हिंदी फिल्मों का एक भूला-बिसरा अध्याय

बहुत कम लोग जानते हैं कि एक साल से भी कम समय के लिए मुंबइया फिल्मों से जुड़ने वाले प्रेमचंद ने 1934 में मजदूर उर्फ मिल नाम की जिस फिल्म की पटकथा लिखी उसकी नायिका थी बिब्बो। उनका असली नाम था इशरत सुल्ताना। इशरत सुल्ताना का जन्म पुरानी दिल्ली के चावड़ी बाजार के समीपवर्ती इशरताबाद इलाके में हुआ था। उनकी मां हफीजन बाई कोठे पर नाचने-गाने वाली तवायफ थीं।

By Edited By: Publish:Sun, 22 Apr 2012 12:16 PM (IST) Updated:Sun, 22 Apr 2012 12:16 PM (IST)
हिंदी फिल्मों का एक भूला-बिसरा अध्याय

बहुत कम लोग जानते हैं कि एक साल से भी कम समय के लिए मुंबइया फिल्मों से जुड़ने वाले प्रेमचंद ने 1934 में मजदूर उर्फ मिल नाम की जिस फिल्म की पटकथा लिखी उसकी नायिका थी बिब्बो। उनका असली नाम था इशरत सुल्ताना। इशरत सुल्ताना का जन्म पुरानी दिल्ली के चावड़ी बाजार के समीपवर्ती इशरताबाद इलाके में हुआ था। उनकी मां हफीजन बाई कोठे पर नाचने-गाने वाली तवायफ थीं।

इशरत सुल्ताना के आरंभिक जीवन के बारे में बहुत-सी बातें अज्ञात हैं या विवादास्पद हैं, जैसे कि उनका जन्म कब हुआ, उनके पिता का क्या नाम था और उनका नाम बिब्बो किसने रखा? प्रामाणिक स्त्रोतों के अनुसार उनकी पहली फिल्म 1933 में बनी मायाजाल थी। बिब्बो बहुत जल्दी हिंदी सिनेमा की प्रमुख अभिनेत्री बन गई। मायाजाल फिल्म की निर्देशक थी शांति दवे और निर्माता थे अजंता सिनेटोम कंपनी के मालिक मोहन भवनानी। मोहन भवनानी ने ही प्रेमचंद को मुंबई बुलाया और उनके साथ पटकथाएं लिखने का अनुबंध किया और उनकी मजदूर फिल्म का निर्देशन भी किया। बिब्बो ने प्रेमचंद जैसे मूर्धन्य कथाकार की पहली और एकमात्र फिल्म में नायिका की भूमिका अदा की और वह हिंदी फिल्मों की पहली महिला संगीत निर्देशक भी थीं।

उत्कृष्ट अभिनय के लिए उन्हें पहला सम्मान भारत में नहीं, पाकिस्तान में मिला था निगार नामक सम्मान। आमतौर पर माना जाता है कि अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दन बाई मुंबइया फिल्मों की पहली महिला संगीत निर्देशक थीं, लेकिन सच्चाई यह है कि बिब्बो ने उनसे एक वर्ष पहले 1934 में अदले-जहांगीर फिल्म का संगीत निर्देशन किया था। बिब्बो ने 1937 में एक और फिल्म कज्जाक की लड़की में भी संगीत दिया था। अगर फिल्मों की संख्या के आधार पर तुलना करें तो जद्दन बाई निश्चय ही बिब्बो से आगे थीं। उन्होंने 1936 में ह्दय मंथन, मैडम फैशन और 1937 में जीवन स्वप्न, मोती का हार में संगीत दिया।

बिब्बो को घुट्टी में संगीत मिला था और फिल्मों में आते ही उन्होंने गाना शुरू कर दिया। हालांकि उस समय सारी अभिनेत्रियां गाती थीं, क्योंकि हिंदी फिल्मों में पा?र्श्व गायन शुरू नहीं हुआ था। 1930 और 1940 के दशक के हिंदी फिल्मों में बिब्बो के गानों को याद करते हैं। अभिनेत्री के रूप में फिल्म मजदूर में बिब्बो ने आदर्शवादी मिल मालकिन की भूमिका अदा की थी जिसका नाम था पद्मा। इसमें कपड़ा मिलों के शोषित मजदूरों के जीवन का यथार्थ चित्रण था जिसमें व्यापक रूप से प्रेमचंद के आदर्शवाद की पूरी छाप थी।

उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि अगर मालिक उदार, दयालु और मजदूरों का हितचिंतक हो तो न केवल मजदूर ख़ुश रहते हैं, बल्कि वे मेहनत भी ज्यादा करते हैं। इसके विपरीत अगर मजदूरों पर अत्याचार किया जाए तो वे मालिकों से झगड़ा करते हैं और हड़तालें करते हैं। इस सुखांत फिल्म की शूटिंग एक मिल में की गई थी। भारतीय फिल्मों के इतिहास में इस तरह की लोकेशन शूटिंग पहली बार की गई थी, क्योंकि तब स्टूडियो में सेट लगाकर ही शूटिंग होती थी।

फिल्म मजदूर की कहानी संक्षेप में यह है कि एक बहुत ही सज्जन और दयालु मिल मालिक था जिसकी मृत्यु होने पर उसकी बेटी पद्मा और बेटा विनोद मिलकर मिल को चलाने लगते हैं। दोनों के चरित्र और स्वभाव में जमीन-आसमान का अंतर है। पद्मा अपने पिता के समान बड़ी दयालु, उदार और मजदूरों के हितों का ध्यान रखने वाली है, लेकिन विनोद आवारा, शराबी और अत्याचारी है। वह मजदूरों की उपेक्षा ही नहीं करता, बल्कि उनके साथ निर्मम व्यवहार भी करता है जिस कारण वे हड़ताल कर देते हैं।

पद्मा अपने एक मित्र कैलाश के साथ उन मजदूरों के आंदोलन का नेतृत्व करती है। यह देखकर विनोद को ग़ुस्सा आता है और वह पद्मा की पिटाई करता है। मामला पुलिस के पास जाता है और विनोद को जेल की सजा हो जाती है। मिल को फिर से चालू करने और मजदूरों को काम पर वापस लाने के लिए आखिर में गांव की पंचायत के सरपंच को बुलाया जाता है और वह दोनों पक्षों में समझौता कराता है। पद्मा के अनुरोध पर मजदूर फिर से काम पर आ जाते हैं और वह अपने पिता के समान मिल को फिर से बड़ी कुशलता से चलाने लगती है। बाद में उसकी अपने मित्र कैलाश से शादी हो जाती है।

फिल्म में विनोद की भूमिका एसबी नायमपल्ली ने अदा की थी और कैलाश की भूमिका जयराज ने। फिल्म के कुछ अन्य प्रमुख अभिनेता थे ताराबाई (कैलाश की मां) खलील आफ्ताब (मिल का मैनेजर) अमीना अन्नबी (कामकाजी औरत) और एसएल पुरी (मिल का फोरमैन)। मोहन भवनानी की इच्छा थी कि प्रेमचंद भी फिल्म में अभिनय करें, लेकिन उन्होंने पहले तो इनकार किया, लेकिन जब भवनानी ने बार-बार आग्रह किया तो वह इस शर्त पर राजी हुए कि मैं घुटनों तक ऊंची साधारण धोती और कुर्ता पहनूंगा। दो-तीन मिनट की छोटी-सी भूमिका में प्रेमचंद को अपने दैनंदिन जीवन जैसा अभिनय करना था फिर भी उनका अभिनय बहुत अच्छा रहा।

अन्य अभिनेता इतने बड़े लेखक के साथ काम करके वैसे ही बड़े ख़ुश थे। जब उन्होंने उन्हें अपने बीच एक अभिनेता के रूप में पाया तो और भी गर्व का अनुभव करने लगे। प्रेमचंद ने अपने एक पत्र में लिखा था कि सारे कर्मचारी और अभिनेता मेरी बहुत इज्जत करते हैं।

मजदूर फिल्म की सिनेमैटोग्राफी बी. मित्रा ने की थी और उसके संगीत निर्देशक थे बीएस हूगन। फिल्म की कहानी को पूरी तरह से प्रेमचंद की कहानी नहीं कहा जा सकता। उन्होंने केवल अजंता सिनेटोन द्वारा सुझाए कथाबिंदुओं को ही अपनी पटकथा में ढाला था और इसके संवाद लिखे थे। मजदूर फिल्म मजदूरों की समस्याओं को उजागर करने वाली सामाजिक फिल्म थी।

फिल्म के पटकथा और प्रिंट अब गायब हो चुके, लेकिन प्राप्त तथ्यों से ज्ञात होता है कि उस जमाने में उसकी काफी चर्चा हुई थी और एशिया नामक प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रिका तक में उसका रिव्यू छपा। इस फिल्म की प्रसिद्धि के कई कारण थे जैसे एक तो यह प्रेमचंद की कहानी पर बनी थी जिसमें उन्होंने अभिनय भी किया था। दूसरे इसमें मिल मालिकों का अत्याचार दिखाया गया था जिससे उत्साहित होकर अनेक स्थानों के मजदूरों ने उद्योगपतियों के विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया था।

