अमेरिका-तालिबान वार्ता रद होने के बाद अफगानिस्तान में सक्रियता बढ़ाए भारत

अमेरिका-तालिबान वार्ता रद होने से भले ही भारत को फौरी तौर पर कुछ राहत की गुंजाइश मिल गई हो लेकिन हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से कुछ हासिल नहीं होगा।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Fri, 20 Sep 2019 12:05 AM (IST) Updated:Fri, 20 Sep 2019 01:05 AM (IST)
अमेरिका-तालिबान वार्ता रद होने के बाद अफगानिस्तान में सक्रियता बढ़ाए भारत
अमेरिका-तालिबान वार्ता रद होने के बाद अफगानिस्तान में सक्रियता बढ़ाए भारत

[हर्ष वी पंत]। बीते दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान के साथ चल रही वार्ता प्रक्रिया को रद कर दिया। उनके ऐसे रुख पर इस आतंकी समूह ने यही कहा कि केवल बातचीत के जरिये ही अफगानिस्तान में शांति बहाल की जा सकती है और वार्ता के लिए उसके दरवाजे अभी भी खुले हुए हैं। ऐसे में क्या अमेरिकी राष्ट्रपति को भविष्य में तालिबान से शांति वार्ता को फिर से शुरू करना चाहिए।

इस महीने की शुरुआत में तो ऐसा लगा कि दोनों पक्ष किसी समझौते पर पहुंच गए हैं और 18 साल पुराने संघर्ष पर विराम लग जाएगा। बात इतनी आगे बढ़ गई थी कि ट्रंप ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और तालिबान के नेताओं की 8 सितंबर को कैंप डेविड में मेजबानी करने की योजना भी बना ली थी, मगर 6 सितंबर को अफगान राजधानी काबुल में एक तालिबानी हमले ने पूरा खेल बिगाड़ दिया।

शांति वार्ता के दौरान भी तालिबान ने किए हमले

इस आतंकी हमले में एक अमेरिकी सैनिक के अलावा 11 अन्य लोग मारे गए। इसने ट्रंप को कुपित कर दिया और उन्होंने यह कहते हुए अपने कदम पीछे खींच लिए कि अगर यह संगठन वार्ता के दौरान भी संघर्ष विराम नहीं करता तो इससे यही लगता है कि उसमें शायद वार्ता करने की सामर्थ्य नहीं है। इसके साथ ही ट्रंप-तालिबान करार को लेकर सभी तरह के अनुमान भी हवा हो गए।

अफगान सरकार को अमेरिका की कठुपतली मानता है तालिबान

आज तालिबान अफगानिस्तान के उससे कहीं ज्यादा हिस्से पर काबिज है जितना वर्ष 2001 में अमेरिका की अगुआई वाली सेनाओं ने उसे समेट दिया था। तालिबान राष्ट्रपति अशरफ गनी के प्रशासन को भी मान्यता नहीं देता। वह उसे अमेरिका की कठुपतली सरकार मानता है। जब तक अमेरिका वार्ता प्रक्रिया में शामिल नहीं हुआ तब तक उसने अफगान सरकार के साथ सीधी बातचीत से इन्कार ही किया।

अफगान में हुए कई आत्मघाती हमले

इस बीच उसके हमले लगातार जारी रहे। बीते कुछ दिनों में तो अलग-अलग आत्मघाती हमलों में करीब 48 लोग मारे गए और तमाम घायल हुए। राजधानी काबुल के उत्तर में स्थित परवान प्रांत में एक चुनावी रैली में हुए आतंकी हमले में 26 लोगों की जान चली गई। इस रैली को राष्ट्रपति गनी संबोधित करने वाले थे। वहीं काबुल के बीचोबीच स्थित अमेरिकी दूतावास के पास हुए धमाके में 22 लोग मारे गए।

तालिबान ने रूस और ईरान से साधा संपर्क

यह शायद तालिबान की उन कोशिशों का हिस्सा है जिसमें वह यही दर्शाना चाहता है कि अफगान रणभूमि और राजनीतिक परिदृश्य को वह किस हद तक प्रभावित करने की क्षमता रखता है। अमेरिका के साथ शांति वार्ता रद होने के बाद तालिबान ने रूस और ईरान जैसे देशों से संपर्क साधा। मास्को इससे पहले भी तालिबान और अन्य अफगान वार्ताकारों के बीच दो चरणों की वार्ता आयोजित करा चुका है। इस सिलसिले में जल्द ही चीन का दौरा हो सकता है।

