विपक्ष का मोर्चा कितना मजबूत, भाजपा को चुनौती देने के लिए रणनीति बदलकर सक्रियता दिखानी होगी

भाजपा विरोधी अन्य दलों की बात करें तो उनमें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और स्टालिन की द्रमुक ही बेहतर स्थिति में दिख रही है। आंध्र में जगनमोहन रेड्डी में भी थोड़ा दम दिख रहा है। बिहार में भी मुकाबला जोरदार हो सकता है। बीजू जनता दल यानी बीजद भी ओडिशा में बड़ी राजनीतिक ताकत है लेकिन उसकी भाजपा के साथ गठबंधन की बातें चल रही हैं।

By Jagran NewsEdited By: Narender Sanwariya Publish:Thu, 14 Mar 2024 12:12 AM (IST) Updated:Thu, 14 Mar 2024 12:12 AM (IST)
विपक्ष का मोर्चा कितना मजबूत, भाजपा को चुनौती देने के लिए रणनीति बदलकर सक्रियता दिखानी होगी
विपक्ष का मोर्चा कितना मजबूत, भाजपा को चुनौती देने के लिए रणनीति बदलकर सक्रियता दिखानी होगी (File Photo)

उमेश चतुर्वेदी। चुनाव राजनीतिक दलों को अपनी ताकत दिखाने का सबसे बड़ा मंच होते हैं। चुनावों के दौरान अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार करने के लिए राजनीतिक दलों के पास सबसे बड़ा हथियार होता है अपनी जीत का दावा करना। भले ही राजनीतिक दल की बुनियाद हिल चुकी हो, लेकिन उसके कर्ताधर्ताओं की यही दिखाने की कोशिश होती है कि पार्टी को व्यापक जनसमर्थन हासिल है। जहां तक आगामी आम चुनाव की बात है तो इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि भाजपा बढ़त की स्थिति में है। भाजपा का 370 पार और अपने गठबंधन राजग के लिए 400 पार का नारा भले ही कुछ अतिरंजित लगे, लेकिन यह उसके आत्मविश्वास को जरूर जाहिर करता है। विपक्षी गठबंधन इस नारे का न केवल उपहास उड़ा रहा है, बल्कि अपने स्तर पर चुनौती भी दे रहा है। ऐसे में विपक्षी खेमे की स्थिति को समझना भी जरूरी है कि उसके दावों में कितना दम है।

विपक्षी दलों ने गाजे-बाजे के साथ आइएनडीआइए नाम से मोदी-विरोधी राजनीतिक मोर्चा बनाया। कांग्रेस स्वाभाविक रूप से इस गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी बनी। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को करीब 12 करोड़ वोट भी मिले थे। हालांकि 2014 से कांग्रेस लगातार सिकुड़ रही है। फिलहाल कांग्रेस की सरकार कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश तक ही सिमट गई है। हिमाचल में तो उसकी सरकार एक प्रकार से वेंटिलेटर पर चल रही है। यही कारण है कि पार्टी हिंदी पट्टी या उत्तर भारत को छोड़कर दक्षिण पर ही पूरा ध्यान केंद्रित करने में जुटी है। उम्मीदवारों की पहली-दूसरी सूची से भी पार्टी की प्राथमिकता प्रत्यक्ष दिख रही है। तेलंगाना की जीत के बाद कांग्रेस के कुछ नेताओं ने 'उत्तर बनाम दक्षिण' की विभाजनकारी बहस भी चलाई, पर वह कारगर नहीं रही।

कांग्रेस की संभावनाओं की बात करें तो तेलंगाना में भले ही उसे कुछ सीटें मिल जाएं, लेकिन पड़ोसी आंध्र में उसकी हालत बहुत अच्छी नहीं। यहां मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ वाइएसआर कांग्रेस और तेदेपा-भाजपा-जनसेना गठबंधन के बीच है। तमिलनाडु में कांग्रेस सहयोगी द्रमुक की बैसाखियों के भरोसे है। केरल में जरूर पिछली बार कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा, लेकिन इस बार वाम मोर्चा उससे अपनी सियासी जमीन वापस हासिल करने को लेकर प्रतिबद्ध दिख रहा है। यही कारण है कि कांग्रेस-वाम में दूसरी जगहों पर गठबंधन के बावजूद केरल में दोनों दल एक दूसरे के प्रति हमलावर हैं। यहां तक कि राहुल गांधी की सीट वायनाड पर भी वामदलों ने प्रत्याशी उतारने से परहेज नहीं किया। रही बात कर्नाटक की तो पिछले चुनाव में कांग्रेस और जद-एस मिलकर भी वहां भाजपा की राह नहीं रोक पाए थे। इस बार तो राज्य में जद-एस भी भाजपा के पाले में है।

