भारत में जिहादी सोच के खिलाफ खड़े होने का वक्त, फ्रांस जैसे देशों से लेनी होगी सीख

अशोक गहलोत सरकार अपने राज्य में बढ़ते मजहबी कट्टरवाद की कोई शिकायत सुनने को तैयार नहीं। कन्हैयालाल की हत्या के मामले में उन्होंने स्वयं को जवाबदेह मानने के बजाय प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से ही देश को हिंसा के विरुद्ध संबोधित करने की मांग कर दी।

By Amit SinghEdited By: Publish:Wed, 29 Jun 2022 10:38 PM (IST) Updated:Wed, 29 Jun 2022 10:38 PM (IST)
भारत में जिहादी सोच के खिलाफ खड़े होने का वक्त, फ्रांस जैसे देशों से लेनी होगी सीख
जिहादी कट्टरता को लेकर खड़े होने का वक्त (फाइल फोटो)

अवधेश कुमार: उदयपुर में कन्हैयालाल की गला काटकर की गई हत्या की भयानक घटना से देश उद्वेलित है। यदि कन्हैयालाल को नुपुर शर्मा के पक्ष में एक पोस्ट लिखने के कारण जान गंवानी पड़ी तो उस कट्टर मानसिकता की वजह से, जिससे उसके हत्यारे रियाज अख्तरी और गौस मोहम्मद भरे हुए थे। इस कट्टर सोच के गिरफ्त में न जाने कितने अन्य रियाज और गौस मजहब के नाम पर अनेक कन्हैयालालों का कत्ल करने को तैयार बैठे हैं।

कन्हैयालाल की हत्या कुछ वैसे ही की गई, जैसे फ्रांस में अक्टूबर, 2020 में शिक्षक सैमुअल पैटी की एक चेचेन जिहादी आतंकी ने की थी। उस हत्यारे को बताया गया था कि पैटी ने अपनी कक्षा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लेक्चर देते हुए छात्रों को शार्ली आब्दो में छपे वे कार्टून दिखाए थे, जो पैगंबर मोहम्मद साहब को लेकर बनाए गए थे। इसके बाद पैटी के विरुद्ध उसी तरह अभियान चलाया गया, जैसे नुपुर शर्मा, नवीन कुमार जिंदल और उनके समर्थकों के खिलाफ चलाया जा रहा है। पैटी की हत्या के बाद फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि था हम ऐसे जिहादी आतंक के सामने झुकेंगे नहीं। फिर पूरे फ्रांस में लोगों ने बाहर निकलकर कहा कि हम भी सैमुअल पैटी हैं। हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं हो रहा है।

जो लोग कल तक नुपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल को गुस्ताख-ए -रसूल घोषित कर रहे थे, वे अब कन्हैयालाल की हत्या की निंदा में लग गए हैं। प्रश्न है कि अगर ये सारे लोग इस तरह की वहशी हिंसा के विरोधी हैं तो फिर ऐसी स्थिति पैदा क्यों हुई, जिसमें कन्हैयालाल की बलि चढ़ गई? सच तो यह है कि सिर कलम करने का माहौल बनाने और जिहादी कट्टरता को परवान चढ़ाने के पीछे स्वयं को सेक्युलर-लिबरल मानने वाले उन नेताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, एक्टिविस्टों की भी भूमिका है, जिन्होंने न केवल नुपुर शर्मा प्रकरण को विकृत तरीके से पेश किया, बल्कि लंबे समय से यह प्रचारित करते आ रहे हैं कि भारत में मुसलमानों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है। क्या यह एक तथ्य नहीं कि ज्ञानवापी प्रकरण पर यह शोर मचाया गया कि हमारी सारी मस्जिदें छिन जाएंगी?

