कितनी आजाद सोच हैं बॉलीवुड सितारों की..

सबसे बड़ी आजादी है विचारों को खुलकर अभिव्यक्त करने की आजादी। यह हमारा मौलिक अधिकार है और इसी से कार्यशील होता है हमारा सिनेमा। विचारों को मुखरता से अभिव्यक्त करते हुए समाज में बदलाव के प्रवर्तक की भूमिका निभाता है सिनेमा। यह उसकी जिम्मेदारी भी है, फिर क्यों जाहिर तौर पर किस

By Edited By: Publish:Fri, 16 Aug 2013 05:49 PM (IST) Updated:Fri, 16 Aug 2013 07:15 PM (IST)
कितनी आजाद सोच हैं बॉलीवुड सितारों की..

मुंबई। सबसे बड़ी आजादी है विचारों को खुलकर अभिव्यक्त करने की आजादी। यह हमारा मौलिक अधिकार है और इसी से कार्यशील होता है हमारा सिनेमा। विचारों को मुखरता से अभिव्यक्त करते हुए समाज में बदलाव के प्रवर्तक की भूमिका निभाता है सिनेमा। यह उसकी जिम्मेदारी भी है, फिर क्यों जाहिर तौर पर किसी व्यक्ति व आंदोलन से प्रेरित होने की बात स्वीकारने या किसी अन्य मामले पर सीधे किसी व्यक्ति को निशाना बनाने से बचना चाहते हैं फिल्मकार। क्या यहां सेंसर बोर्ड से जुड़ी मजबूरी होती है या फिर विचारों की आजादी की वकालत करने के बावजूद सुरक्षित गेम खेलने में यकीन रखते हैं फिल्मकार। इस संबंध में अपने विचार साझा कर रहे हैं फिल्मकार -

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रिस्क फैक्टर हुआ कम

सुजॉय घोष

अभिव्यक्ति की आजादी हमारा मूल अधिकार है। संविधान ने हमें यह हक दिया है। फिर भी इसका चरम उपयोग कम होता रहा है। फिल्मकार विवादास्पद विषय को बैकड्रॉप में रखते हैं, पर उसका सीधा उल्लेख करने से कतराते हैं, क्योंकि उस पर राजनीति शुरू हो जाती है। फिल्म को सेंसर बोर्ड से अप्रूवल मिल चुका होता है, उसके बाद भी ऐसा होता है। 'विश्वरूपम' या वैसी अन्य फिल्मों के साथ वही हश्र हुआ। चंद राजनीतिक दलों की मनमानी ने पूरे वाकये का राजनीतिकरण कर दिया। फिल्म को लाखों-करोड़ों रुपए का नुकसान हुआ। 'चक्रव्यूह' में गानों के बोल से 'अंबानी हो या बाटा' हटाना पड़ा। इतना सब कुछ होने के बावजूद सेंसर के लचीले रवैये से हर मुद्दे पर फिल्में रही हैं। फिल्मकारों को भी उन मुद्दों में ज्यादा ड्रामा दिखने लगा है। स्टार भी हार्ड-हिटिंग फिल्मों में दिलचस्पी लेने लगे हैं। लिहाजा हम कह सकते हैं कि आगे आने वाले समय में हर मुद्दे पर फिल्में बनाना शुरू करेंगे। सरकार को चाहिए वह सेंसर बोर्ड की स्वायत्ता पर किसी किस्म की रोक न लगाए।

