दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों में राष्ट्रीय मुद्दों पर भारी पड़े स्थानीय मुद्दे

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों को शाहीन बाग जेएनयू सीएए से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Thu, 13 Feb 2020 11:33 PM (IST) Updated:Fri, 14 Feb 2020 12:34 AM (IST)
दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों में राष्ट्रीय मुद्दों पर भारी पड़े स्थानीय मुद्दे
दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों में राष्ट्रीय मुद्दों पर भारी पड़े स्थानीय मुद्दे

[हरेंद्र प्रताप]। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की सफलता का पूर्वानुमान सही साबित हुआ। 2019 में लोकसभा की सभी सातों सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार विधानसभा की 70 में से मात्र आठ सीटें ही जीत पाई। दिल्ली में 15 साल शासन करने वाली कांग्रेस पिछले बार की तरह इस बार भी खाता नहीं खोल पाई।

दिल्ली में स्थानीय नेतृत्व और मुद्दों के मामले में अरविंद केजरीवाल की पार्टी कांग्रेस और भाजपा पर भारी पड़ रही है। इस पर दोनों राष्ट्रीय दलों को आत्मचिंतन करने की जरूरत है। दरअसल दिल्ली सहित मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड आदि राज्यों में संपन्न लोकसभा और विधानसभा चुनावों के परिणामों से यह साबित हो गया है कि लोकसभा चुनाव में जहां राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी भूमिका अदा करते हैं, वहीं विधानसभाओं के चुनाव में मतदाता स्थानीय नेतृत्व और मुद्दों को प्राथमिकता देते हैं। अनुच्छेद 370 का खात्मा, तीन तलाक के खिलाफ कानून, नागरिकता संशोधन कानून, अयोध्या जैसे विषय राष्ट्रीय मुद्दे हैं और इन्हें राष्ट्रीय ही रहने देना चाहिए।

दिल्ली चुनाव में स्थानीय मुद्दों को मिली प्राथमिकता

दिल्ली के नतीजे बता रहे हैं कि शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, पानी जैसे समस्याओं से जूझता व्यक्ति इन्हीं से जुड़े मसलों को प्राथमिकता देता है। हालांकि दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करते हुए कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे शाहीन बाग, जेएनयू, जामिया, नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए आदि से जोड़ रहे हैं। यह निष्कर्ष गलत है। ऐसा निष्कर्ष निकालने वाले मोदी सरकार को उसी प्रकार डरा रहे हैं जिस प्रकार 1977 में पराजित कांग्रेस को डराया गया था।

मालूम हो कि 1977 के पहले भारत में चुनाव के समय फतवा जारी करने की परंपरा नहीं थी। आपातकाल के दर्द से कराहते भारत की आह कांग्रेस को लग गई और कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बेदखल हो गई। उस समय हुए लोकसभा चुनाव के परिणाम का विश्लेषण करते हुए कुछ तथाकथित राजनीतिक विश्लेषक और नेताओं ने अति उत्साह में आकर यह कह दिया कि ‘कांग्रेस की यह अप्रत्याशित पराजय इसलिए हुई, क्योंकि मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट नहीं दिया।’

आपसी कलह के कारण जनता पार्टी टूटी

देश में आपातकाल के बाद हुए चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी न केवल लोकसभा का चुनाव हार गए थे, बल्कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला था। आपातकाल में दिल्ली के तुर्कमान गेट पर अतिक्रमण हटाने के दौरान पुलिसिया जुल्म और जबरन नसबंदी के कारण कांग्रेस के परंपरागत मतदाता माने जाने वाले मुस्लिम आक्रोेशित अवश्य थे, पर जनता पार्टी की विजय का सारा श्रेय केवल मुसलमानों को देना चुनावी राजनीति का सांप्रदायिक विश्लेषण था, जो आगे एक प्रचलन बन गया। हालांकि आपसी कलह के कारण जनता पार्टी टूट गई और पांच वर्ष का अपना कार्यकाल पूरा करने के पहले ही सत्ता से बेदखल हो गई।

मुसलमानों को उर्दू द्वितीय राजभाषा बनाने का लालच 

उसके बाद 1980 में हुए लोकसभा के चुनाव में इंदिरा गांधी पुन: सत्ता में आ गईं। भले ही कांग्रेस केंद्र और कई राज्यों में पुन: सत्ता में लौटी हो, लेकिन वह 1977 की अपनी पराजय से इतना भयभीत हो गई कि उसने सत्ता में आने के साथ ही मुस्लिम समाज का तुष्टीकरण शुरू कर दिया। 1977 के लोकसभा चुनाव में बिहार और उत्तर प्रदेश में जिस कांग्रेस का सफाया हो गया था उन्हीं राज्यों में उसने मुसलमानों को अपने पाले में लाने के लिए उर्दू को द्वितीय राजभाषा बनाने का लालच दिया।

मुस्लिम तुष्टीकरण का विभत्स रूप

बिहार के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्रा ने 1980 में और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1982 में उर्दू को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने की घोषणा की। मुस्लिम तुष्टीकरण का वीभत्स रूप 1985 में सामने आया। कांग्रेस ने शाहबानो मामले में ‘मुस्लिम महिला तलाक अधिकार संरक्षण विधेयक 1986’ द्वारा उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय तक को निष्प्रभावी बना दिया। कश्मीर में 1990 में कश्मीरी पंडितों पर अमानवीय अत्याचार हुए और पूरा देश असहाय होकर उसे देखता रहा। वोट बैंक की इस मजबूरी ने भी देश में जिहादी आतंकवाद को फलने-फूलने का अवसर प्रदान किया।

कांग्रेस ने मुसलमानों को दिए अनेक प्रलोभन

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में हिंदू-मुस्लिम, दोनों ने अंगेजी हुकूमत के खिलाफ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया था। अंग्रेजोें ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत मुसलमानों को इस तरह सशंकित किया कि वे अपने लिए एक अलग देश की मांग कर बैठे। हालांकि कांग्रेस ने मुसलमानों को मनाने के लिए अनेक प्रलोभन दिए, लेकिन वह विभाजन को राक नहीं पाई और देश खंडित हो गया। आज एक बार फिर से वही गलती दोहराई जा रही है।

सीएए और एनआरसी पर सेंकी जा रही राजनीतिक रोटी

नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के विरोध को हवा देकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले लोग देश को एक और विभाजन की तरफ धकेल रहे हैं। वे विरोध के नाम पर अराजकतावाद को बढ़ावा दे रहे हैं। इसकी कुछ बानगी देखिए। कलकत्ता महानगरपालिका में आधार कार्ड के अद्यतन करने का जब विरोध हुआ तो नगरपालिका ने इस काम को रोक दिया। आंध्र में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के लोगों पर आक्रमण हुआ। कोटा, राजस्थान में आर्थिक सांख्यिकी गणना के लिए गईं नसरीन बानो को न केवल अपमानित किया गया, बल्कि उनका मोबाइल छीन कर उसका सारा डाटा डिलीट कर दिया गया।

उत्तराखंड के नैनीताल, उत्तर प्रदेश के बिजनौर, बिहार के दरभंगा आदि जगहों पर भी सर्वे या सरकारी सूचना एकत्रित करने वाले सरकारी कर्मचारियों पर हमले किए गए। जाहिर है कि लोकतंत्र में शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार सभी को है, पर देश में यह जो अराजकतावाद को बढ़ाया जा रहा है उसका परिणाम राष्ट्रहित में नहीं होगा।

 

(लेखक बिहार विधानपरिषद के पूर्व सदस्य हैं)

chat bot
आपका साथी