इससे अनेक प्रभावशाली उद्योगपति नाराज हो गए थे जिन्होंने अंग्रेज सरकार पर दबाव डालकर देश के अनेक प्रांतों के सेंसर बोर्डो से इस फिल्म पर प्रतिबंध लगवा दिया था। इससे इसका और भी प्रचार हुआ और दिल्ली जैसे जिन थोड़े-से स्थानों में यह प्रदर्शित हुई वहां के सिनेमाघरों के बाहर दर्शकों की भीड़ लगी रहती। बिब्बो की उन दिनों बड़ी मांग थी।

फिल्मी दुनिया में एक बार यह अफवाह उड़ी थी कि बिब्बो ने सर शाहनवाज भुट्टो से गुप्त विवाह कर लिया है। सर शाहनवाज भुट्टो अविभाजित भारत की जूनागढ़ रियासत के दीवान हुआ करते थे, बाद में उनके पुत्र ज़ुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। उस जमाने में बिब्बो के बेहद महंगे वस्त्रों और जूतों की भी ख़ूब चर्चा होती थी। वह हिंदी फिल्मों की ऐसी अकेली नायिका थी जिनकी पोशाकों और सैंडिलों पर हीरे के नगीने जड़े होते थे। बढि़या कपड़ों और जूतों के साथ-साथ बिब्बो को रूमाल जमा करने का बड़ा शौक था। वह घुड़दौड़ देखने और घोड़ों पर पैसा लगाने की भी शौकीन थी।

फिल्मी जीवन के आरंभिक वर्षो में बिब्बो का खलील सरदार नाम के एक सुंदर युवा अभिनेता से प्यार हो गया था और वह उससे शादी करके लाहौर चली गई। शादी का जश्न मनाने के लिए 1937 में उन दोनों ने वहां कज्जाक की लड़की नामक फिल्म बनाई, लेकिन वह पिट गई। इससे उनका रोमांस तो ठंडा हुआ ही, उनकी शादी भी टूट गई। टूटे दिल के साथ बिब्बो वापस मुंबई आ गई और फिल्मों में काम करने लगी। उनकी चर्चित फिल्मों के नाम हैं-वासवदत्ता, गरीब परवर, मनमोहन, जागीरदार, डायनामाइट, ग्रामोफोन सिंगर, प्यार की मार, शाने-ख़ुदा, सागर का शेर, बड़े नवाब साहिब, नसीब और पहली नजर।

पहली नजर वही फिल्म है जिसमें मुकेश ने पार्शव गायक के रूप में पहला गाना गाया था-दिल जलता है तो जलने दे । भारत में बिब्बो की आखिरी फिल्म थी 1947 में बनी पहला प्यार जिसका निर्देशन एपी कपूर ने किया था। वर्ष 1950 में बिब्बो भारत को हमेशा के लिए छोड़कर पाकिस्तान चली गई और वहां की फिल्मों में काम करने लगीं। वहां उसी साल उन्होंने अपनी पहली पाकिस्तानी फिल्म शम्मी में अभिनय किया। यह फिल्म पंजाबी में थी। पाकिस्तान में बिब्बो की बहुत-सी फिल्में चर्चित हुई जिनमें से कुछ के नाम हैं-दुपट्टा, गुलनार, नजराना, मंडी, कातिल, कुंवारी बेवा, जहर-ए- इश्क, सलमा, गालिब और फानूस। फानूस में उन्होंने प्रसिद्ध पाकिस्तानी अभिनेता आजाद के साथ सराहनीय अभिनय किया, लेकिन फिल्म चली नहीं।

अलबत्ता गालिब फि ल्म में उनके अभिनय की सभी फिल्म समीक्षकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। वर्ष 1958 में जहर-ए-इश्क फिल्म में उत्कृष्ट अभिनय के लिए उन्हें निगार सम्मान प्राप्त हुआ था। बिब्बो की आखिरी पाकिस्तानी फिल्म थी 1969 में बनी बुजदिल। जीवन के अंतिम वर्षो में बिब्बो घोर आर्थिक संकटों में पड़ गई थी और उनके सारे मित्र और चाहने वाले उन्हें छोड़ गए थे। किसी जमाने में लाखों दिलों की धड़कन और अद्वितीय सुंदरी मानी जाने वाली इस कलाकार का वर्ष 1972 में बड़ा दुखद अंत हुआ।

- डॉ. गौतम सचदेव

(लेखक बीबीसी के पूर्व प्रसारक हैं)

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