चलते रहो कहती है जिंदगी

एक अध्ययन कहता है कि भारत में टीनएजर्स की आत्महत्या के मामले बहुत बढ़ रहे हैं। यहा तक कि वह विश्व में नंबर दो पर है। आखिर वे कौन सी वजहें हैं जो युवा सपनों को खिलने से पहले ही मुरझाने पर विवश कर रही हैं? युवा ऐसे कदम न उठाएं, इसके लिए परिवार और समाज की भूमिका क्या हो बता रहे हैं एक्सप‌र्ट्स

By Edited By: Publish:Wed, 31 Jul 2013 12:46 PM (IST) Updated:Wed, 31 Jul 2013 12:46 PM (IST)
चलते रहो कहती है जिंदगी

एक अध्ययन कहता है कि भारत में टीनएजर्स की आत्महत्या के मामले बहुत बढ़ रहे हैं। यहा तक कि वह विश्व में नंबर दो पर है। आखिर वे कौन सी वजहें हैं जो युवा सपनों को खिलने से पहले ही मुरझाने पर विवश कर रही हैं? युवा ऐसे कदम न उठाएं, इसके लिए परिवार और समाज की भूमिका क्या हो बता रहे हैं एक्सप‌र्ट्स

भारत में होने वाली युवा मौतों को लेकर एक अध्ययन पिछले दिनों ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ था। इसके मुताबिक युवाओं की आत्महत्या के मामले में भारत नंबर दो पर है। स्टडी में पाया गया कि वर्ष 2010 में भारत में 1.87 लाख लोगों ने आत्महत्या की। स्टडी के मुताबिक भारत में शिक्षा, नौकरी, संबंधों में परेशानी, उत्पीड़न, सेहत जैसी तमाम परेशानियों के चलते हर साल हजारों युवा मौत को गले लगा रहे हैं। आत्महत्या की भावना किसी खास पल में उठाया गया कदम जरूर है, लेकिन एक्सप‌र्ट्स मानते हैं कि दरअसल इसकी प्रक्रिया लंबे समय से व्यक्ति के दिमाग में चल रही होती है।

कौन हैं आत्महत्या करने वाले

आत्महत्या के खतरों के अनुसार इन मामलों को अलग-अलग श्रेणी में बाटा जा सकता है। अतीत में भी आत्महत्या का प्रयास करने वाले सर्वाधिक डेंजर जोन में आते हैं, मीडियम रिस्क में वे लोग आते हैं जो कई बार अपने मन में ऐसा सोचते हैं या इसकी प्लानिंग करते हैं, लो रिस्क में वे आते हैं जो कहते हैं, मैं मर जाना चाहता/चाहती हूं। एक और श्रेणी है इंपल्सिव सुसाइड की। इसमें अचानक किसी खास मनोदशा में व्यक्ति बिना सोचे-समझे ऐसा कदम उठा लेता है।

यह सच है कि आज युवा कई चुनौतियों से जूझ रहा है। बेरोजगारी, नौकरी खोना, आर्थिक परेशानिया या निराश होना, अपराध-बोध से ग्रस्त होना, घरेलू या किसी भी तरह की हिंसा झेलने के अलावा कलह-प्रताड़ना, मानसिक या गंभीर शारीरिक बीमारी को आत्महत्या के प्रमुख कारणों में गिना जा सकता है। ऐसे लोग अक्सर कुछ वाक्य बोलते नजर आते हैं, मैं जीवन से तंग आ चुका/चुकी हूं, मैं नहीं जानता/जानती कि क्या करूं, मैं मर जाना चाहता/चाहती हूं, जीने का अब कोई मतलब नहीं है..।

अगर हो कोई ऐसा

अगर आपके परिवार का कोई सदस्य, दोस्त या आसपास कोई ऐसा है, जो इन लक्षणों से ग्रस्त है तो कुछ बातों का ध्यान रखें

1. उसकी बातें ध्यान से सुनें और इसके बाद खतरे के बारे में विचार करें।

2. सोचें कि उसकी मदद कैसे कर सकते हैं।

3. उसकी तकलीफ को समझें। इसे नॉर्मल कहते हुए नजरअंदाज न करें।

4. उस पर दोषारोपण न करें, न बहस करें।

5. खुद को उसकी मदद के लिए तैयार रखें और उससे लगातार बातचीत करते रहें।

आत्महत्या समस्या का हल नहीं है। यह मेडिकल प्रॉब्लम से अधिक सामाजिक समस्या है।

बचाव के प्रयास

आत्महत्या के प्रयास में ट्रीटमेंट दो तरह से होता है- फर्माकोथेरैपी और साइकोथेरैपी। चिकित्सकों की एक टीम कई स्तरों पर इसके बचाव का प्रयास करती है। इसमें रोगी और उसके परिजनों से लगातार संवाद के जरिये समस्या की जड़ तक पहुंचा जाता है। युवाओं को आत्महत्या से बचाने के लिए वैज्ञानिक तरीके से काम करने की जरूरत है। इसका प्रभाव टीनएजर के पूरे जीवन पर पड़ता है, इसलिए इलाज भी कई स्तरों पर चलता है।

