'अग्नेसे गोंकशे बोजशियु' कैसे बनीं Mother Teresa, जानें उनके बारे में कई और दिलचस्‍प बातें

आज ही के दिन मदर टेरेसा की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन मानव सेवा के लिए समर्पित कर दिया था।

By Vinay TiwariEdited By: Publish:Wed, 04 Sep 2019 03:26 PM (IST) Updated:Thu, 05 Sep 2019 09:33 AM (IST)
'अग्नेसे गोंकशे बोजशियु' कैसे बनीं Mother Teresa, जानें उनके बारे में कई और दिलचस्‍प बातें
'अग्नेसे गोंकशे बोजशियु' कैसे बनीं Mother Teresa, जानें उनके बारे में कई और दिलचस्‍प बातें

नई दिल्‍ली [जागरण स्पेशल]। अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा में लगाने वाली संत मदर टेरेसा का आज ही के दिन 5 सितंबर 1997 को मृत्यु हुई थी। उनका असली नाम अग्नेसे गोंकशे बोजशियु था। मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं, जिनके पास भारतीय नागरिकता थी। उन्होंने 1950 में कोलकाता में मिशनरीज ऑफ चेरिटी की स्थापना की। अपना जीवन उन्‍होंने गरीब, बीमार, अनाथ और मरते हुए लोगों की मदद की, साथ ही चेरिटी के मिशनरीज के प्रसार का भी मार्ग प्रशस्त किया। उनका जन्‍म 26 अगस्त 1910 को एक अल्बेनीयाई परिवार में उस्कुब, ओटोमन साम्राज्य में हुआ था। इसे आज सोप्जे, मेसेडोनिया गणराज्य के नाम से जाना जाता है। 5 सितंबर को हार्ट अटैक के कारण उनकी मौत हो गई थी।  

गरीब और असहायों की करती रहती थी मदद 
मदर टेरेसा शुरु से ही गरीब और असहायों की मदद किया करती थी, इसी वजह से 1970 तक वे इन्हीं मानवीय कार्यों के लिए काफी प्रसिद्ध हो गयीं थीं। माल्कोम मुगेरिज के कई वृत्तचित्र और पुस्तक जैसे समथिंग ब्यूटीफुल फॉर गोड में इन चीजों का उल्लेख भी किया गया है। उन्होंने 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार और 1980 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया। मदर टेरेसा के जीवनकाल में मिशनरीज़ ऑफ चेरिटी का कार्य लगातार विस्तृत होता रहा और उनकी मृत्यु के समय तक यह 123 देशों में 610 मिशन को नियंत्रित कर रही थी। इसमें एचआईवी/एड्स, कुष्ठ और तपेदिक के रोगियों के लिए धर्मशालाएं/ घर शामिल थे, साथ ही सूप रसोई, बच्चों और परिवार के लिए परामर्श कार्यक्रम, अनाथालय और विद्यालय भी थे।

मदर टेरेसा को वेटिकन में दी गई थी संत की उपाधि 
मदर टेरसा की मृत्यु के बाद उन्हें पोप जॉन पॉल द्वितीय ने धन्य घोषित किया और उन्हें वेटिकन में संत की उपाधि प्रदान की गई। 1971 ई में अग्नेसे गोंकशे बोजशियु ने अपना नाम बदलकर टेरेसा रख लिया और उन्होंने आजीवन सेवा का संकल्प अपना लिया। उन्होंने स्वयं लिखा है कि वह 10 सितंबर 1940 का दिन था जब मैं अपने वार्षिक अवकाश पर दार्जिलिंग जा रही थी। उसी समय मेरे अंदर से यह आवाज आई कि मुझे सब कुछ त्याग कर देना चाहिए और अपना जीवन ईश्वर एवं गरीबों की मदद के लिए लगाना चाहिए, तभी ये तय किया कि मैं लोगों की सेवा कर के अपने तन मन को समर्पित कर दूंगी। 

सद्भाव बढ़ाने के लिए किया संसार का दौरा 
मदर टेरेसा दलितों एवं पीडितों की सेवा में किसी प्रकार की पक्षपाती नहीं थीं। उन्होनें सद्भाव बढ़ाने के लिए संसार का दौरा किया है। उनकी मान्यता है कि 'प्यार की भूख रोटी की भूख से कहीं बड़ी है।' उनके मिशन से प्रेरणा लेकर संसार के विभिन्न भागों से स्वंय सेवक भारत आये तन, मन, धन से गरीबों की सेवा में लग गये। मदर टेरेसा का कहना था कि सेवा का कार्य एक कठिन कार्य है और इसके लिए पूर्ण समर्थन की आवश्यकता है। वहीं लोग इस कार्य को संपन्न कर सकते हैं जो अपने पूरे मनोयोग से दूसरे लोगों पर प्यार एवं सांत्वना की वर्षा कर सकें। भूखों को खिलायें, बेघरों को शरण दें, दम तोड़ने वाले बेबसों को प्यार से सहलायें, अपाहिजों को हर समय ह्रदय से लगाने के लिए तैयार रहें। जिनके मन में ऐसी भावना हो वो ही सेवा में आ सकते हैं।

दर्जनों पुरुस्कार एवम सम्मान 
मदर टेरेसा को उनकी सेवाओं के लिए विविध पुरस्कारों एवं सम्मानों से विभूषित किय गया है। 1931 में उन्हें पोपजान तेइसवें का शांति पुरस्कार और धर्म की प्रगति के टेम्पेलटन फाउंडेशन पुरस्कार प्रदान किय गया। विश्व भारती विद्यालय ने उन्हें देशिकोत्तम पदवी दी जोकि उसकी ओर से दी जाने वाली सर्वोच्च पदवी है। अमेरिका के कैथोलिक विश्वविद्यालय ने उन्हें डोक्टोरेट की उपाधि से विभूषित किय।

भारत सरकार ने दिया 'पद्म श्री' 
भारत सरकार द्वारा 1962 में उन्हें 'पद्म श्री' की उपाधि दी गई। 1977 में ब्रिटेन द्वारा 'आईर ओफ द ब्रिटिश इम्पायर' की उपाधि प्रदान की गयी। बनारस हिंदू विश्वविध्यलय ने उन्हें डी-लिट की उपाधि से विभूषित किया। 19 दिसम्बर 1979 को मदर टेरेसा को मानव-कल्याण के कार्यों हेतु नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। वह तीसरी भारतीय नागरिक है जो संसार में इस सबसे बड़ी पुरस्कार से सम्मानित की गयी थीं।  

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