दरअसल: कामवासना का चित्रण नया नहीं है, नया है औरतों का नजरिया

’चेतना' के पोस्टर में रेहाना सुल्तान की नंगी टांगों का इस्तेमाल हुआ था। बीआर इशारा, सावन कुमार टाक आदि ने अपनी फिल्मों में स्त्रियों की सेक्सुअलिटी से दर्शकों को चौंकाया था।

By Manoj VashisthEdited By: Publish:Thu, 28 Jun 2018 12:40 PM (IST) Updated:Thu, 28 Jun 2018 12:40 PM (IST)
दरअसल: कामवासना का चित्रण नया नहीं है, नया है औरतों का नजरिया
दरअसल: कामवासना का चित्रण नया नहीं है, नया है औरतों का नजरिया

-अजय ब्रह्मात्मज

इन दिनों ‘लस्ट स्टोरीज' की बहुत चर्चा है। यह एक पॉपुलर वीडियो स्ट्रीमिंग सर्विस प्लेटफार्म पर उपलब्ध है। अनुराग कश्यप, जोया अख्तर, दिबाकर बनर्जी और करण जौहर ने इसकी चार कहानियों को निर्देशित किया है।इन चारों ने ही पिछली बार भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे होने के मौके पर ‘बांबे टाकीज' का निर्देशन किया था, उसमें सिनेमा और समाज के रिश्ते के विभिन्न पहलुओं को समेटा गया था। इस बार की थीम है लस्ट यानी कामवासना। हिंदी में इसके लिए कामुकता, हवस, यौन आकर्षण आदि शब्दों का इस्तेमाल होता है। गौर करें तो हिंदी फिल्मों ने इस विषय से कभी परहेज नहीं किया। हाँ, इसे दबे-ढके या किसी और बहाने और तरीके से दिखाते रहे हैं।

आरम्भ से ही हिंदी फिल्में प्रेम के इर्द-गिर्द ही बुनी जाती रही हैं। फ़िल्में किसी भी विषय पर रही हों, उनमें प्रेमकहानी की अनिवार्यता बनी रही है और प्रेम का ज़रूरी तत्त्व आकर्षण (यौनाकर्षण) यानी लस्ट है। पहले यह पुरुषों के दृष्टिकोण और आँखों से देखा जाता रहा है। अब औरतें मुखर हुई हैं… अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर. पिछले कुछ सालों में इस पहलू की अनेक फ़िल्में आई हैं। सभी फिल्मों की सराहना और तारीफ हुई। स्त्री शरीर की ज़रूरतों को उनके ही दृष्टिकोण से रखने की कोशिश में अनेक वास्तविक और दबी कहानियां फिल्मों के जरिये सामने आयीं।

ससमाज का पाखंड भी उजागर हुआ पैन नलिन की ‘एंग्री इंडियन गॉडसेस’ (2015), लीना यादव की ‘पार्च्ड’ (2016), अलंकृता श्रीवास्तव की ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' (2017) और शशांक घोष की ‘वीरे दी वेडिंग’ (2018) में स्त्री चरित्रों को सेक्सुअली एक्टिव और पहल करते दिखाया गया है। उसी सोच का कमज़ोर विस्तार है ‘लस्ट स्टोरीज'। स्त्रियों की प्रमुख भूमिका और उनकी कामुकता पर फोकस करने के बावजूद बड़े फ़िल्मकार कोई अलग, बड़ा और सैद्धांतिक पक्ष नहीं रख पाते। दिबाकर बनर्जी की फिल्म का कैनवास संकुचित और दोहराया हुआ है।

