महज वोट बैंक की खातिर पार्टियां असम की वर्षों पुरानी मांग NRC की करती रही अनदेखी

वोटबैंक की राजनीति के चलते पूर्व की सरकारों ने NRC जैसे अहम मुद्दे पर खामोशी बरती। यह जानते हुए भी कि इसकी मांग असम में वर्षों पहले से उठ रही थी पूर्व की सरकारों ने कुछ नहीं किया।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Mon, 02 Sep 2019 09:59 AM (IST) Updated:Mon, 02 Sep 2019 10:21 AM (IST)
महज वोट बैंक की खातिर पार्टियां असम की वर्षों पुरानी मांग NRC की करती रही अनदेखी
महज वोट बैंक की खातिर पार्टियां असम की वर्षों पुरानी मांग NRC की करती रही अनदेखी

डॉ. अरुण कुमार। एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को अपडेट करने की मांग असम के लोगों की वर्षो पुरानी मांग है जिसे मनवाने के लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा और जिसे पूर्व की केंद्र सरकारों ने अपने वोट बैंक की खातिर अनदेखी की। एनआरसी वह प्रक्रिया है जिससे देश में अवैध ढंग से रह रहे विदेशी लोगों की पहचान की जाती है। वर्ष 1951 में असम के मुख्यमंत्री गोपीनाथ बारदोलोई की मांग पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पहली बार एनआरसी जारी की थी। देश विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में भागकर आए शरणार्थियों को बारदोलोई असम में बसाने का विरोध कर रहे थे। वर्ष 1971 में जब ‘बांग्लादेश मुक्ति संग्राम’ शुरू हुआ तब एक बार फिर बड़ी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) से शरणार्थी असम में आकर बस गए। आंकड़ों के मुताबिक लगभग 10 लाख शरणार्थी इस दौरान आए। 16 दिसंबर 1971 को जब एक नए देश बांग्लादेश का निर्माण हुआ तो कुछ लौट गए, लेकिन अधिकांश असम में ही रह गए।

इंदिरा ने जो कहा किया उसके ठीक विपरीत
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तब अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था कि पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने भारत पर गंभीर बोझ डाला है। उन्हें वापस जाना होगा। ये शरणार्थी भारत की राजनीतिक स्थिरता और आजादी के लिए खतरा बन गए हैं। पर इंदिरा गांधी ने किया इसके विपरीत। इंदिरा के समय असम के तीन नेताओं का बोलबाला था। एक थे देवकांत बरुआ जो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ का चर्चित नारा दिया था। दूसरे थे फखरुद्दीन अली अहमद जो भारत के राष्ट्रपति हुए और तीसरे थे मोइनुल हक चौधरी जो केंद्रीय उद्योग मंत्री बने। इस गुट ने अवैध प्रवासियों के विरुद्ध कोई भी कदम उठाने नहीं दिया। उन्होंने कांग्रेस को लगातार जीत दिलाने के उद्देश्य से ‘अली’ और ‘कुली’ का समीकरण बनाया। ‘अली’ बांग्लादेशी प्रवासियों को और ‘कुली’ चाय बागान में काम करने वाले गैर-आसामी मजदूरों के लिए प्रचलित शब्द हैं।

खास है ‘नाइस गाइज फिनिश सेकेंड’ किताब
असम के तत्कालीन राज्यपाल बीके नेहरू और मुख्यमंत्री बीपी चालिहा ने इंदिरा गांधी को अवैध प्रवासियों को रोकने हेतु कदम उठाने का आग्रह किया, पर इंदिरा ने चुप करा दिया। ये बातें बीके नेहरू ने अपनी आत्मकथा ‘नाइस गाइज फिनिश सेकेंड’ में लिखी है। इस तरह असम में कांग्रेस और पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट सरकारों ने वोट बैंक की राजनीति के कारण अवैध बांग्लादेशियों की घुसपैठ जारी रखने में मदद की। बड़े पैमाने पर बांग्लादेश से आए लोगों के कारण असम के मूल निवासियों में अपनी भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना जगी। बाहरी लोगों के खिलाफ असम के छात्रों-युवाओं ने आंदोलन शुरू किया। इसी बीच 1978 में मंगलदोई लोकसभा क्षेत्र में उपचुनाव हुआ। पता चला कि यहां के मतदाताओं की संख्या में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हो गई है।

