दशहरे से भी पुराना पीपल जातर मेला

पीपल जातर मेले का आयोजन 15वीं शताब्दी से लगातार हो रहा है। इसे स्थानीय भाषा में राई-री-जाच भी कहा जाता है। इसका आयोजन दशहरा से भी पहले से हो रहा है।

By Neeraj Kumar Azad Edited By: Publish:Sun, 01 May 2016 01:11 PM (IST) Updated:Sun, 01 May 2016 01:13 PM (IST)
दशहरे से भी पुराना पीपल जातर मेला

पीपल जातर मेले का आयोजन 15वीं शताब्दी से लगातार हो रहा है। इसे स्थानीय भाषा में राई-री-जाच भी कहा जाता है। इसका आयोजन दशहरा से भी पहले से हो रहा है। कुल्लू में दशहरे का शुभारंभ 16वी शताब्दी से हुआ है तो पीपल मेले का शुभारंभ 15वीं शताब्दी से चल रहा है।
जानकारों के मुताबिक ढालपुर मैदान में एक पीपल के पेड़ नीचे बैठने के लिए स्थान बनाया था, जहां राजा और देवता एक दिन में जागरा जलाते थे। जिसका आयोजन सुख-शांति के लिए किया जाता था। इसके अलावा शाम को ढालपुर में आग जलाकर लालड़ी नृत्य किया जाता है। मेले में वीर नाथ, ब्रम्हा देवता, ज्वाणी महादेव, त्रिपुरा सुंदरी, चामुंड़ा माता, शैलवरी माता और देवता नर ङ्क्षसह आदि देवी देवता भाग लेते थे। देवता वीर नाथ के कारदार राजकुमार और गुर देवी चंद ने बताया कि जातर मेला में पहले भगवान रघुनाथ जी भी आते थे। लेकिन अब कई सालों से रघुनाथ जी नहीं आते हैं। पहले इस मेले को जिला स्तरीय का दर्जा प्राप्त था जो अब राज्य स्तरीय है। हर साल 28 से 30 अप्रैल तक मनाए जाने वाले इस मेले का स्वरूप अब बदल गया है। मेले में अब मात्र एक ही देवता गौहरी देव आते हैैं। जबकि व्यापारिक व सांस्कृतिक ²ष्टि से भी मेले का स्तर गिर गया है।
एक दौर था जब लोग गाय, बछड़ों सहित खेतों में हल चलाने के लिए बैलों की जोडिय़ां इस मेले से खरीदते थे। आज गाय आदि की खरीदारी के लिए गिने चुने लोग आते हैं तो बैलों का काम ट्रैक्टरों और पावर ट्रिलरों ने खत्म कर दिया। ऊपर से नगर परिषद ने भी पशु मैदान को और बेहतर बनाने के बजाय इसे कम कर दिया है। कुछ ठेकेदारों और दुकानों को भवन निर्माण सामग्री, ईंट पत्थर, टायर आदि रखने के लिए यह मैदान दे दिया गया है। नगर परिषद के इस कारनामे से भी लोग हैरान हैं। मेले का स्तर गिर जाने से लोग भी नहीं जुट पा रहे हैं ऊपर से महंगाई ने कारोबारियों की कमर तोड़ दी है। एक दौर में पूरा ढालपुर मैदान कारोबारियों से पटा रहता था अब अधिकतर प्लाट महंगाई के चलते खाली हैं।
-रोशन ठाकुर, कुल्लू

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