पर्वतीय इलाकों की चुनौतियों और मुश्किल मौसम में दुश्मन से जंग जीतने में माहिर है भारतीय सेना

पूर्वी लद्दाख के गलवन में विकट हालात में डटे हमारे जवान उच्च पर्वतीय इलाकों की चुनौतियों के बीच हर दुश्मन को मात देने में सक्षम हैं।

By Vinay TiwariEdited By: Publish:Sun, 28 Jun 2020 05:27 PM (IST) Updated:Sun, 28 Jun 2020 05:27 PM (IST)
पर्वतीय इलाकों की चुनौतियों और मुश्किल मौसम में दुश्मन से जंग जीतने में माहिर है भारतीय सेना
पर्वतीय इलाकों की चुनौतियों और मुश्किल मौसम में दुश्मन से जंग जीतने में माहिर है भारतीय सेना

नई दिल्ली, आनलाइन डेस्क। बुलंद हौसलों के दम पर भारतीय सेना निष्ठुर मौसम और बर्फीली हवाओं के बीच विश्व के उच्चतम युद्धस्थलों में चोटी पर बैठे दुश्मन को वहीं दफन कर देने की कला में पारंगत हो चुकी है। पूर्वी लद्दाख के गलवन में विकट हालात में डटे हमारे जवान उच्च पर्वतीय इलाकों की चुनौतियों के बीच हर दुश्मन को मात देने में सक्षम हैं।

वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद 1984 में विश्व के सबसे ऊंचे युद्धस्थल सियाचिन में खून जमाने वाली ठंड में बीस हजार फीट की ऊंचाई पर कायम हुई मौजूदगी ने भारतीय वायुसेना को हाई एल्टीट्यूड माउंटेन वारफेयर में विश्व की अनुभवी सेनाओं में से एक बना दिया।

इस अनुभव का प्रदर्शन सेना ने वर्ष 1999 के कारगिल युद्ध में कर दिखाया था और चोटी पर बैठे पाकिस्तानी सैनिकों को दुर्गम चढ़ा कर ढेर कर दिया था। अब पूर्वी लद्दाख के गलवन में चीन को रोक रही भारतीय सेना को अच्छी तरह से अंदाजा है कि ऊंचाई पर बैठे दुश्मन को कैसे मात देनी है। आइए जानते हैं कि यह सब कितना मुश्किल है और कैसे हमारी सेनाएं ऐसे हालात का सामना करती हैं। 

क्या हैं हाई एल्टीट्यूड माउंटेन वारफेयर की चुनौतियां?

सीधी चोटियां, शून्य से नीचे की खून जमाने वाली ठंड और उस पर बर्फीली हवाएं। चौदह हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर मैदानी इलाकों के मुकाबले 40 फीसद कम ऑक्सीजन होती है। ऐसे हालात में जिंदा रहना ही एक बड़ी चुनौती होता है और उस पर बंदूक थामकर दुश्मन को ढेर करना बिलकुल भी आसान नहीं होता। चोटी पर बैठा दुश्मन पत्थरों को भी हथियार की तरह इस्तेमाल करता है।

ऊंचाई पर पहुंच उसे खत्म करने के लिए सामान्य से अधिक सैनिकों की जरूरत रहती है। गलवन में भारतीय सेना पर हमले में भी ऊंचाई पर मौजूद चीनी सैनिकों ने पत्थर बरसाए। दुश्मन ऊंचाई से हर हरकत देख सकता है। ऐसे हालात में लड़ने के लिए सैनिकों का विशेष रूप से प्रशिक्षित होना जरूरी होता है। जवान हथियारों के साथ खाने-पीने का सामान आदि भी साथ रखते हैं। ऐसे में औसतन चढ़ाई करते समय जवान को 30-35 किलोग्राम का बोझ उठाना होता है। कम ऑक्सीजन के कारण भार उठाकर चढ़ाई करना बेहद कठिन जान पड़ता है। 

कैसे की जाती है दुर्गम पहाड़ी इलाकों में लड़ने की तैयारी?

