लघुकथा: अतिथि

घर में अकेली वह, दो मासूम बेटियों के साथ और आधी रात को आ जाए कोई अजनबी बुजुर्ग, मेहमान बनकर तो क्या होता है?

By Babita KashyapEdited By: Publish:Thu, 12 Jan 2017 11:53 AM (IST) Updated:Thu, 12 Jan 2017 04:28 PM (IST)
लघुकथा: अतिथि
लघुकथा: अतिथि

कमरे का उसका किराए का घर आज उसे कुछ अधिक ही बड़ा लग रहा था। दोनों कमरों की खिड़कियां कंपकपाने वाली ठंड और कुहासे के कारण आज दिन भर नहीं खुली थीं। उसे पता था फिर भी उसने इत्मीनान करने के लिए खिड़कियों को खींचखींचकर देखा। क्या पता कोई चोर उसकी आंख लगते ही, नहीं, नहीं! क्या चोर को सब पता होता है, किसका घर खाली है और किसके घर में मर्द नहीं है? कहीं हमारे घर के बारे में भी उसे पता हो कि मैं दो बेटियों के साथ अकेली हूं तो? इतना सोचते ही उसकी तेजी से धड़कती हुई धड़कने और तेज हो गई।

नहीं, अकेले नहीं रहना चाहिए था उसे। दीपू को बुला लेना चाहिए था। ये बोलकर भी गए थे कि मन हो तो उसे

बुला लेना। गलती की, बुला लेना चाहिए था। मोबाइल में उसका नंबर था। निकालकर देखा, दीपू! बुला लूं? अभी

नहीं! ठीक है! अब सोना ही है। नहीं, बुला ही लेती हूं! घंटी बजी और दीपू ने उठाया पर कहा कि आज ही दोपहर में

बाहर गया है, कल लौटेगा।

मोबाइल और चावी का गुच्छा हाथ में दबाए वो सोने जा ही रही थी कि लगा किसी ने बाहर का दरवाजा खटखटाया। पहले तो वो चौंकी। एकाएक उसकी धड़कनें तेज हो गईं। फिर अपने आपको समझाने की कोशिश की कि उसे भ्रम

हुआ है। इतनी ठंड में भला इस समय कौन आएगा? फिर आवाज आई! यानी जिसका डर था वही हुआ। कोई चोर,

बदमाश...! ‘खट-खट-खट’ ‘नहीं जाऊंगी...’ पर हो सकता है कोई रिश्तेदार हो....या जान-पहचान वाला हो। न चाहते हुए भी वो दरवाजे के पास आ गई।

थोड़ा रुककर कुछ हिम्मत करते हुए बोली, ‘कौन?’

‘बेटी.....बेटी मैं.....’ आवाज से लगा कि किसी बूढ़े व्यक्ति की आवाज है। फिर उसने दरवाजा खोलकर मुंह बाहर किया। इमरजेंसी लाइट में देखा 60-65 साल का कोई आदमी चादर लपेटे बैग टांगे खड़ा है। ‘जी कहिए?’ ‘बेटी....बाबूजी हैं?’

‘वो तो साल भर पहले ही गुजर गए’, इतना बोलकर वह चुप हो गई। ‘ओह! मैं नहीं जानता था’, आश्चर्यचकित होकर कहा। पति का नाम उसे लेते नहीं बन रहा था। थोड़ा संकोच करते हुए बोली, ‘वो तो कहीं बाहर गए हैं, आधी रात तक आएंगे। आप कल उनसे मिल लीजिएगा।’

‘बेटी!’ सब कुछ तो मैंने बता ही दिया, अब क्या कहना चाहते हैं? सोचते हुए उसने बंद दरवाजे को थोड़ी खोलकर लाइट को उनकी ओर किया।

‘बेटी तुम्हारे ससुर जी मुझे पहचानते थे। मेरा उनका ननिहाल से संबंध है। मैं उनके चचेरे मामू का बेटा हूं। पंकज को देखे तो कई बरस बीत गए, अब तो वो भी मुझे नहीं पहचान पाएगा।’ वो चुप खड़ी सुनती रही। ‘आज मैं यहीं से गुजर रहा था। रास्ते में ही बस खराब हो गई। फिर मेरे बेटे ने फोन पर कहा कि पंकज आजकल यहींरहता है, सो मैं पता करते-करते चला आया।’

उनकी स्थिति और आवाज सुनकर वो कुछ पल के लिए उन पर भरोसा कर बैठी। पर भरोसा करते ही दिमाग तुरंत सचेत हो गया। ‘नहीं इस तरह के लोग तरह-तरह का रूप धरकर आते हैं। कह तो दिया था मैं अकेली, फिर भी, हे भगवान कहीं...’ फिर पता नहीं क्या सोचा कि मुंह से निकल ही गया, ‘आइए।’ दो कोठरी के अपने छोटे से घर

में उन्हें जगह दे दी। पति से फोन करके पूछा कि आप इन्हें जानते हैं? दिमाग पर जोर देने के बाद भी जवाब उलझन में ही लिपटा हुआ था। ‘आंऽऽ ठीक से याद नहीं आ रहा, हां बाबूजी होते तो पहचानते।’ पर साथ ही यह भी कहा था कि ‘आजकल चाहते हुए भी किसी पर भरोसा करना मुश्किल है। पर सुनो-खाना पीना ठीक से खिलाना। नहीं तो दस जगह जाकर कहेंगे कि पानी के लिए भी नहीं पूछा।’

