विशेषः भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में मोदी सरकार काफी हद तक सफल, रिश्वतखोरी से राहत मिलना बाकी

भ्रष्टाचार और कालेधन पर लगाम लगाने में कई हद तक मोदी सरकार सफल हुई है, लेकिन राज्य स्तर पर अब भी लोगों को रिश्वतखोरी से राहत नहीं मिली है।

By Nancy BajpaiEdited By: Publish:Sun, 27 May 2018 08:32 AM (IST) Updated:Sun, 27 May 2018 09:51 AM (IST)
विशेषः भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में मोदी सरकार काफी हद तक सफल, रिश्वतखोरी से राहत मिलना बाकी
विशेषः भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में मोदी सरकार काफी हद तक सफल, रिश्वतखोरी से राहत मिलना बाकी

नई दिल्ली (नीलू रंजन)। भ्रष्टाचार और कालेधन पर लगाम लगाने के वायदे के साथ सत्ता में मोदी सरकार ऊंचे स्तरों पर इसे रोकने में काफी हद तक सफल रही, लेकिन आम जनता को रोजमर्रा के जीवन में अब भी रिश्वतखोरी से राहत मिलना बाकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सरकार ने भ्रष्टाचार और कालेधन के सारे रास्तों को बंद करने के लिए एक के बाद एक कई कानून बनाये और नोटबंदी जैसा बड़ा फैसला लिया। इसका असर यह रहा कि पिछले चार सालों में मोदी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं है। लेकिन केंद्र की तर्ज पर राज्यों में भ्रष्टाचार रोकने के लिए कोई पहल नहीं हुई, जहां आम आदमी का रोजमर्रा के जीवन में इससे पाला पड़ता है।

मोदी सरकार ने 27 मई 2014 को मंत्रिमंडल के पहले ही फैसले में कालेधन के खिलाफ एसआइटी के गठन का फैसला कर अपने इरादे को साफ कर दिया था। कालेधन वालों को सजा का प्रावधान करने के लिए आयकर कानून में संशोधन किये गए। यह प्रक्रिया अब भी जारी है। संसद के पिछले सत्र में ही घोटाला कर भागने वालों की संपत्ति जब्त करने का कानून पास किया गया। वहीं नोटबंदी को भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े जंग के आगाज के रूप में देखा गया। नोटबंदी के बाद बैंकिंग तंत्र की कमजोरियां सामने आने के बाद 28 साल पुराने बेनामी संपत्ति कानून को लागू किया गया। इस तरह मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार और उससे बनने वाले कालेधन के सारे दरवाजे बंद करने की कोशिश की।

भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी सरकार के इस जंग का असर दिखा भी। ऊंचे स्तर पर भ्रष्टाचार में कमी साफ तौर पर देखी गई। ईमानदारी के पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय रैकिंग में भारत का स्थान भी ऊंचा हुआ। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार जहां 2013 में भारत की रैंकिंग 94 थी, वह 2017 में 81 हो गई। हैरानी की बात है कि भ्रष्टाचार के इंडेक्स में इतनी बड़ी छलांग के बाद भी आम जनता को रोजमर्रा के कामकाज में भ्रष्टाचार से राहत नहीं मिली। इसका कारण है कि आम जनता को बिजली, सड़क, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा व दूसरी जिन सेवाओं के लिए रिश्वत देना पड़ता है, वो राज्य सरकारों के अधीन आती हैं।

भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में सबसे बड़ी समस्या यह है कि राज्यों में भ्रष्टाचार से लड़ने का न तो कोई जज्बा दिखता है और न ही कोई तंत्र है। केंद्र सरकार से विभागों और संस्थाओं में भ्रष्टाचार की शिकायतों पर सीबीआइ और सीवीसी जैसी संस्थाएं सीधे कार्रवाई करती हैं। लेकिन राज्यों में कार्रवाई इनके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। सीबीआइ राज्य के केवल उन्हीं मामलों की जांच शुरू कर सकती है, जिनके लिए संबंधित राज्य सरकार अनुरोध करते हैं या फिर हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट आदेश देता है। राज्यों में भ्रष्टाचार के मामलों की शिकायत की लिए विजलेंस विभाग है। लेकिन कभी भी विजलेंस विभाग को मजबूत करने की कोशिश नहीं की गई। इसे न तो पर्याप्त अधिकार और न ही जरूरी सुविधाएं दी गईं। राज्यों में विजलेंस विभाग में तैनाती को सजा के रूप में देखा जाता है। जबकि पुलिस के वही अधिकारी सीबीआइ में प्रतिनियुक्ति पर आने के लिए तत्पर रहते हैं।

सिटीजन चार्टर लागू कर राहत दिलाने की कोशिश

बिहार, दिल्ली जैसे कुछ राज्यों ने सिटीजन चार्टर लागू कर जनता को रिश्वत से राहत दिलाने की कोशिश की।सिटीजन चार्टर में जन्म, मृत्यु, आवासीय जैसे प्रमाणपत्रों को रखा गया, जिसे बिना रिश्वत के लेना असंभव हो गया था। इन्हें तय समय सीमा के भीतर देना अनिवार्य बना दिया। लेकिन इसके बावजूद हालात में ज्यादा सुधार नहीं आया है। किसी न किसी बहाने इन प्रणामपत्रों को जारी करने में देरी की जाती है और रिश्वत मिलने के बाद तत्काल जारी कर दिया जाता है। जाहिर है आम जनता के पास रिश्वत देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।

भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए अन्ना आंदोलन से निकला लोकपाल और लोकायुक्त भी जमीन पर नहीं उतर सका। लोकपाल और लोकायुक्त की अनदेखी और रोजमर्रा के जीवन में भ्रष्टाचार की चुभन के बावजूद पिछले चार सालों में आम जनता ने मोदी सरकार के प्रयासों का समर्थन किया है। नोटबंदी के बाद हुई परेशानियों के बावजूद चुनावों में भाजपा को मिली सफलता से यह साफ होता है।

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