मुफलिसी में जी रहे झारखंडी माटी के लोक कलाकार Jamshedpur News

कला के सहारे जीवन यापन करने वालों तक नहीं पहुंच रहीं कला-संस्कृति विभाग की योजनाएं सरकार की योजनाओं पर कुंडली मार कर बैठे हैं कई एनजीओ।

By Vikas SrivastavaEdited By: Publish:Mon, 24 Feb 2020 12:23 PM (IST) Updated:Mon, 24 Feb 2020 06:08 PM (IST)
मुफलिसी में जी रहे झारखंडी माटी के लोक कलाकार Jamshedpur News
मुफलिसी में जी रहे झारखंडी माटी के लोक कलाकार Jamshedpur News

जमशेदपुर (एम. अखलाक)। देश-दुनिया में झारखंड की पहचान सिर्फ खनिज संपदा के कारण ही नहीं है, बल्कि यहां की लोक संस्कृति और लोक कला के कारण भी है। इस राज्य के हर प्रमंडल की खास विशेषता है। सांस्कृतिक पहचान है।

झारखंड के कोल्हान प्रमंडल में भी इस प्रमंडल के तीनों जिलों की अपनी विशेष पहचान है। सरायकेला-खरसावां जिले की पहचान जहां छऊ लोक नृत्य के कारण है, तो पूर्वी सिंहभूम जिले में संताल व भूमिज समुदाय की लोक कला और संस्कृति हावी हैं। इसी तरह पश्चिम सिंहभूम की माटी हो समुदाय की सांस्कृतिक खुशबू बिखेरती नजर आती है। लेकिन, चिंता की बात यह है कि लोक कलाओं से जुड़े लोक कलाकार मुफलिसी में जी रहे हैं।

झारखंड सरकार की योजनाएं इन लोक कलाकारों तक नहीं पहुंच पा रही हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी कला और संस्कृति की सेवा करते आ रहे ये लोक कलाकार आज भी मुश्किल से दो जून की रोटी जुटा पाते हैं। इनके पास रहने के लिए बढिय़ा घर है, ना ही जीवन यापन का कोई दूसरा साधन। ऐसा नहीं है कि कला-संस्कृति विभाग के पास पैसे का अभाव है। सरकार पैसे खर्च नहीं कर रही। सच्चाई यह है कि बड़े-बड़े एनजीओ इन कलाकारों के नाम पर खजाना उड़ा ले जा रहे हैं।

जमशेदपुर के शहरी क्षेत्र व आसपास के इलाकों में कई एनजीओ इन्हें कामधेनु की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। इनके नाम पर आयोजन कर पैसे उठा रहे हैं। लेकिन, असली लोक कलाकार यानी जो कला के सहारे जीवन यापन करते हैं, उन्हें तो फूटी कौड़ी नसीब नहीं हो रही। गांवों में जीवन बसर करने वाले इन लोक कलाकारों को सरकारी योजनाओं की कोई जानकारी भी नहीं होती। सरकार की योजनाओं का लाभ कैसे मिलेगा, इसबारे में जानकारी देने के लिए जिला प्रशासन कभी इनके बीच जा कर शिविर भी आयोजित नहीं करता है।

जिला प्रशासन भी एनजीओ की परिक्रमा करता है। सरकारी आयोजनों में एनजीओ के जरिए ही इन कलाकारों की भागीदारी सुनिश्चित होती है। कोई पारिश्रमिक तय नहीं है, एनजीओ की मर्जी पर सब कुछ निर्भर रहता है।

तीस साल से बना रहे खोल

ये हैं संतोष कुमार रोहिदास। तीस साल से खोल लोक वाद्ययंत्र बनाने का काम कर रहे हैं। इनके पुरखे भी इस पेशे से जुड़े थे। इन्हें साकची बाजार के फुटपाथ पर प्रत्येक रविवार को देख सकते हैं। परिवार में सात सदस्य हैं। महीने में दो-तीन हजार रुपये ही कमा पाते हैं। परिवार का भरण-पोषण नहीं हो पाता, इसलिए गांव में मजदूरी भी करनी पड़ती है। इन्हें कला संस्कृति विभाग से आज कोई सुविधा नहीं मिली है।

फुटपाथ पर गुजर गए 26 साल

ये हैं मैथोर रईदास। बोड़ाम प्रखंड क्षेत्र के रहने वाले हैं। लगभग 26 वर्षों से साकची बाजार के फुटपाथ पर ही तबला वाद्ययंत्र बनाने का काम करते आ रहे हैं। गांव से हर रविवार को यहां आते हैं। कोई गारंटी नहीं कितना कमा लेंगे। पूछने पर कहते हैं कि महीने में दो से तीन हजार रुपये कमा लेते हैं। घर में कुल आठ सदस्य हैं। खर्च नहीं चल पाता, इसलिए खेती करनी पड़ती है। इन्हें आज तक कोई सरकारी लाभ नहीं मिला है।