हिंसक हुआ आंदोलन 
इस घटना से विदेशी लोगों के खिलाफ चल रहे आंदोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया। आंदोलन चलता रहा, लेकिन सरकार द्वारा सार्थक कार्रवाई नहीं की गई। 1983 में केंद्र सरकार ने असम विधानसभा के चुनाव कराने की घोषणा की। आंदोलन से जुड़े संगठनों के बहिष्कार के बावजूद चुनाव कराए गए। जिन क्षेत्रों में असम के मूल निवासियों का बहुमत था वहां बहुत ही कम मतदान हुए। जहां बांग्लादेश से आए लोगों की जनसंख्या अधिक थी वहां बहुत अधिक मतदान हुए। चुनाव परिणाम कांग्रेस के पक्ष में आए, राज्य में उसकी सरकार भी बनी, लेकिन नैतिक रूप से यह गलत हुआ। चुनाव के दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा हुई जिसमें तीन हजार से अधिक लोग मारे गए। असम के मूल निवासियों का यह आंदोलन इतना अधिक उग्र था कि 1984 के लोकसभा चुनाव में असम के 16 लोकसभा क्षेत्रों में से 14 में चुनाव नहीं कराया जा सका।

‘असम समझौता’
असम में बढ़ती हिंसा के आगे झुकते हुए 15 अगस्त 1985 को आंदोलनकारियों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने समझौता किया जिसे ‘असम समझौता’ के नाम से जाना जाता है। समझौते के तहत 1951 से 1961 के बीच असम में आकर बसे लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार मिल गया। विदेशी लोगों की पहचान के लिए 24 मार्च 1971 को ‘कट ऑफ डेट’ तय किया गया था, क्योंकि इसी दिन बांग्लादेश में मुक्ति संग्राम शुरू हुआ था। यह माना गया कि इसी दिन से बांग्लादेश के लोगों ने अवैध रूप से आकर बसना शुरू किया था। नतीजन 1991 की जनगणना के बाद असम में बड़ी संख्या में अवैध प्रवासियों की मौजूदगी सामने आई। अप्रैल 1992 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ने विधानसभा में घोषणा की कि असम में 30 लाख से अधिक अवैध बांग्लादेशी हैं। असम की 40 विधानसभा सीटों पर इन बांग्लादेशियों की जनसंख्या को देखते हुए कुछ विधायकों ने सैकिया सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा की। दो दिनों के बाद ही हितेश्वर सैकिया ने अपने बयान से पलटते हुए कहा कि असम में एक भी अवैध बांग्लादेशी नहीं है।

जनभावना का ख्याल नहीं रखा
जनगणना आंकड़े बताते हैं कि 1971 से 1991 के बीच राज्य में हिंदुओं की जनसंख्या 41.89 प्रतिशत बढ़ी तो मुसलमान 77.41 प्रतिशत की दर से बढ़े। बांग्लादेश से सटे असम के नौ जिलों में ये अवैध प्रवासी बहुसंख्यक हो गए हैं। कांग्रेस की सरकारों ने असम की जनभावना का ख्याल नहीं रखा। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने एनआरसी को अपडेट करने की घोषणा की। सरकार ने इसके लिए एक निश्चित रकम का प्रावधान भी किया। लेकिन दुर्भाग्य से वाजपेयी सरकार काम को आगे नहीं बढ़ा पाई। असम के लोग तीन महापुरुषों का सबसे अधिक सम्मान करते हैं। भक्तिकालीन कवि शंकरदेव, वीर लचित बोरफुकन और गोपीनाथ बारदोलोई। इन तीनों महापुरुषों को असम से बाहर कम लोग जानते थे। वाजपेयी सरकार ने शंकरदेव और बोरफुकन पर किताबें प्रकाशित की और बारदोलोई को भारत रत्न से सम्मानित किया।

असम में जारी हुआ एनआरसी
वर्तमान केंद्र सरकार ने इच्छाशक्ति दिखाते हुए असम में एनआरसी को जारी कर दिया है। एनआरसी में लगभग 19 लाख लोगों को जगह नहीं मिली है। केंद्र सरकार यदि इन अवैध प्रवासियों को वापस भेजती है तो यह असम के लोगों के साथ न्याय होगा। अमेरिका ने भी 1920 के दशक के आखिर में मैक्सिको से आए करीब 20 लाख लोगों को वापस भेज दिया था।

(लेखक दिल्‍ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)

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