भ्रातियां और मिथक

टीनएज में आत्महत्या को लेकर समाज में कई तरह की भ्रातिया हैं। पहला मिथक यह है कि किसी दबाव या बुरे अनुभव के कारण टीनएजर्स ऐसे कदम उठाते हैं। जबकि सर्वे बताते हैं कि टीनएज में आत्महत्या करने वालों में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो किसी न किसी मानसिक असंतुलन या अवसाद से ग्रस्त हैं। अक्सर कहा जाता है कि बच्चों के सामने आत्महत्या जैसी घटनाओं या बातों का जिक्र करने से उन पर गलत प्रभाव पड़ता है, लेकिन ऐसी बातों का प्रभाव सामान्य बच्चे पर नहीं पड़ता, बल्कि अवसादग्रस्त बच्चे पर ही पड़ता है। इसलिए व्यक्ति के व्यवहार को समझने की कोशिश होनी चाहिए। शोध बताते हैं कि आत्महत्या करने वालों में 90 प्रतिशत संख्या ऐसे लोगों की है, जो पहले से किसी डिप्रेशन, मेंटल डिसॉर्डर या उत्पीड़न के शिकार रहे हैं।

सचेत हो जाएं

डिप्रेशन के लक्षण दिखें: हर वक्त दुख, बेचैनी या खालीपन महसूस हो, बच्चा लगातार स्कूल में खराब प्रदर्शन करे, खुश न रहे, सामाजिक-पारिवारिक गतिविधियों से दूर हो, खेलकूद या दोस्तों में मन न लगे, अधिक सोए या अनिद्रा से ग्रस्त हो, वजन व भूख अचानक घटने-बढ़ने लगे।

बाइपोलर डिसॉर्डर: नींद कम या ज्यादा आना, एकाएक बातूनी हो जाना, चिल्लाना, असामान्य विचार, मूड स्विंग, आक्रामक व्यवहार, अपनी योग्यता व महत्व को लेकर विरोधाभासी बातें करना।

पेरेंटस डायरी

1. हर कीमत पर बच्चे की मदद को तैयार रहें। उसकी शारीरिक-भावनात्मक स्थिति पर नजर रखें और प्रोफेशनल की मदद लेने को तैयार रहें।

2. उसे भावनात्मक लगाव और सहयोग दें। उसकी बातें सुनें, आलोचना न करें और लगातार संवाद बनाए रखें।

3. उसे अधिकाधिक सूचनाएं दें। लाइब्रेरी की सदस्यता दिलाएं, स्पो‌र्ट्स क्लब जॉएन कराएं, दोस्तों से मिलने-जुलने को प्रेरित करें, इंटरनेट पर दिलचस्प जानकारिया लेने को कहें, सामाजिक संस्था से जोडे़ं।

डॉक्टर डायरी

1. स्थिति के बारे में कयास न लगाएं और हर चीज को गंभीरता से लें।

2. पेशेंट की शारीरिक हालत के अनुसार तुरंत बचाव का प्रयास शुरू कर दें।

3. सुनिश्चित करें कि पेशेंट को पर्याप्त हवा मिले, उसके हृदय और फेफड़ों की जाच करें। यदि रोगी अचेत हो और उसकी हालत गंभीर हो तो तुरंत बचाव के उपाय शुरू करें। इसके लिए एबीसीडी मेथड कारगर है। ए-एयरवे (रोगी को पर्याप्त हवा मिले), बी-ब्रीदिंग (सास लेने में समस्या न हो), सी-सर्कुलेशन (रक्त-संचार), डी-डिफिसिट (शरीर में कोई कमी न हो)।

फ्रेंडस डायरी

1. अगर आपका दोस्त डिप्रेशन से गुजर रहा है तो उसकी किसी भी बात को हल्के ढंग से न लें। उसकी बात को गंभीरता से सुनें, उसकी प्रतिक्रिया को समझने की कोशिश करें।

2. उसे प्रोफेशनल हेल्प लेने को कहें, अकेला न छोडें़ और जरूरत पड़ने पर उसके साथ भी जाएं।

3. किसी बडे़ व भरोसेमंद व्यक्ति से इस बारे में चर्चा करें। इसके अलावा अपने और दोस्त के पैरेंट्स से भी इस विषय में बात करें।

(मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. जितेंद्र नागपाल व कंसल्टेंट डॉ. विक्रम खत्री से बातचीत पर आधारित)

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