सुप्रीम कोर्ट ने पूछा, निर्वाचन कानून के तहत क्या धर्मगुरुओं पर चलेगा मुकदमा

किसी धार्मिक चित्र या राष्ट्रीय प्रतीक को आधार बनाकर प्रत्याशी या उसके सहयोगी के वोट मांगने को भी चुनाव की कुरीति माना गया है।

By Rajesh KumarEdited By: Publish:Wed, 19 Oct 2016 09:39 PM (IST) Updated:Wed, 19 Oct 2016 10:22 PM (IST)
सुप्रीम कोर्ट ने पूछा, निर्वाचन कानून के तहत क्या धर्मगुरुओं पर चलेगा मुकदमा

नई दिल्ली, प्रेट्र : सुप्रीम कोर्ट ने अपने दो दशक पुराने हिंदुत्व पर फैसले की व्याख्या को तराशना शुरू कर दिया है। इसके तहत सर्वोच्च अदालत ने पूछा है कि क्या चुनावी कानूनों के तहत किसी नेता या पार्टी विशेष के लिए वोट मांगने पर धार्मिक नेताओं या उलेमा को भ्रष्ट आचरण के लिए जवाबदेह माना जा सकता है।

मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर के नेतृत्व में सात सदस्यीय जजों की संविधान पीठ ने हिंदुत्व पर चर्चा के दूसरे दिन की सुनवाई में कहा, 'जन प्रतिनिधि कानून के तहत भला ऐसे किसी व्यक्ति पर कैसे भ्रष्टाचार का मामला चलाया जा सकता है जिसने न तो चुनाव लड़ा हो और ना ही चुनाव जीता हो।' लिहाजा, अदालत जनप्रतिनिधि कानून की धारा 123(3) की व्यापकता पर विचार कर रही है। यह कानून चुनावी धांधलियों और गलत प्रक्रियाओं को रोकने का काम करता है।

इसके प्रावधानों में कहा गया है, 'एक प्रत्याशी या उसके एजेंट या प्रत्याशी या एजेंट की सहमति से किसी तीसरे व्यक्ति को वोट करने या वोट करने से रोकना गलत है। फिर चाहे इसका कारण उसका धर्म, प्रजाति, जाति, समुदाय या भाषाई भेदभाव हो।' किसी धार्मिक चित्र या राष्ट्रीय प्रतीक को आधार बनाकर प्रत्याशी या उसके सहयोगी के वोट मांगने को भी चुनाव की कुरीति माना गया है।

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1990 में भाजपा के टिकट से मुंबई की सांताक्रूज सीट से विधायक अभिराम सिंह के निर्वाचन को हाईकोर्ट ने दरकिनार कर दिया था। अभिराम सिंह की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दत्तार ने कहा कि अगर कोई उम्मीदवार या उसका एजेंट धर्म के नाम पर वोट मांगता है तो वह गलत है।

जस्टिस मदन बी.लोकुर, एसए बोबडे, एके गोयल, यूयू ललित, डीवाई चंद्रचूड़ और एल.नागेश्वर राव की खंडपीठ को उन्होंने बताया कि अगर स्व. बाल ठाकरे और प्रमोद महाजन मौजूदा समय में होते और (जाति, धर्म, भाषा, स्थान) के आधार पर वोट मांगते तो इसके लिए उन्हें उम्मीदवार की सहमति जरूरी होती।

पूरे दिन चली सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने वकील से पूछा कि चुनावी प्रक्रिया शुरू होने से पहले धार्मिक नेताओं या उलेमा के धर्म या जाति के आधार पर वोट मांगना क्या जनप्रतिनिधि कानून के तहत आपत्तिजनक हो सकता है। इस पर बहस के दौरान दत्तार ने कहा कि अगर उसे इस दायरे में लाना है तो उसके लिए यह स्थापित होना जरूरी है कि उसने ऐसा उम्मीदवार की सहमति लेकर किया है।

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उन्होंने कहा कि मेरे मामले में बहुत से भाषण बाल ठाकरे और प्रमोद महाजन ने दिए थे। यह दोनों ही अब इस दुनिया में नहीं हैं। जनप्रतिनिधि कानून के तहत मुझे दोषी ठहराने के लिए उनसे पूछताछ जरूरी है। ऐसा आरोप है कि दोनों ही दिवंगत नेताओं ने हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र के नाम पर वोट मांगे थे। खंडपीठ ने पाया कि एक विजयी उम्मीदवार को किसी और के भाषण के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया है। और वह भी तब जब उससे रजामंदी नहीं ली गई थी।

उल्लेखनीय है कि हिंदुत्व पर वर्ष 1995 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, 'हिंदुत्व' के नाम पर वोट मांगने से किसी उम्मीदवार को कोई फायदा नहीं होता है। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुत्व को 'वे ऑफ लाइफ' यानी जीवन जीने का एक तरीका और विचार बताया था। उसके बाद से इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के सामने तीन चुनावी याचिकाएं लंबित पड़ी हैं।

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