संतुलन की कवायद

उत्तराखंड में पांच साल बाद जोरदार तरीके से सत्ता में वापसी करने वाली भाजपा नेतृत्व संतुलन साधने के मामले में काफी हद तक सफल रहा।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 20 Mar 2017 02:31 AM (IST) Updated:Mon, 20 Mar 2017 02:37 AM (IST)
संतुलन की कवायद
संतुलन की कवायद

कहा जा सकता है कि भाजपा नेतृत्व मंत्रिमंडल गठन में संतुलन साधने के मामले में तो काफी हद तक सफल रहा। अगर बात की जाए क्षेत्रीय संतुलन की तो गढ़वाल, कुमाऊं और मैदानी क्षेत्र को पर्याप्त तवज्जो दी गई।

उत्तराखंड में पांच साल बाद जोरदार तरीके से सत्ता में वापसी करने वाली भाजपा के लिए मंत्रिमंडल गठन में संतुलन साधना एक बड़ी चुनौती थी। संतुलन भी कई तरह का, मसलन क्षेत्रीय, जातीय, गुटीय और युवाओं व महिलाओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्व। यह काम इसलिए भी मुश्किल था क्योंकि सूबे में मुख्यमंत्री समेत अधिकतम बारह ही मंत्री हो सकते हैं। इसके बावजूद कहा जा सकता है कि भाजपा नेतृत्व संतुलन साधने के मामले में तो काफी हद तक सफल रहा। अगर बात की जाए क्षेत्रीय संतुलन की तो गढ़वाल, कुमाऊं और मैदानी क्षेत्र को पर्याप्त तवज्जो दी गई। गढ़वाल के हिस्से चार मंत्री पद आए तो कुमाऊं को दो मंत्री पद मिले। मुख्यमंत्री समेत मंत्रिमंडल में चार स्थान मैदानी क्षेत्र को दिए गए। जातीय संतुलन के लिहाज से भाजपा की कवायद कामयाब रही। टीम त्रिवेंद्र में चार स्थान ब्राह्मण विधायकों को मिले तो इतने ही राजपूत मंत्री भी बनाए गए। यही नहीं, अनुसूचित जाति के दो विधायकों को भी मंत्रिमंडल में जगह मिली। पार्टी के भीतर के गुटीय संतुलन को भी साधने की कोशिश साफ नजर आई। पार्टी के सभी बड़े दिग्गजों को संतुष्ट करने की कोशिश की गई। अलबत्ता इतना जरूर कहा जा सकता है कि कांग्रेस से भाजपा में आए नेताओं को जिस तरह मंत्रिमंडल में पचास फीसद स्थान दे दिए गए, उससे पुराने भाजपाइयों को खासा झटका लगा। इस फेर में कई पूर्व मंत्री और कई-कई बार के विधायकों का नंबर कट गया मगर इसे सियासी मजबूरी कहा जा सकता है। वैसे अभी मंत्रिमंडल में दो स्थान रिक्त हैं और बहुत संभव है कि भविष्य में जब इन्हें भरा जाए तो इस तरह की शिकायत भी शायद कुछ कम हो जाएगी। मंत्रिमंडल में ठीकठाक संतुलन बनाकर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने पहली चुनौती तो सफलतापूर्वक पार कर ली मगर असल चुनौती तो अब सामने आएगी। उत्तराखंड ने जिस तरह भाजपा को एकतरफा जनादेश दिया है, उससे नई सरकार के प्रति जनता की अपेक्षाओं में बढ़ोतरी भी स्वाभाविक मानी जा सकती है। राज्य गठन के सोलह साल बाद पहली बार उत्तराखंड में इस तरह की सरकार आई है जो पूर्ण बहुमत में है और जिसे अल्पमत में होने के कारण किसी तरह की जोड़तोड़ और समझौता नहीं करना पड़ेगा। मतलब साफ है, अब सरकार के तमाम फैसले जनहित से जुड़े होने चाहिए और दलगत राजनीति के कारण इनमें अडग़ा लगने की कोई संभावना नहीं है। अब यह देख दिलचस्प रहेगा कि नई भाजपा सरकार जन आकांक्षाओं पर कितना खरा उतरती है।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]

chat bot
आपका साथी