कोरोना और लॉकडाउन के संकट में भी आखिर शराब कैसे बनी आवश्यक वस्तु, है ना बेहद विचित्र

जब सरकार इस मंथन में लगी थी कि लॉकडाउन में क्‍या चीजों को इससे बाहर किया जाए वहां एक आदेश ने सभी को हैरत में डाल दिया।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Thu, 02 Apr 2020 12:13 PM (IST) Updated:Thu, 02 Apr 2020 12:13 PM (IST)
कोरोना और लॉकडाउन के संकट में भी आखिर शराब कैसे बनी आवश्यक वस्तु, है ना बेहद विचित्र
कोरोना और लॉकडाउन के संकट में भी आखिर शराब कैसे बनी आवश्यक वस्तु, है ना बेहद विचित्र

नवनीत शर्मा। आपदा आती है तो पता चलता है कि जिसे रोजमर्रा की चीज समझ कर गैर-जरूरी मानते थे, वही वास्तव में जरूरी चीज है। और जिन चीजों को जरूरी समझा जाता है, वे गैर-जरूरी होती हैं। लेकिन इस माहौल में जब सांसों पर संकट आसन्न है, नन्ही बच्चियां अपनी गुल्लकें तोड़ कर डीसी और एसपी अंकल को पैसे सौंप रही हैं कि उन पैसों से किसी घर को आटा मिले, चावल मिले, नमक मिले, तेल मिले। जब बंजार के गुमान सिंह और हरा देवी अपने जवान बेटे की तेरहवीं पर भोज न देकर दो हजार मास्क बांटें, कंजक पूजन पर खर्च होने वाली राशि पीएम केयर्स में जा रही हो, जब जिलों के स्वास्थ्य, प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी मोर्चे पर तैनात हैं। जब हर व्यक्ति एक दूसरे के काम आना चाहता है ताकि आवश्यक वस्तुएं और सेवाएं जीवन को जारी रखें।

ठीक ऐसे में दो जिलों के उपायुक्त ऐसा आदेश निकालते हैं कि शराब को आवश्यक वस्तुओं में डाल देते हैं, क्योंकि आदेशों पर उपायुक्त के हस्ताक्षर थे, इसलिए सबने समझा कि ये दोनों अपने स्तर से आदेश निकाल रहे हैं। यह पुख्ता जानकारी है कि जब यह मंथन अपेक्षित था कि आवश्यक सेवाओं को कैसे बहाल रखना है, अन्य राज्यों से जुड़े लोगों को कैसे ससम्मान भेजना है या क्वारंटाइन करना है, कोरोना से भयाक्रांत उसी समय में शासन के बड़े स्तर पर एक दिन इस बात पर भरपूर मंथन हुआ कि शराब को कैसे आवश्यक वस्तुओं में लाया जाए। आदेश आए, लेकिन सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रिया आई और आदेश वापस हो गए। होने ही थे। सवाल यह है कि वापस लेने वाले आदेश जारी ही क्यों होते हैं? अभी जो हालात हैं, उसमें राशन की ही जरूरत है, ऐसे में भी कोई आबकारी नीति के पीछे पड़ा है तो कुछ सवाल उठते हैं।

पहली बात यह है कि आबकारी यानी एक्साइज का अर्थ है कोई वस्तु बनाने पर लगने वाला कर। उसमें तो तमाम चीजें आती हैं, इसलिए इसे शराब नीति या शराब विभाग क्यों न कहा जाए? दूसरा सवाल यह है कि हर साल नई नीति क्यों? क्या कभी दाल, चीनी या दीगर वस्तुओं के लिए हर साल नीति बनती है? फिर यह कि कई वर्षो से हिमाचल के बजट को पूरी तरह शराब से मिलने वाले राजस्व पर क्यों केंद्रित कर दिया गया है? विकल्प तलाशना किसका दायित्व था? यह विडंबना नहीं है कि वचन में तो नैतिकता का हवाला देकर शराब पीने को गलत बताया जाए और कर्म में ऐसे प्रबंध किए जाएं कि शराब अधिकाधिक बिके? कोई तो कारण होगा कि कुछ वस्तुओं के लिए अधिकतम क्रय रखा जाता है कि इससे अधिक मत बेचना। शराब के लिए न्यूनतम कोटा होता है कि इससे कम मत बेचना! यानी इतनी तो बेचनी ही पड़ेगी।

सवाल खत्म नहीं होते। वीसी फारका के कार्यकाल को छोड़ दें तो हिमाचल में यह प्रथा बड़ी शिद्दत से निभाई जा रही है कि मुख्यमंत्री का प्रधान सचिव ही आबकारी यानी शराब का भी सचिव होता है। आखिर क्यों? किसी को लंबी अवधि के लिए काम सौंपें तो ईमानदारी की संभावना जग ही जाती है। जब यह तय ही हो कि एक साल का ठेका है, जितना कमाना है कमा लो, जिस तरह भी कमा लो। क्या इसलिए एक साल होता है? आखिर शराब को दुकानों में बेचने की अनुमति क्यों न हो? दुकानदार टैक्स दे और अपना काम करे? ठेके का अर्थ ही संरक्षण से जुड़ता है, इसलिए। हिमाचल की एक सरकार के वक्त यह तय किया गया कि बाकायदा निगम बना कर सरकार स्वयं शराब बेचेगी। उस अध्याय के पन्ने इतने रंगीन हैं कि कभी उन पर भी जाएंगे। सवाल यह है कि सरकार दूध के लिए काम करे, राशन के लिए काम करे, शिक्षा के लिए काम करे, यह समझ में आता है। उस सरकार ने स्वयं ही शराब बेचने का फैसला लिया यह समझ से परे है।

वास्तव में आवश्यक क्या है और क्या नहीं, यह समझ कठिन नहीं है। हिमाचल के निजी स्कूल लॉकडाउन के बावजूद विद्यार्थियों को सूचना एवं तकनीकी के औजारों से गृहकार्य भेज रहे हैं, सरकारी स्कूलों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। क्या शिक्षा आवश्यक सेवा नहीं है? विद्यार्थी भी घरों में हैं, शिक्षक भी अवकाश पर हैं। क्या दिन में दो घंटे इस कार्य को नहीं दिए जा सकते? यह ठीक है कि सरकार की ओर से लैपटॉप केवल मेधावी विद्यार्थियों को ही मिलते हैं, सबको नहीं। लेकिन इंटरनेट कहां नहीं है? सरकार तो बेशक कोरोना से उत्पन्न स्थितियों से जूझ रही है, लेकिन जिन्हें विभाग चलाना है, वही इस प्रकार के प्रयास करें। अगर सरकारी पत्र के मुताबिक कुछ देर के लिए शराब आवश्यक वस्तु हो सकती है तो शिक्षा आवश्यक सेवा क्यों नहीं?

(राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश)

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