समय पर न्याय पाने के लिए मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता संबंधी कानून का निर्माण वक्त की जरूरत

न्यायपालिका और विधायिका को वह राह निकालनी चाहिए जिससे अदालतों पर मुकदमों का बोझ समाप्त हो और समय पर न्याय मिलना भी सुनिश्चित हो।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sun, 09 Feb 2020 12:51 AM (IST) Updated:Sun, 09 Feb 2020 12:51 AM (IST)
समय पर न्याय पाने के लिए मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता संबंधी कानून का निर्माण वक्त की जरूरत
समय पर न्याय पाने के लिए मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता संबंधी कानून का निर्माण वक्त की जरूरत

सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे ने मुकदमों से पहले मध्यस्थता को अनिवार्य बनाने के लिए नए कानून की जो जरूरत जताई वह कोई नई बात नहीं है। सच तो यह है कि इसके पहले स्वयं प्रधान न्यायाधीश ने ही पिछले वर्ष इस तरह के किसी कानून की आवश्यकता पर बल दिया था। ऐसा कोई कानून इसलिए आवश्यक हो गया है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार, वाणिज्य और निवेश के कई मामले अदालतों तक पहुंचते हैैं और वे वहां लंबा समय लेते हैं। बेहतर व्यापारिक-औद्योगिक गतिविधि और निवेश के लिए उपयुक्त माहौल के निर्माण के लिए मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता संबंधी कानून का निर्माण वक्त की जरूरत बन गया है और इसे पूरा किया ही जाना चाहिए।

उचित यह होगा कि इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सरकार सक्रिय हो, लेकिन इसी के साथ खुद न्यायपालिका को भी देखना होगा कि उसके स्तर पर मध्यस्थता का निर्वहन कैसे हो सके। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि स्वयं उच्चतर न्यायपालिका के स्तर पर कई ऐसे मामले वर्षों तक खिंचते रहते हैैं, जिनका निस्तारण कहीं अधिक शीघ्रता से हो जाना चाहिए। चूंकि व्यापार, वाणिज्य और निवेश के अदालती मामलों का निपटारा होने में देरी होती है तो इससे न केवल भारतीय न्यायपालिका की छवि प्रभावित होती है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय निवेश संबंधी गतिविधियों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। एक ऐसे समय जब कारोबारी माहौल सुगम बनाने के लिए हर स्तर पर प्रयास हो रहे हैं तब इसका कोई औचित्य नहीं कि मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता के कानून की जो आवश्यकता महसूस की जा रही है उसे प्राथमिकता के आधार पर पूरा न किया जाए।

यह भी समय की मांग है कि सामान्य अदालती मामलों का निस्तारण जल्द करने की कोई प्रक्रिया विकसित की जाए। इससे अधिक निराशाजनक और कुछ नहीं हो सकता कि अदालती मामलों के समयबद्ध निपटारे के लिए एक लंबे अर्से से बातें हो रही हैैं, लेकिन इस दिशा में जितनी तेजी से आगे बढ़ा जाना चाहिए वैसा होता हुआ नजर नहीं आ रहा है। धीमी, थका देने वाली और जटिल अदालती प्रक्रिया का किस तरह दुरुपयोग किया जा रहा है, इसकी ताजा और शर्मनाक बानगी दिल्ली के वसंत विहार दुष्कर्म मामले में देखी जा सकती है।

इस मामले में उच्चतम न्यायालय तक अपना फैसला सुना चुका है, लेकिन गुनहगारों के लिए अदालती विकल्प खत्म होने का नाम नहीं ले रहे हैैं। यह स्थिति तब तक दूर नहीं होने वाली जब तक न्यायिक सुधारों की रफ्तार तेज नहीं की जाती। न्यायपालिका और विधायिका को मिलकर वह राह निकालनी चाहिए जिससे न केवल अदालतों पर मुकदमों का बोझ समाप्त हो, बल्कि लोगों के लिए समय पर न्याय मिलना भी सुनिश्चित हो।

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