गुजरात का रुख करें तो वहां कांग्रेस की हालत पहले से ही खस्ता है। पिछले लोकसभा चुनाव में उसका खाता भी नहीं खुला था। विधानसभा चुनाव में भी मानमर्दन हुआ और उसके बाद से भी एक के बाद एक विधायक भाजपा में शामिल होते जा रहे हैं। गुजरात कांग्रेस में भगदड़ जैसी स्थिति है। महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण जैसे क्षत्रप उसका साथ छोड़ गए। पार्टी यहां भी बची-खुची शिवसेना और राकांपा के सहारे है। महाराष्ट्र के पड़ोसी छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में विपक्षी गठबंधन का प्रमुख चेहरा कांग्रेस ही है, लेकिन वहां भी पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस अपनी जमीन मजबूत नहीं कर पाई। बीते दिनों यहां तक खबरें उड़ीं कि कमल नाथ जैसे दिग्गज खुद कांग्रेस से किनारा करने वाले थे। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को चुनाव में उतारकर पार्टी ने दिखाया है कि वह चुनाव मजबूती से लड़ना चाहती है, लेकिन वह यह भूल रही है कि लोकसभा चुनाव में मुद्दे कुछ अलग होते हैं। राजस्थान में कई दिग्गज चुनाव लड़ने से ही कतरा रहे हैं। स्थिति यह है कि कांग्रेस राहुल कस्वां जैसे उन नेताओं के भरोसे है, जिनका भाजपा से टिकट कट गया है।

गठबंधन की बात करें तो उसके भीतर भी कांग्रेस नुकसान की स्थिति में है। पार्टी ने दिल्ली, गोवा, गुजरात, हरियाणा और चंडीगढ़ में तो आम आदमी पार्टी यानी आप के साथ गठबंधन किया है, लेकिन आप ने पंजाब में कांग्रेस को साथ नहीं लिया। जबकि पंजाब में लोकसभा की सीटें भी ज्यादा हैं। स्पष्ट है आप जहां मजबूत है, वहां वह कांग्रेस को ज्यादा भाव नहीं देना चाहती। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में सहयोगी सपा ने उसे केवल 17 सीटों तक ही सीमित कर दिया है। स्थिति यह है कि राहुल गांधी दोबारा अपने गढ़ अमेठी से चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे तो उसके बगल की सीट रायबरेली का प्रतिनिधित्व करने वाली सोनिया गांधी अब राजस्थान से राज्यसभा पहुंच गई हैं।

कांग्रेस बिहार में तेजस्वी तो झारखंड में हेमंत सोरेन पर आश्रित है। बिहार में तेजस्वी जरूर कुछ सीटें हासिल करने की उम्मीद जता रहे हैं, लेकिन कांग्रेस की उम्मीदें इक्का-दुक्का सीटों तक ही है। बंगाल में ममता बनर्जी ने सभी 42 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारकर कांग्रेस को अवाक और आइएनडीआइए की उम्मीदों को एक बड़ा झटका दिया। दस सीटों वाले हरियाणा में जरूर कांग्रेस भाजपा को चुनौती दे रही है, लेकिन यहां भाजपा भी निरंतर अपनी रणनीति बदल रही है। राज्य में मुख्यमंत्री के स्तर पर नेतृत्व परिवर्तन में भी भाजपा की नई रणनीति नजर आ रही है। उत्तराखंड में जरूर कांग्रेस मुख्य विपक्ष है, लेकिन वह मुकाबले से बाहर दिख रही है। कांग्रेस को पूर्वोत्तर से उम्मीद हो सकती हैं, लेकिन वहां भी उसकी राह आसान नहीं।

भाजपा विरोधी अन्य दलों की बात करें तो उनमें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और स्टालिन की द्रमुक ही बेहतर स्थिति में दिख रही है। आंध्र में जगनमोहन रेड्डी में भी थोड़ा दम दिख रहा है। बिहार में भी मुकाबला जोरदार हो सकता है। बीजू जनता दल यानी बीजद भी ओडिशा में बड़ी राजनीतिक ताकत है, लेकिन उसकी भाजपा के साथ गठबंधन की बातें चल रही हैं। जो दल किसी खेमें में नहीं उनकी भूमिका तभी महत्वपूर्ण होगी जब किसी गठबंधन को बहुमत न मिले। हालांकि पिछले कुछ चुनावों के रुझान यही दर्शाते हैं कि जनता अब खंडित जनादेश के पक्ष में नहीं दिखती। ऐसे में अगर कांग्रेस और उसके सहयोगी भाजपा और राजग को कोई चुनौती देना चाहते हैं तो उन्हें अपनी रणनीति बदलकर सक्रियता दिखानी होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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