सेहत के मोर्चे पर बीमार दिखाई देता है भारत, हेल्‍थ सेक्‍टर पर खर्च है GDP का 1 फीसद

भारत में स्वास्थ्य सेवा से जुड़े बुनियादी ढ़ाचे के साथ स्‍वास्‍थ्‍यकर्मियों की काफी कमी है। भारत जीडीपी का केवल एक फीसद इस सेक्‍टर पर खर्च करता है।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Sun, 10 May 2020 11:50 AM (IST) Updated:Sun, 10 May 2020 11:50 AM (IST)
सेहत के मोर्चे पर बीमार दिखाई देता है भारत, हेल्‍थ सेक्‍टर पर खर्च है GDP का 1 फीसद
सेहत के मोर्चे पर बीमार दिखाई देता है भारत, हेल्‍थ सेक्‍टर पर खर्च है GDP का 1 फीसद

नई दिल्‍ली। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग निवास करता है, जैसे दुनिया को संकल्पना देने वाला भारत अपनी विशाल आबादी के चलते सेहत के मोर्चे पर बीमार सा दिखता है। स्वास्थ्य पर हमारा सार्वजनिक खर्च जीडीपी का एक फीसद है। ऐसे में स्वास्थ्य सेवा से जुड़े बुनियादी ढ़ाचे के साथ कर्मियों की भी बेहद कमी है। कोरोना महामारी के बाद अनुमान लगाया जा रहा है कि दुनिया एक बार फिर हथियारों की जगह जीवनरक्षक उपकरणों और संसाधनों पर निवेश करेगी। भारत को भी ऐसा ही करना होगा।

हेल्थकेयर की पहुंच

2018 में प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल लैंसेट में प्रकाशित ग्लोबल बर्डेन डिजीज स्टडी के हेल्थ केयर एक्सेस एंड क्वालिटी इंडेक्स में शामिल 195 देशों में भारत 145वें स्थान पर खड़ा है। इस सूचकांक में औसत अंक 60 है जबकि 41.2 अंकों के साथ भारत अपने पड़ोसी देशों बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका और भूटान से भी पीछे है।

बहुत पुराना महामारी कानून

देश में किसी महामारी से निपटने के लिए कानून एपीडेमिक डिजीज एक्ट 1897 अस्तित्व में है। इसमें अधिकतर प्रावधान दशकों पुरानी प्रवृत्तियों के आधार पर तैयार किए गए हैं। जैसे कानून में सीमा प्रतिबंध का विभिन्न बंदरगाहों को मानक माना गया है क्योंकि उस समय यातायात का सबसे बड़ा साधऩ जल था।

स्वास्थ्य प्रणाली बढ़ा रही गरीबी

इलाज कराने के लिए अपनी जेब से खर्च के चलते देश के लाखों लोग हर साल गरीबी के जाल में फंस जाते हैं। इलाज की महंगी लागत और सार्वजनिक स्वास्थ्य की जर्जर स्थिति से कर्ज लेकर भी उन्हें इलाज कराना पड़ता है। लैंसेट के एक अध्ययन के मुताबिक 3.9 करोड़ लोगों की हर साल ऐसी दुर्गति होती है।

स्थिर सार्वजनिक खर्च

भारत पिछले कुछ साल से तेज आर्थिक विकास की राह पर है। फरवरी में ब्रिटेन और फ्रांस को पीछे छोड़ते हुए यह दुनिया का पांचवां सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बना। लेकिन दुनिया के अधिकतर देश जहां समृद्धि बढ़ने के साथ स्वास्थ्य पर अपना खर्च उसी अनुपात में बढ़ाते रहे हैं, वहीं भारत का स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च की दर लगभग स्थिर रही है। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के आंकड़े सार्वजनिक खर्च (केंद्र और राज्यों समेत) की तस्वीर दिखाते हैं। जो जीडीपी का 1.3 फीसद से भी कम है।

भगवान भरोसे ग्रामीण क्षेत्र

आज भी देश की अधिसंख्य आबादी अपेक्षाकृत कम सुविधा संपन्न गांवों में रहती है। गांवों में कोविड-19 से संक्रमित हो रहे लोगों की देखरेख का प्रमुख दारोमदार नौ लाख आशा स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर है। बहुत कम वेतन पर काम करने वाली इन स्वास्थ्यकर्मियों के पास साधन के साथ हुनर की भी कमी है। देश के मुख्य धारा के डाक्टरों और नर्सों को पीपीई किट के बिना काम करना पड़ रहा है तो इन आशा कर्मियों की निराशा को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

सार्वजनिक क्षेत्र पर हो जोर

तमाम अध्ययन बताते हैं कि भारत में ऐसी गुणवत्तापरक स्वास्थ्य प्रणाली की जरूरत है जो अधिकांश भारतीयों के लिए वहनीय हो। यह सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करके ही संभव है। स्वास्थ्य पर निजी खर्च जीडीपी का करीब 4.8 फीसद है। देश के कुल अस्पतालों में निजी क्षेत्र की 74 फीसद हिस्सेदारी है। कुल बिस्तरों में इसका 60 फीसद हिस्सा है। 80 फीसद डॉक्टर, 70 फीसद नर्स और मिडवाइफ निजी क्षेत्र के अस्पतालों में हैं।

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