पोइला बोइशाख: गो पूजन, नीम-हलूद स्नानेर साथे मानाबो नोतून बोछोर

पूरी दुनिया में जहां भी बंग संतान होंगे वहां पोइला बोइशाख का जश्न पूरे खुमार पर होगा। वैशाख महीने का यह पहला दिन होगा जब बांग्ला समुदाय नये साल के जश्न में डूब जाएगा।

By Deepak PandeyEdited By: Publish:Sat, 13 Apr 2019 11:09 AM (IST) Updated:Sat, 13 Apr 2019 11:09 AM (IST)
पोइला बोइशाख: गो पूजन, नीम-हलूद स्नानेर साथे मानाबो नोतून बोछोर
पोइला बोइशाख: गो पूजन, नीम-हलूद स्नानेर साथे मानाबो नोतून बोछोर

जागरण संवाददाता, धनबाद: पूरी दुनिया में जहां भी बंग संतान होंगे, वहां पोइला बोइशाख का जश्न पूरे खुमार पर होगा। वैशाख महीने का यह पहला दिन होगा जब बांग्ला समुदाय नये साल के जश्न में डूब जाएगा। घर की सजावट से लेकर कारोबार के रजिस्टर तक बदल जाएंगे। बंग भाषी सुबह पूजा-पाठ कर पारंपरिक वेश-भूषा में पहले मंदिरों में जाकर राधा-कृष्ण को नमन करेंगे। इसके बाद शुरू होगा लजीज व्यंजनों का दौर। यहां तक तो बात हो गई हो गई शहर की। अब बात गांव की। गांवों में भी पोइला बोइशाख का रंग देखने लायक होगा।

गांव का पोइला बोइशाख न सिर्फ नये साल का जश्न है बल्कि परिवार और समाज की शांति और चेचक सरीखे वायरस जनित रोगों से दूरी बनाने की शुरुआत भी है।

इस मौसम आप अक्सर पाते हैं कि चेचक तेजी से फैलता है। यही वजह है कि गावों में इस दिन नीम के पत्ते और हल्दी पीसकर उसका लेप बदन पर लगाने और उसके सूख जाने पर स्नान करने की परंपरा है। इतना ही नहीं, नीम के ताजा पत्ते या उसके फूल को फ्राई कर गरम चावल के साथ सबसे पहले सेवन भी करते हैं। उसके बाद ही अन्य व्यंजन। यह महज एक परंपरा नहीं बल्कि एक तरह से एंटी पॉक्स औषधि है। मान्यता है कि इससे चेचक नहीं फैलता है।

शहरी बंग भाषी इन परंपराओं से हो चुके दूर: बंगाल के गांवों की इन परंपराओं से शहरी बंग भाषी अब दूर हो चुके हैं। घर सजाना, मंदिर जाना, बड़ों का आशीष लेने तक की परंपरा तो बनी हुई है। लजीज व्यंजन का लुत्फ भी पूरा परिवार साथ मिलकर उठाते हैं, पर रोग व्याधि से दूरी बनाने वाली परंपरा उनसे छिन चुकी है।

भगवती पूजा की भी परंपरा: पोइला बोइशाख की एक खास बात यह भी है कि इस दिन गावों में भगवती पूजा की परंपरा है। भगवती और कोई नहीं बल्कि गौ माता है। तड़के सबसे पहले उन्हें स्नान कराकर तिलक लगाते हैं। उन्हें भोग लगाया जाता है। पांव छूकर आशीर्वाद लेते हैं। इसके बाद घर के बुजुर्गों की बारी आती है।

गोष्ठी मेला का अपना अलग अंदाज: ग्राम बांग्ला में होनेवाले गोष्ठी मेले का अपना अलग अंदाज है। पीली साड़ी में महिलाएं और पायजामा या धोती कुर्ता में पुरुष शाम में इस मेले में शरीक होते हैं। घरों से राधा कृष्ण की मूर्ति लेकर गोष्ठी मंडप में पहुंचते हैं, जहां एकसाथ पूजा होती है। भजन कीर्तन का दौर देखने लायक होता है।

अपनी जमीन पर पुआल जलाकर बीते साल की व्याधि की आहूति देने का भी रिवाज

होलिका दहन तो हिन्दू संस्कृति में अहम है ही पर इससे इतर बांग्ला नववर्ष की सुबह पुआल जलाने का अपना अलग रिवाज है। जिनकी अपनी जमीन है वह ऐसा कर गुजरे साल की व्याधि, कष्ट और दुखों की आहूति देते हैं। मान्यता है कि इससे पूरे साल खुशहाली बनी रहती है।

"बांग्ला नववर्ष बंग समुदाय में नई ऊर्जा का संचार करता है। परंपरा और संस्कृति के समावेश वाले इस आयोजन से शहरी चकाचौंध और इंटरनेट युग की नई पीढ़ी को जोडऩा बेहद जरूरी है।"

डॉ. जय गोपाल मंडल, प्राध्यापक, पीजी बांग्ला विभाग, बीबीएमकेयू

"परिवार और समाज की मंगलकामना के साथ पोएला बोइशाख की शुरुआत करते हैं। बड़ों का आशीर्वाद लेना, घर को नया लुक देना, नये वस्त्र पहनना और लजीज व्यंजनों का लुत्फ उठाना इसकी खासियत है।"

डॉ. ताप्ति चक्रवर्ती, पीजी हेड, आर्ट एंड कल्चर विभाग बीबीएमकेयू

"अमीरी-गरीबी का भेदभाव भुलाकर इस दिन सारे बंगभाषी एक हो जाते हैं। सुबह के पारंपरिक अनुष्ठानों के बाद शाम में बांग्ला संस्कृति से जुड़ी सांस्कृतिक अनुष्ठान इस दिन को और यादगार बना देते हैं।"

साहाना रॉय, प्रख्यात नृत्यांगना और प्रशिक्षक

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