जज्बे को सलाम: हर चुनौती और खौफ को मात दे रही नवजीवन की ये आशा

लेह के इन गांवों तक जाना आसान काम नहीं। लेकिन हमारी आशा वर्कर्स और अन्य स्वास्थ्य कर्मी तमाम मुश्किलों को दरिकनार कर यहां पर हर अभियान चलाती हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 02 Jan 2019 09:16 AM (IST) Updated:Wed, 02 Jan 2019 12:14 PM (IST)
जज्बे को सलाम: हर चुनौती और खौफ को मात दे रही नवजीवन की ये आशा
जज्बे को सलाम: हर चुनौती और खौफ को मात दे रही नवजीवन की ये आशा

[जम्मू/इंदौर, जेएनएन]। समुद्र तल से साढ़े तीन हजार मीटर ऊंचाई पर स्थित लेह इन दिनों बर्फ की मोटी चादर से ढंक गया है। उस पर हिम तेंदुओं का खौफ। जिंदगी मानो ठिठक सी गई है। कई किलोमीटर पदयात्रा और नदी पर पड़े एक रोपवे के अलावा आवागमन का कोई साधन नहीं। बावजूद इसके आशा वर्कर्स ड्यूटी पर अडिग। इनके जच्बे के आगे हर चुनौती हार मानती है।

अपनी जान की परवाह किए बिना आशा बहनें गांवों तक पहुंचती हैं। बच्चों और गर्भवती महिलाओं का टीकाकरण करती हैं। राह विहीन अतिदुर्गम पहाड़। गहरी जानलेवा खाई। पुल रहित गहरे- चौड़े नाले। ऊबड़-खाबड़ बेरहम दर्रे। इनकी राह को कोई भी चुनौती रोक नहीं पाती। कहीं पैदल चलना पड़ता है तो कहीं रोपवे की ट्रॉली पर सवार होना पड़ता है। उनके हौसले का ही परिणाम है कि पिछले सात सालों में जंस्कार क्षेत्र के पांच गांवों में एक भी बच्चे या जच्चा की मौत नहीं हुई। इनके इस जज्बे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पिछले दिनों सराहा।

लेह जिले के जंस्कार क्षेत्र के स्कू, काया, मरखा, सारा और हंकर गांवों की जनसंख्या छह सौ के करीब है। सड़क तो दूर, इन गांवों तक पहुंचने के लिए कोई पगडंडी भी नहीं है। यहां की आशा बहनों, आंगनबाड़ी वर्कर्स और एएमएम को अपनी जान से अधिक इन पहाड़ों में रहने वाले बच्चों और गर्भवती माताओं की चिंता है। इसीलिए जान जोखिम में डालकर इन गांवों में पहुंचती हैं और टीकाकरण सहित अन्य स्वास्थ्य सेवाएं सुचारूरखती हैं। इन गांवों को सिर्फ एक रोपवे लेह के साथ जोड़ता है। इस पुल को जंस्कार नदी के ऊपर साल 1968 में बनाया गया था। तब से आज तक यही पुल इन गांवों के लिए जाने का एकमात्र साधन है।

दिक्कत यह है कि दिसंबर माह से फरवरी तक इस क्षेत्र में हिम तेंदुओं का खतरा बना रहता है। इस सबसे बेखौफ आशा वर्कर्स कंधे पर टीकाकरण का सामान रख कर रोपवे से पहले नदी को पार करती हैं और फिर कई किलोमीटर पैदल चलकर गांवों में जाती हैं।

100 फीसद टीकाकरण
इन आशा वर्कर का हौसला रंग भी ला रहा है। पिछले सात सालों से कभी किसी बच्चे की बीमारी से और मां की प्रसव के दौरान मौत नहीं हुई। कोई भी बच्चा कुपोषण से पीड़ित नहीं है और प्रदेश का एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहां शत-प्रतिशत टीकाकरण हुआ है।

लेह के इन गांवों में टीकाकरण चलाने वाली आशा वर्कर्स और अन्य कर्मचारियों का जज्बा सराहनीय है। ऐसे कठिन क्षेत्रों में अभियान नियमित रूप से चलाना अपने आप में मिसाल है। ऐसे ही वर्कर्स के कारण अभियान सफल होते हैं।
नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

लेह के इन गांवों तक जाना आसान काम नहीं। लेकिन हमारी आशा वर्कर्स और अन्य स्वास्थ्य कर्मी तमाम मुश्किलों को दरिकनार कर यहां पर हर अभियान चलाती हैं। इसी का परिणाम है कि यहां पर बच्चे, गर्भवती माताएं व अन्य सभी स्वस्थ्य हैं।
डॉ. मोटूप दोरजे, मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी, लेह

उम्मीद जगाता हातोद...
मध्यप्रदेश के ग्रामीण अंचलों में स्वास्थ्य सेवाएं बेहद खराब हैं। मातृ और शिशु मृत्यु दर बढ़ी हुई है। ऐसे में हातोद प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र उम्मीद की किरण जगाता है। यहां केकर्मचारियों ने थोड़ी सी सरकारी मदद और कम संसाधनों में ही अपने स्तर पर केंद्र को बेहतर बना दिया। थोड़ी सी सुविधा मिलते ही यहां होने वाले प्रसव की संख्या दोगुनी हो गई है।

इंदौर शहर से 15 किलोमीटर दूर हातोद प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर 15 गांवों की एक लाख आबादी निर्भर है। साल भर पहले तक हर माह 25 से 30 प्रसव होते थे। अब यह संख्या 70 के करीब पहुंच चुकी है। दरअसल, कर्मचारियों ने सीमित सरकारी मदद और कबाड़ हो चुके सामान को रीसाइकल कर तमाम जरूरी संसाधन मुहैया करा दिए। अब अस्पताल में सुविधायुक्त प्राइवेट वार्ड हैं। इनमें साफ बिस्तर, पलंग, टीवी और एसी तक की व्यवस्था हो चुकी है।

ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर डॉ. संतोष सिसोदिया बताते हैं, टूटे स्ट्रेचर को उलटा कर उसमें पहिए लगवा सफाई के लिए थ्री बकैट सिस्टम के स्टैंड का रूप दे दिया गया। प्लास्टिक केअनुपयोगी सामानों से बॉक्स, ट्रे आदि बनाए गए। जरूरी संसाधनों और साफ- सफाई का पूरा बंदोबस्त किया गया। अब रात के समय भी कोई डिलिवरी केस आने पर यहीं पर इलाज उपलब्ध हो जाता है। रैंकिंग में हातोद प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ने एक साल में सर्वाधिक 82 प्रतिशत अंक हासिल किए हैं।
[जम्मू से रोहित जंडियाल / अश्विन बक्शी इंदौर से] 

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