद्दे पर ध्यान देने की जरूरत होती है तो उसके कदम ठिठक जाते हैं? ऐसा नहीं होना चाहिए।

उन्होंने कहा कि लोगों को यह जानने का हक है कि सार्वजनिक प्राधिकार क्या कर रहे हैं? न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और अमितवा रॉय की पीठ ने कहा कि सभी संवैधानिक अधिकारियों के कार्यालयों को उनके कार्यो में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व लाने के लिए आरटीआई कानून के तहत लाया जाना चाहिए। अदालत ने विशेष रूप से बताया कि भारत के मुख्य न्यायाधीशों और राज्यपाल के कार्यालयों को आरटीआई अधिनियम के दायरे के तहत लाया जाना चाहिए।

गोपनीय सूचनाओं को सार्वजनिक करना कामकाज के लिए खतरा 

सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री ने अदालत के सामने कहा था कि आरटीआई कानून के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति या पदोन्नति के संबंध में कॉलेजियम की चर्चा जैसी उच्च गोपनीय सूचनाओं को सार्वजनिक करना न्यायपालिका के लिए ठीक नहीं होगा। ऐसी चीजें गोपनीय रहें तो ही ठीक है। ये चीजें सार्वजनिक होने पर उनके कामकाज के लिए नुकसानदेह हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री की ओर से पेश हुए अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने भी सुप्रीम कोर्ट के सामने कहा था कि आरटीआई के तहत जजों के नियुक्ति की जानकारी का खुलासा करने से कोलेजियम की कार्यप्रणाली प्रभावित होगी। इसके लिए उन्होंने तर्क भी दिया था।

उन्होंने कहा था कि किसी विशेष कैंडिडेट को जज के रूप में नियुक्त करने/सिफारिश न करने के लिए फाइल नोटिंग और कारणों का खुलासा जनहित के खिलाफ होगा। इस तरह की जानकारी पूरी तरह से गोपनीय होनी चाहिए, अन्यथा कॉलेजियम के न्यायाधीश स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर पाएंगे। दूसरी ओर एक वकील प्रशांत भूषण ने इन तर्कों का विरोध किया। जनता के हितों की बात करते हुए उन्होंने कहा कि भारत की जनता को जजों की नियुक्ति और सुप्रीम कोर्ट से संबंधित जानकारियां प्राप्त करने का हक है।

न्यायाधीशों की संपत्ति सार्वजनिक करने की उठ चुकी मांग 

दिल्ली उच्च न्यायालय ने साल 2009 में सीजेआई को इस अधिनियम के तहत एक सार्वजनिक प्राधिकरण घोषित किया था। उच्च न्यायालय ने अपने न्यायाधीशों की संपत्ति सार्वजनिक करने के लिए कहा था। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय से पहले केंद्रीय लोक सूचना अधिकारियों के माध्यम से चुनौती दी गई थी, जो अभी भी लंबित है। इस पर फैसला नहीं आ सका। उधर CJI आफिस को आरटीआइ के दायरे में लाने का केस फाइल किया गया, उस पर भी फैसला आना है। 

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