नक्सली रहते कभी नागा दुसाध के नाम का था खौफ, अब बने शांतिदूत

बकौल नागा जब नक्सली था तो पुलिस के डर से भागा-भागा फिरता था। कभी भूखे पेट भी रहना पड़ा। हथियार छोड़ दिया तो परिवार के साथ चैन से हूं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 16 Mar 2020 01:26 PM (IST) Updated:Mon, 16 Mar 2020 01:26 PM (IST)
नक्सली रहते कभी नागा दुसाध के नाम का था खौफ, अब बने शांतिदूत
नक्सली रहते कभी नागा दुसाध के नाम का था खौफ, अब बने शांतिदूत

मनीष कुमार, अनिल कुमार मिश्र (औरंगाबाद)। कभी खौफ का पर्याय रहे नागा दुसाध उर्फ नागा पासवान आज परिवार के साथ शांतिपूर्ण जीवन गुजार रह हैं। नागा नक्सली संगठन (भाकपा माओवादी) के स्वयंभू सब-जोनल कमांडर थे। पांच साल पहले हथियार डाल कर मुख्यधारा में लौट आए और आज दूसरों के झगड़े निपटाते हैं। रफीगंज थानाक्षेत्र के बेढ़ना बिगहा (कौआखाप) गांव निवासी नागा 1983 में नक्सली बन गए। औरंगाबाद, गया, नालंदा आदि जिलों में हुईं कई वारदातों में आरोपित रहे। तीन बार जेल गए।

बकौल नागा, जब नक्सली था तो पुलिस के डर से भागा-भागा फिरता था। कभी भूखे पेट भी रहना पड़ा। हथियार छोड़ दिया तो परिवार के साथ चैन से हूं। खेती कर स्वजनों का भरण- पोषण कर रहा हूं। सरकारी मदद से बने घर में तीन पीढ़ियां एक साथ रहीं। दो बेटे हैं, जो निजी कंपनी में नौकरी करते हैं। उन दोनों की पत्नी और उनके बच्चे घर पर रहते हैं। बच्चे स्कूल जा रहे हैं। उस दौर को याद कर पत्नी जीतनी देवी सिहर उठती हैं। बताती हैं कि इनको (नागा को) ढूंढते हुए आए दिन पुलिस घर पर धमक जाती थी।

कभी देते थे जख्म, अब बांट रहे दुख-दर्द की दवा

बिहार के औरंगाबाद जिला के रफीगंज थाना क्षेत्र में एक गांव खड़वां है। संजय उसी गांव के बाशिंदा हैं। कभी उनके नाम का जबरदस्त खौफ था। वह भाकपा माओवादी के बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के स्पेशल एरिया कमेटी में थे। 11 वर्षों तक जेल में रहे। कभी लोगों को जख्म देने वाले नक्सली रामाशीष पासवान उर्फ संजय पासवान अब दुख-दर्द की दवा करने लगे हैं। हथियार डालने के बाद अब रफीगंज बाजार में होम्योपैथिक क्लीनिक चला रहे हैं।

जिंदगी में छूटा दो पत्नियों का साथ : बकौल संजय, अपने रिश्तेदार खेलावन पासवान के भाषणों से प्रभावित होकर 1978 में नक्सली बन गया। बिहार झारखंड के कई थानों में 24 कांडों में आरोपित रहा, जिसमें दरमिया कांड प्रमुख था। कई बार घर की कुर्की हुई। उसी बीच बीमारी से पत्नी की मौत हो गई। दरमियां कांड में उम्रकैद की सजा मिली। सेंट्रल जेल में रहने के दौरान ही दूसरी पत्नी की हत्या हो गई।

बेटों के साथ छोड़ने का मलाल : दरमियां कांड में आधी सजा काटने के बाद 2015 में रिहाई मिली। दूसरे मामलों में जमानत लेकर बाहर निकला और एक्यूप्रेशर व होम्योपैथिक चिकित्सा के माध्यम से लोगों की सेवा करने लगा। पंचायत चुनाव में दो बार भाग्य आजमाया, लेकिन नाकाम रहा। आज दुख यह कि 68 वर्ष का होने के बाद भी वृद्धावस्था पेंशन नहीं मिल रही। चार बेटे हैं, लेकिन सभी साथ छोड़ चुके हैं। कहा, नक्सल आंदोलन की धार कुंद हो चुकी है। उसकी आड़ में अब केवल धन की उगाही की जा रही।

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