अनुराग कश्यप की फिल्म कायदे से नायिका को गढ़ने और उसकी बात रखने में विफल रहती है। करण जौहर आदतन चौंकाने की मुद्रा में हैं। अगर यह फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग' के पहले आ गयी होती तो वे खुद अपनी पीठ थपथपाते कि उन्होंने सबसे पहले ‘वाइब्रेटर' की उपयोगिता दिखाई। हाँ, जोया अख्तर ने मध्यवर्गीय यौन विसंगति को सामाजिक सन्दर्भ दिया है। इन सभी फिल्मों में चौंकाने की प्रवृति दिखाई देती है। स्त्री शरीर की यौन आकांक्षा की मनःस्थिति की गहराई में ये फ़िल्में नहीं उतरतीं। फिर भी इन सभी फिल्मकारों की तारीफ की जा सकती है कि उन्होंने वर्जित विषय को मुख्यधारा की फिल्मों में जगह दी।

 

दरअसल, हिंदी फिल्मों के गानों को पढ़ने के बजाय सुनें तो गीतों की पंक्तियों में काम (सेक्स) की इच्छा खुले-ढके ढंग से व्यक्त होती रही है। अधिकांश प्रेमगीतों में मिलन की आतुरता और एक होने की तमन्ना जाहिर होती है। ’मोरा गोरा अंग लई ले', ’मोरे अंग लग जा बालमा’, ’काटे नहीं कटते दिन और रात' से लेकर हनी सिंह और बादशाह के गानों तक में कामुकता की गूँज सुनी जा सकती है। फिल्मों के दृश्यों में भी हीरो-हीरोइन के चुम्बन, आलिंगन और हमबिस्तर होने में फ़िल्मकार का संकेत इसी कामुकता की तरफ होता है। हाँ,समर्थ और संवेदनशील फ़िल्मकार प्रेम के अन्तरंग दृश्यों को शालीनता से दिखाते हैं तो कुछ हीरोइनों को सीधे कहना पड़ता है ‘सेक्सी सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोलें'।

 

इधर के फिल्मकारों की फिल्मों में स्त्री-पुरुष संबंधों के चित्रण में खुलेपन के साथ परिष्कार आया है। अब हीरो-हीरोइन आलिंगन करते हैं तो सीने पर हीरोइन का हाथ नहीं रहता। उदाहरण के लिए शशांक खेतान की फिल्म ‘धड़क' के पोस्टर और ट्रेलर ही देख लें। भारतीय साहित्य और ग्रथों में सदियों से सेक्स का विवरण मिलता है। कामशास्त्र लिखे जाने से लेकर हिंदी साहित्य में रीति काल की श्रृंगारपरक कविताओं तक में स्त्री के रूप, प्रेम और यौन इच्छाओं का विस्तृत वर्णन मिलता है। नायिका के प्रकार और अभिसार का उल्लेख मिलता है। भारतीय साहित्य में तो ‘सुरतितोत्सव' के प्रसंग हैं, जहाँ पिया से मिल कर आई नायिकाएं अपनी रति का बखान करती हैं।

फिल्मों की बात करें तो ‘मुगलेआज़म' में मधुबाला के चेहरे को पंख से सहलाने के दिलीप कुमार के दृश्य को अत्यंत श्रेष्ठ श्रृंगारिक और रोमांटिक माना जाता है। बी आर इशारा, सावन कुमार टाक आदि ने अपनी फिल्मों में स्त्रियों की सेक्सुअलिटी से दशकों पहले दर्शकों को चौंकाया था। ’चेतना' के पोस्टर में रेहाना सुल्तान की नंगी टांगों का इस्तेमाल हुआ था। आठवें और नौवें दशक में पैरेलल सिनेमा के फिल्मकारों ने स्त्रियों की सेक्सुअलिटी और विवाहेत्तर संबंधों पर ढेर सारी फ़िल्में बनायीं। उनमें उस दौर के समाज और दर्शकों की रूचि के अनुसार थोड़ी पर्देदारी रहती थी। 21वीं सदी के फिल्मकारों ने उस परदे को हटा दिया है। अब वे स्त्रियों की पहल को रेखांकित कर रहे हैं। स्त्रियों के नज़रिए से भी सेक्स चित्रण कर रहे हैं। यह एक बड़ा बदलाव है।

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