किसी योजना का लाभ नहीं मिला

ये हैं दिगंबर रूईदास। पिछले 25 वर्र्षों से लोक वाद्ययंत्र ढोलक बनाने का काम करते आ रहे हैं। महीने में करीब तीन हजार रुपये कमा पाते हैं। इस चंद रुपयों से परिवार के 14 लोगों का भरण-पोषण नहीं हो पाता है। इस कारण समय निकाल कर गांव में खेती भी करते हैं। वे कहते हैं कि कला संस्कृति विभाग की ओर से कभी किसी योजना का लाभ नहीं दिया गया। पता ही नहीं चलता कि राज्य सरकार कौन-कौन-सी योजनाएं चला रही है।

कई बार बिना कमाए लौट जाते घर

ये हैं मनोहर रूईदास। ढोलक के कारीगर कलाकार। करीब बीस बरस से इस पेशे में हैं। यही जीवन-यापन का जरिया है। महीने में महज दो-तीन हजार रुपये ही कमा पाते हैं। हर हफ्ते कमाने के लिए साकची बाजार में आते हैं। ढोलक बनाकर कमाते हैं। कई बार तो ग्राहकों का दर्शन भी नहीं होता है। बिना कमाए ही शाम को घर लौट जाते हैं। दस लोगों का परिवार है। मेहनत -मजदूरी कर जीवन बसर कर रहे हैं। कला संस्कृति विभाग की किसी योजना का लाभ नहीं मिला है।

कला-संस्कृति विभाग के बारे में भी नहीं पता

 

ये हैं नेपाल रूईदास। 35 साल से ढोलक लोक वाद्ययंत्र बनाने का काम करते आ रहे हैं। पुरखे भी कभी इसी पेश में शामिल थे। सो, इन्होंने भी पेशा बना लिया। वे कहते हैं कि अब बाल-बच्चा इस पेशे में नहीं आना चाहते हैं। बहुत बुरा हाल है। इससे परिवार चलाना मुश्किल है। घर में कुल दस सदस्य हैं। यदि सभी काम नहीं करें तो भोजन नहीं मिलेगा। कहते हैं कि कभी कला-संस्कृति विभाग की ओर से किसी योजना का लाभ नहीं मिला है। उन्हें तो इस विभाग के बारे में कुछ पता भी नहीं है।

कला के नाम पर एनजीओ उठा रहे पैसा

ये हैं जयदेव रूईदास। पिछले 40 वर्षों से लोक वाद्ययंत्र मांदर बनाने का काम करते आ रहे हैं। परिवार में पांच सदस्य हैं। इस पेशे से पेट नहीं भर रहा। लेकिन, जीने के लिए इनके पास यही हुनर है, सो इस पेशे को नहीं छोड़ पा रहे। वे कहते हैं कि कला संस्कृति विभाग केवल एनजीओ को रुपये बांट रहा है। जो वास्तविक कलाकार हैं वे तो गरीबी में जी रहे हैं। उन्हें तो योजनाओं की जानकारी भी नहीं मिलती।

कुछ कमा लिए तो सबसे अच्छा दिन

ये हैं रामचंद्र रूईदास। करीब 40 साल से लोक वाद्ययंत्र नाल बनाने के पेशे से जुड़े हैं। महीने में दो हजार से अधिक नहीं कमा पाते हैं। घर में आठ सदस्य हैं। ये गरीबी में जी रहे हैं। इन्हें कला-संस्कृति विभाग की ओर से आज तक किसी योजना का लाभ नहीं दिया गया है। साकची बाजार में हर रविवार को गांव से आते हैं। अगर कुछ कमाई हो गई तो इनके लिए सबसे अच्छा दिन होता है।

हम तो सरकार के एजेंडे में ही नहीं

ये हैं विकास रूईदास। पिछले 15 साल से लोक वाद्ययंत्र खोल बनाने का काम करते आ रहे हैं। इस पेशे से पेट नहीं भर रहा, लेकिन छोड़ भी नहीं पा रहे। क्योंकि दूसरा कोई काम आता नहीं। गांव में कभी कभार खेती भी कर लेते हैं। बताते हैं कि इन्हें कला संस्कृति विभाग से आज तक किसी योजना का लाभ नहीं मिला है। उल्टे सवाल पूछते हैं- सरकार हमें भी कलाकार मानती है? हम तो उसके एजेंडे में ही नहीं।

झारखंड सरकार के पास कोई ठोस नीति नहीं है। यही वजह है कि लोक कलाकार उपेक्षित हैं। इन तक योजनाएं नहीं पहुंच पा रही हैं। गांव-गांव अभियान चलाकर लोक कलाकारों को सूचीबद्ध करने की जरूरत है। इसके लिए पंचायतीराज व्यवस्था को पहल करनी चाहिए।

प्रदीप भट्टाचार्य, तबला वादक, साकची

लोक कलाकारों के कारण ही झारखंड की लोक कलाएं जिंदा हैं। लेकिन, इन्हें सहेजने की कोई ठोस नीति राज्य सरकार के पास नहीं है। कला-संस्कृति विभाग में कदम कदम पर बिचौलिए सक्रिय हैं। यही वजह है कि योजनाएं असली कलाकारों तक नहीं पहुंच रहीं, यह जांच का विषय है।

 

गौतम गोप, संस्कृतिकर्मी, जमशेदपुर

chat bot
आपका साथी