टीवी पर बहस में हिंदू देवी-देवताओं के बारे में की गई टिप्पणी की प्रतिक्रिया में कही गई बात को पैगंबर मोहम्मद साहब और इस्लाम के अपमान का इतना बड़ा मुद्दा बना दिया गया कि दुनिया भर में जिहादी सोच वालों को खाद पानी मिल गया। कन्हैयालाल की हत्या के लिए वे भी जिम्मेदार हैं, जो 'गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा, सिर तन से जुदा.. के नारे के साथ सड़कों पर उतरे थे।

अशोक गहलोत सरकार अपने राज्य में बढ़ते मजहबी कट्टरवाद की कोई शिकायत सुनने को तैयार नहीं। हिंदू शोभा यात्राओं पर हमले हुए, लेकिन उनका रवैया बदला नहीं। कन्हैयालाल की हत्या के मामले में उन्होंने स्वयं को जवाबदेह मानने के बजाय प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से ही देश को हिंसा के विरुद्ध संबोधित करने की मांग कर दी। ऐसे रवैये से कट्टरपंथियों का मनोबल बढ़ता है। कुछ समय पहले उदयपुर की तरह लखनऊ में कमलेश तिवारी की हत्या हुई थी। योगी सरकार उसके बाद से ऐसी कार्रवाई कर रही है, जिससे जिहादी तत्वों का मनोबल कमजोर हुआ है। बीते दिनों जुमे की नमाज के बाद सड़कों पर उतर कर की गई हिंसा पर योगी सरकार की कार्रवाई सबके सामने है। राजस्थान और दूसरी सरकारों के लिए यह एक उदाहरण है, लेकिन कोई उसका अनुसरण करने को तैयार नहीं। दुख की बात यह भी है कि भारत के किसी मुस्लिम नेता, बुद्धिजीवी, मौलाना ने नुपुर शर्मा का बचाव नहीं किया। उलटे कथित पत्रकार जुबैर की गिरफ्तारी को मोदी सरकार के मुस्लिम विरोधी सोच का परिचायक बताया। कैसे इन सबकी भूमिका से देश में मजहबी कट्टरता बढ़ी और हमें विध्वंस का शिकार होना पड़ा, इसके कई उदाहरण हैं।

उच्चतम न्यायालय ने अभी गुजरात दंगों के मामले में साफ किया कि उसके पीछे तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके प्रशासन का किसी प्रकार का षड्यंत्र नहीं था, लेकिन पिछले 20 वर्षों से यही दुष्प्रचारित किया गया कि गुजरात सरकार ने जानबूझकर मुसलमानों का संहार कराया। सितंबर 2002 में गांधीनगर के अक्षरधाम पर हुए आतंकी हमले के बाद से अनेक वर्षों तक ऐसे ही हमलों में पकड़े गए आतंकियों का बयान यही होता था कि गुजरात में मुसलमानों के कत्लेआम का बदला लेने के लिए उन्होंने ऐसा किया। बाटला हाउस मुठभेड़ को झूठा करार देने के तमाम जतन किए गए। इस दुष्प्रचार के चलते ही मुस्लिम युवकों के एक समूह ने इंडियन मुजाहिदीन संगठन बनाया और अनेक आतंकी हमले किए।

वास्तव में फ्रांस हमारे सामने एक उदाहरण है, जो अनेक आतंकी हमले झेलने के बावजूद नहीं झुका। वह इसलिए नहीं झुका, क्योंकि वहां की जनता खुलकर जिहादी सोच के विरुद्ध सड़कों पर आई। भारत की समस्या यह है कि विरोध करने वाले इंटरनेट मीडिया पर अपनी भड़ास निकालने तक सीमित हैं। कुछ लोग गुस्से में आकर तोडफ़ोड़ करने लगते हैं। इससे अपनी कट्टर मानसिकता पर लिबरलवाद का चेहरा लगाए लोगों के कुत्सित इरादे ही पूरे होते हैं। फ्रांस के लोगों ने विरोध में हिंसा नहीं की। जब भी आतंकी हमले हुए, वे साहस के साथ सड़कों पर उतरे, अहिंसक प्रदर्शन किया। यही भारत में किए जाने की जरूरत है। अहिंसक आक्रोश प्रदर्शनों के द्वारा जिहादी तत्वों और उनके समर्थकों का प्रतिकार भी होगा, सरकारों पर कठोर कार्रवाई का दबाव बढ़ेगा और नकली सेक्युलर, लिबरल नेताओं, पत्रकारों, एक्टिविस्टों आदि के अंदर भी व्यापक जन विरोध का डर पैदा होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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