सेना अपने सैनिकों को नियमित रूप से उच्च पहाड़ी इलाकों में लड़ने के लिए तैयार करती है। कश्मीर के गुलमर्ग में नौ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित हाई एल्टीट्यूड माउंटेन वारफेयर स्कूल में बर्फ के योद्धा तैयार किए जाते हैं। यहां पर सैनिकों को बर्फीले इलाकों में शून्य से नीचे के तापमान में लड़ने में माहिर बनाया जाता है।

उन्हें यह भी सिखाया जाता है कि सियाचिन जैसे इलाकों में हिमस्खलन और बर्फ की अन्य चुनौतियों का सामना और बचाव कैसे करना होता है। जवानों को सीधे सियाचिन की बीस हजार फीट की ऊंचाई पर नहीं भेजा जाता। पहले उन्हें सियाचिन के आधार शिविर में कुछ समय रखकर वहां के वातावरण में अनुकूलन किया जाता है, इसके बाद उन्हें सिचाचिन ग्लेशियर भेजा जाता है। 

कैसा होता है कड़ी ठंड का असर?

17 हजार फीट की ऊंचाई पर ठंड का असर सैनिकों के साथ उनके साजो-सामान पर भी रहता है। जवानों को प्रत्येक सप्ताह अपनी बंदूकों, तोपों की बैरल में ग्रीस लगाकर उन्हें तैयार करता पड़ता है। सैन्य वाहनों, मशीनों, जेनरेटरों में इस्तेमाल होना वाला डीजल भी जमने लगता है। इसमें पिघलाने के लिए इसमें थिनर और अन्य रसायन मिलाने पड़ते हैं।

संचार उपकरणों में इस्तेमाल होने वाली बैटरियां भी वक्त से पहले खत्म हो जाती है। मैदानी इलाकों में 24 घंटे तक चलने वाली बैटरियां उच्च पर्वतीय इलाकों में एक-दो घंटे में खत्म हो जाती हैं। नाइट विजन, थर्मल इमेजर जैसे कई उपकरण शून्य से नीचे के तापमान में सही तरीके से काम नही करते हैं। 

हाई अल्टीट्यूड वारफेयर में क्यों फिट माने जाते हैं लद्दाखी?

कम ऑक्सीजन में रहने वाले लद्दाखी लोगों का जीवन कठिन है। बर्फीले रेगिस्तान के निवासी देश के अन्य हिस्सों के युवाओं से कुदरती तौर पर हाई अल्टीट्यूड माउंटेन वारफेयर में बेहतर होते हैं। उन्हें उच्च पर्वतीय इलाकों में आने जाने का भी अनुभव होता है।

यही कारण है कि भारतीय सेना लद्दाख स्काउट्स के जवानों को बर्फीले चीते मानती है। फौज में शामिल होने वाले इन युवाओं को लेह के लद्दाख स्काउट्स रेजीमेंटल सेंटर में उच्च पर्वतीय इलाकों के रणकौशल में तैयार किया जाता है। 

क्या कहते हैं सियाचिन के हीरो कैप्टन बाना सिंह?

वर्ष 1987 में सियाचिन में चोटी पर बैठे दुश्मन तक पहुंचकर अपनी जमीन वापस लेने वाले वाले परमवीर चक्र विजेता कैप्टन बाना सिंह का कहना है भारतीय सैनिक का बुलंद हौसला ही उसे हाई अल्टीट्यूड माउंटेन वारफेयर का माहिर बनाता है। गलवन में इस समय चीन के सामने मोर्चा संभालकर डटे सैनिक दुर्गम हालात में लड़ने में माहिर हैं। यह सालों साल की मेहनत का नतीजा है। यह हौसला ही उसे रात के अंधेरे में शून्य से 35 डिग्री कम तापमान में पंद्रह सौ फीट की ऊंची बर्फ की दीवार चढ़कर दुश्मन को खत्म करने की प्रेरणा देता है। 

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