एक साथ ही थाली में उसने पराठे, कटोरी भर सब्जी और सेंवई कमरे में तब रख आई जब वो बाथरूम में हाथ-

मुंह धो रहे थे। जब सोने आई तो रात के ग्यारह बज रहे थे। उसने उनके कमरे का दरवाजा इस तरह से सटाया कि

उसकी मर्जी के बगैर खुलेगा भी नहीं। बाथरूम अंदर होने के कारण वो चाहकर भी बंद नहीं कर सकती थी। कहीं

रात-बिरात उन्हें जरूरत हुई तो। अपने कमरे में पहुंचकर लगा जैसे वो सुरक्षित स्थान पर पहुंच गई हो, थोड़ी देर राहत की सांस ली। उसकी धड़कनें फिर तेज होने लगीं। मुड़कर उसने अपनी दोनों बेटियों को देखा। बड़ी बेटी जो 11-12 साल की है, आज कुछ अधिक ही बड़ी दिखने लगी। नींद में उसने अपने ऊपर से रजाई फेंकी थी। यह रोज उसे उसकी शरारत लगती थी। आज पता नहीं क्यों, यह उसे अच्छा नहीं लगा। उसने उसे झट से रजाई से ढंक दिया। अब ठीक लग रही है। 8-9 साल से ज्यादा बड़ी नहीं लग रही, अब ठीक है। ‘नहीं नहीं, ऐसा नहीं होगा!’ सोई रिया को वो छाती से चिपका लेती, जैसे कोई उसे उससे छीन रहा हो। ‘क्या करूं? क्या करूं? पहले उनके कमरे में इधर से ही ताला लगा देती हूं। वो चाहकर भी हम लोगों के पास नहीं पहुंच पाएंगे।’ ‘हां धीरे-धीरे दबे पांव, ओ हो, ये ताला बंद कर दिया, अब जान बची।’ चौकन्ना होते हुए लौटी क्या पता, उनके कुछ और लोग भी बाहर ताक में बैठे हों। मैं अकेले क्या कर पाऊंगी...लेकिन अगर उसने मेरी बेटी को छुआ भी तो मैं सबको जान से मार दूंगी, पर कैसे? मेरे पास तो कोई भी हथियार, छुरा, पिस्तौल कुछ भी तो नहीं है। होता भी तो चलाना नहींआता है।’ ‘अच्छा कोई बात नहीं, रसोई में चाकू है, उसी से मैं उसको....हां मिर्ची वाला पाउडर भी है, उसी को आंख में झोंक दूंगी। यहां चाकू रख देती हूं और यहां मिर्ची वाला पाउडर रख देती हूं। निकालने में देर नहीं लगेगी। कोई आहट सुनते ही मैं...(सोती हुई दोनों बेटियों को देखकर) अब ये चैन से सो सकती हैं, मैं जगी रहूंगी रातभर।’ घड़ी की ओर देखा, दो बज गए थे। कई बार पति ने फोन पर बात की थी, कहा कि डरो मत, काम खत्म हो गया है, मैं सुबह पांच बजे ही पहुंच जाऊंगा।

फिर धीरे-धीरे उसकी आंख लग गई। सपने में उसने देखा कि रिया के चारों ओर खून बिखरा है! किसी ने उसको... ओह नहीं....! पसीने से नहाई हुई वो उठ बैठी। देखा रिया तो बगल में सो रही है। उसने उसे छाती से चिपका लिया। क्या पता अंतिम बार ही छू रही हो। उसका चेहरा, आंख, नाक, बाल, हाथ, पैर सब कितने सुंदर हैं...कोई इसे

कैसे मार सकता है! मारना भी चाहेगा तो नहीं मार पाएगा।

मुंह देखकर ही छोड़ देगा। वो उसे सीने से लगा नींद में ही चूमती रही...रोती रही। खुली आंखों से उसने पांच बजा

दिया। पांच बजते ही लगा कि जैसे उसे नया जीवन मिल गया हो। उठकर ताला खोल उनके कमरे में गई तो देखा वो जगे हुए हैं, कोई किताब पढ़ रहे हैं। जाते ही उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘बहुत चैन से रात बीती।’

‘हूं...’ ‘एक बात पूछ सकता हूं बेटी....’

‘हूं’ ‘क्या तुम वाल्मीकि जी की बेटी हो?’ उसे आश्चर्य हुआ, ‘आपने कैसे जाना?’ ‘उनकी तस्वीर यहां लगी है।

तुम भी साथ हो। मुझे लगा कि तुम्हारे पिता ही होंगे।’ ‘जी पिता जी हैं।’ ‘तब तो सचमुच तुम मेरी भी बेटी हुईं। वो मेरे साथ पढ़ता था। तभी ये घर मुझे अपना सा लगा।’ वो बस उनका चेहरा देखती रह गई।

(कथा जगत में अपनी पहचान बनाती नवोदिता)

द्वारा श्री अविनाश, फ्लैट नं. 8, प्लाट नं. 876, शालीमार गार्डन

एक्सटेंशन-1, साहिबाबाद (गाजियाबाद)

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