महाराज जी साकार रूप में हमारे भगवान : इलीशा दीप गर्ग
औद्योगिक नगरी की कथक नृत्यांगना इलीशा दीप गर्ग ने कथक सम्राट पंडित बिरजू महाराज से कथक नृत्य की बारीकियां सीखी और उनकी प्रिय शिष्यों में से एक रही हैं।
सुशील भाटिया, फरीदाबाद
औद्योगिक नगरी की कथक नृत्यांगना इलीशा दीप गर्ग ने कथक सम्राट पंडित बिरजू महाराज से कथक नृत्य की बारीकियां सीखी और उनकी प्रिय शिष्यों में से एक रही हैं। दैनिक जागरण से बातचीत में इलीशा दीप गर्ग ने कहा कि मैं 2005 में 10 वर्ष की थी, जब कथक सीखने के लिए उनके पास पहुंची थी। डेढ़ दशक से अधिक समय तक उनका मुझे उनका सान्निध्य मिला। उनको हमेशा कहा करती थी कि मैं समझ ही नहीं पाती कि कथक से इतना प्यार करती हूं कि जिस कारण महाराज जी प्रेम करती हूं या महाराज जी को इतना प्यार करती हूं कि कथक से इतना लगाव हो गया। इस पर महाराज जी मुस्कुरा कर सिर पर हाथ रख आशीर्वाद देते थे। कहने का अभिप्राय यह है कि कथक और महाराज जी एक-दूसरे के पर्याय थे। गायन, वादन, नृत्य संगीत की तीनों ही विधाओं के जादूगर। जब भी उनसे मिलती तो पूछते कि मेरे लिए खाने में क्या लाई हो। उन्हें खाने में चाट पकौड़ी सहित हर वो तली, मसालेदार चीजें पसंद थी, जिसके लिए डाक्टर उन्हें मना करते थे। एक सप्ताह पहले ही उनसे मिली थी, तब उनसे बंदिशों पर बात हुई। रविवार रात को ही उनसे वीडियो काल पर बात हुई थी, तब भी उन्होंने यही कहा कि मैं डायलिसिस से थोड़ा परेशान हूं, फिर हंसी ठिठौली पर उतर आते। फिर कहा कि कब आओगी, क्या लाओगी। हमारे कथक जगत के भगवान तो वही हैं। मंच पर चढ़ने से पहले उनके नाम का ध्यान करते हैं। जब भी हम कहीं प्रस्तुति देने जाते थे और उनसे शिकायत करते थे कि महाराज जी आप आए ही नहीं। इस पर कहते थे कि मैं तुम्हारे आसपास ही था। एक कार्यक्रम में प्रस्तुति से पहले उनसे बात नहीं हो पाई, तो उनका बाद में फोन आया कि मेरे से तो बात ही नहीं की, तब मैंने कहा कि महाराज जी आप ही तो कहते हो कि मैं अपने शिष्यों के साथ हर जगह पर हूं, आपका ध्यान किया और आप सामने थे। यह जवाब सुनकर महाराज जी मुस्कुरा दिए। महाराज जी हमारे साकार रूप में भगवान थे। उनके घर पर और कला आश्रम में पूरे घर जैसे माहौल में तालीम मिली। उनकी विधाओं का दायरा इतना बड़ा है कि एक फ्रेम में समेटना संभव ही नहीं है। आज उनकी अंतिम विदाई के समय हम सब शिष्य वहां पर मौजूद थे,एक एक और जहां पंडित जी मंत्रोच्चारण कर रहे थे, तो हम सबने ताल देकर, बोल-पढ़न और उनकी बनाई बंदिशें गाकर विदा किया। अब तो हमारी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि जब भी हम मंच पर प्रस्तुति दें तो हमारे घुंघरू की झंकार महाराज जी तक पहुंचती रहे।