संतुलन साधना जरूरी है

प्रकाश झा

फिल्म का काम है समस्या को उजागर करना न कि समाधान बताना। कोई फिल्मकार समाधान कैसे बता सकता है। वह समाधान बताने की कोशिश करेगा तो वहीं से उसके लिए दिक्कतें शुरू हो जाती हैं। उस पर बनी फिल्मों पर विवाद के बादल घिरना तय होता है। मसलन, नक्सलवाद को ही लें। एक ऐसी समस्या का जिसकी चपेट में देश के 250 जिले आते हों, उसका कोई एक समाधान एक झटके में कैसे दिखाया जा सकता है? क्रिएटिव लिबर्टी के साथ-साथ संतुलन साधना जरूरी है, वरना आपकी अभिव्यक्ति पर प्रहार होना तय है। नक्सलवाद में मैंने जमीनी रिसर्च को ही अपनी फिल्म 'चक्रव्यूह' की कहानी में पिरोने की कोशिश की। मसलन, नक्सलों की सबसे बड़ी आमदनी वसूली से आती है, पुलिस के फेक एनकाउंटर से लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के सलवा जुडूम के गठन तक की कहानी फिल्म के नैरेटिव को कहीं न कहीं इंस्पायर करती है। साथ ही इस फिल्म में गरीब और अमीर के बीच बढ़ती जा रही खाई की वजह से जो हिंसक विचारधारा पनप रही है, उसकी भी बात की गई है। उदाहरण सबके सामने था, फिल्म की रिलीज में कोई प्रॉब्लम नहीं आई।

जोखिम उठाना स्वीकार है

शुजीत सरकार

अन्य फिल्मकारों का तो पता नहीं, पर मैं तो अपनी फिल्म में सच्ची घटनाओं से प्रेरित होने की बात स्वीकार करने का जोखिम उठा रहा हूं।

-मद्रास कैफे में मैंने एक संवेदनशील मुद्दे को उठाया है। उसमें श्रीलंका में सिविल वॉर से लेकर एलटीटीई, प्रभाकरण का जिक्र है। हम श्रीलंका और सिविल वार की चीजें न्यूज में देखते रहते थे। कुछ वीडियो और इमेज हमारे पास पहले से थे। लगातार इनोसेंट लोग मारे जा रहे थे। इस ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करना हमें जरूरी लगा। यह कहानी कहने का मन सालों पहले से था। फिल्म का विचार था, उसे स्क्रिप्ट में बदलने और इस तरह दर्शकों के सामने लाने में हमें करीब सात साल लगे। ऐसे प्रयास बहुत जरूरी है।

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वर्जनाएं अब तक टूटी नहीं हैं

तिग्मांशु धूलिया

हमारे यहां की सोसायटी अभी भी हर मामले में ओपन नहीं है। आज भी ऑनर किलिंग, कास्ट पॉलिटिक्स जैसी चीजें देखने को मिलती हैं। एक्स्ट्रा मैरिटल रिश्ते असल में तो बन रहे हैं, पर उसे पर्दे पर उन्हें देखने व स्वीकारने में हिचक होती है। दर्शकों की उस सोच के अनुसार ही यहां का सेंसर बोर्ड काम करता है। नतीजतन फिल्मकार एब्सल्यूट लिबर्टी नहीं ले सकते। अब मुझे ही देख लीजिए, मैं एक बड़ी फिल्म करना चाहता हूं 'बेगम समरू'। मैं चाह रहा हूं कि उसके लिए इंटरनेशनल फंडिंग करवाऊं और बाहर रिलीज करूं। ऐसा इसलिए कि उस फिल्म में सेक्स एलिमेंट बहुत है। यहां से रिलीज करने में बहुत मुश्किल होगी और अगर कोई बड़ी स्टार कास्ट एग्री नहीं होती है तो नए कलाकारों को भी कास्ट कर लूंगा ताकि पिक्चर बनाने में सुविधा होगी। यहां बनाऊं और रिलीज करूं तो पिक्चर वह बन नहीं पाएगी, जो होनी चाहिए। इस किस्म की समस्या फिल्मकारों को दूसरे सेंसेटिव व विवादास्पद मुद्दों को लेकर फिल्म बनाने में होती है, इसलिए उन्हें मजबूरन किसी सेफ सब्जेक्ट पर फिल्म बनानी पड़ती है या संबंधित इश्यू केवल बैकड्रॉप में रहता है। उसके जरिए दोस्तों व बाप-बेटे के रिश्ते की कहानी कहनी पड़ती है।

[दुर्गेश सिंह/अमित कर्ण]

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