राष्ट्रपति चुनाव से पहले वार्ता संभव नहीं

अफगानिस्तान से जुड़े तमाम पक्षों को लेकर 23 सितंबर से वार्ता शुरू होनी थी। इससे पहले करार हो जाता तो इसमें व्यापक संघर्षविराम पर भी चर्चा होती। गनी प्रशासन ने भी संकेत दिए हैं कि वह अपना रुख कड़ा कर रहा है। उसने कहा है कि तालिबान की उकसाने वाली तिकड़में सफल नहीं होंगी। उसने स्पष्ट किया कि अफगान सरकार के साथ वार्ता ही अफगानिस्तान में शांति कायम करने का इकलौता समाधान है। इसके साथ ही यह भी साफ कर दिया गया कि 28 सितंबर को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले अब किसी तरह की कोई वार्ता संभव नहीं।

अफगानिस्तान में तेजी से बदलता परिदृश्य क्षेत्रीय ताकतों पर अपना गणित बदलने का लगातार दबाव बढ़ा रहा है। भारत भी इसमें कोई अपवाद नहीं है। अमेरिका पहले ही यह राग अलाप चुका है कि केवल वही आतंकवाद के खिलाफ जंग छेड़ने का बोझ उठा रहा है। ऐसे में वाशिंगटन यही चाहेगा कि आतंकवाद को खत्म करने के इच्छुक भारत, ईरान, रूस और तुर्की जैसे देश भी देर-सबेर इस मुहिम से जुड़ें। इस जिम्मेदारी का बोझ वहन करने का ट्रंप का आह्वान भविष्य में और जोर पकड़ेगा।

भारत और अफगानिस्तान के बीच रिश्ते

भारत में बैठे जो लोग अफगानिस्तान में नई दिल्ली के हाशिये पर चले जाने को लेकर आलोचना कर रहे हैं, ये वही लोग हैं जिन्होंने अफगानिस्तान में भारत की सैन्य मौजूदगी बढ़ाने के प्रयासों का विरोध किया था। विकास के मोर्चे पर भारत ने अफगानिस्तान में बहुत सराहनीय काम किया है। भले ही जनवरी में ट्रंप ने अफगानिस्तान में भारत की गतिविधियों पर चुटकी लेते हुए कहा हो कि भारत ने वहां पुस्तकालय बनाने जैसे काम ही अंजाम दिए, लेकिन नई दिल्ली ने वहां इससे कहीं बढ़कर किया है।

अफगानिस्तान में भारत को लेकर वास्तविक रूप से अच्छी भावनाएं हैं, लेकिन जहां तक अफगानिस्तान में भविष्य के सत्ता स्वरूप से वार्ता की बात आती है तो वहां कड़ाई का कोई विकल्प नहीं। यह भी उतना ही बड़ा सच है कि पाकिस्तान के तमाम प्रयासों के बावजूद अफगानिस्तान के भविष्य को निर्धारित करने में भारत की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

तालिबान ने पाक को दिकाया आईना

अपने पड़ोसियों की प्राथमिकताएं तय करने में नई दिल्ली की क्षमताएं भी खासी अहम रहेंगी। यह तब स्पष्ट भी दिखा जब भारत द्वारा अपने संविधान में जम्मू-कश्मीर से जुड़ी धारा 370 हटाने की कवायद को पाकिस्तान ने अफगानिस्तान से जोड़कर दिखाने का प्रयास किया। इस पर पाकिस्तान को किसी और ने नहीं, बल्कि खुद तालिबान ने ही आईना दिखाते हुए कहा, ‘कुछ पक्षों द्वारा कश्मीर के मसले को अफगानिस्तान से जोड़ने से संकट का हल नहीं निकलेगा, क्योंकि अफगान मसला इससे जुड़ा हुआ ही नहीं है।’

शांति वार्ता रद होने से भारत को मिली राहत 

पाकिस्तान के इन्हीं मुगालतों से स्पष्ट होता है कि काबुल में भले ही कोई पार्टी सत्ता में आए, वह अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए नई दिल्ली की ओर ही देखेगी। इस लिहाज से भारत की अफगानिस्तान नीति को तेजी से बदलती वास्तविकताओं के अनुरूप स्वयं को ढालना चाहिए ताकि वह विस्तृत दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अपने कद के अनुसार भूमिका निभा सके। तालिबान-अमेरिका शांति वार्ता रद होने से भले ही भारत को फौरी तौर पर कुछ राहत की गुंजाइश मिल गई हो, लेकिन हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से कुछ हासिल नहीं होगा। यथास्थिति भारत के लिए कोई विकल्प नहीं हो सकती।

यदि एक स्थिर एवं आर्थिक रूप से संपन्नता की ओर उन्मुख अफगानिस्तान अतीत में भारत के लिए हितकारी था तो यह भविष्य में भी एक प्राथमिकता बनी रहनी चाहिए। सात हजार मील दूर स्थित अमेरिका जैसे मुल्क आते-जाते रहेंगे, लेकिन भारत के लिए भौगोलिक वास्तविकताएं नहीं बदलने वाली।

(लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं) 

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