पुरानी सोच से नया पाक बनाने की कोशिश कामयाब नहीं होगी, चाहिए नई सोच की दरकार

इमरान खान असुरक्षित प्रधानमंत्री ही बने रहेंगे। वह पाकिस्तानी सेना और उसके प्रभाव वाले गठजोड़ की मेहरबानी से ही इस कुर्सी तक पहुंचे हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Tue, 28 Aug 2018 11:14 PM (IST) Updated:Wed, 29 Aug 2018 05:00 AM (IST)
पुरानी सोच से नया पाक बनाने की कोशिश कामयाब नहीं होगी, चाहिए नई सोच की दरकार
पुरानी सोच से नया पाक बनाने की कोशिश कामयाब नहीं होगी, चाहिए नई सोच की दरकार

[ हर्ष वी पंत ]: पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने के बाद इमरान खान के पहले भाषण को उनके देश में सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है। तमाम लोगों का मानना है कि उन्होंने सभी सही मुद्दे उठाए। तकरीबन 70 मिनट का उनका भाषण मुख्य रूप से उनके चुनावी वादों का ही दोहराव भर था। अपने चुनाव अभियान में वह पाकिस्तानी अवाम से वादा करते रहे कि वह भ्रष्टाचार मिटाकर ‘नए पाकिस्तान’ को आकार देंगे। उन्होंने गरीबी घटाने और सरकारी खर्चों में कटौती से लेकर कर्ज के भारी-भरकम बोझ को कम करने की अपनी इच्छा दोहराई। उन्होंने सीधे सपाट लहजे में कहा, ‘हमने दूसरे देशों से कर्ज लेने और मदद के जरिये गुजारा चलाने की आदत डाल ली है।’ इसके माध्यम से उन्होंने यही संदेश दिया कि एक देश को अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए।

पाकिस्तान जिस आर्थिक संकट से जूझ रहा है उसके लिए पिछली पीएमएल-एन सरकार यानी नवाज शरीफ को कसूरवार ठहराते हुए उन्होंने कहा, ‘पाकिस्तान के इतिहास में मुल्क ने कभी इतने मुश्किल आर्थिक हालात नहीं देखे। हमारा कर्ज 28 लाख करोड़ रुपये के स्तर पर पहुंच गया है। हम कभी भी कर्ज के इतने बड़े बोझ तले नहीं दबे जितने बीते दस वर्षों में दबते गए।’ उन्होंने अपनी संसद यानी नेशनल असेंबली में यहां तक कहा कि हालत यह है कि हम कर्ज का सूद चुकाने के लिए कर्ज ले रहे हैैं और सरकारी खर्चों में कटौती लोगों तक यह संदेश देने के लिए कर रहे हैैं कि पाकिस्तान मुश्किल में है।

अमन की वकालत करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि हम शांति चाहते हैं, क्योंकि शांति स्थापित हुए बिना पाकिस्तान समृद्धि हासिल नहीं कर सकता। इसके साथ ही इमरान खान ने पड़ोसी मुल्कों के साथ पाकिस्तान के रिश्ते बेहतर बनाने और बलूचिस्तान प्रांत और अफगानिस्तान से लगे आदिवासी इलाकों में सुरक्षा की स्थिति बेहतर बनाने पर जोर देने की भी बात कही। इमरान के अनुसार पाकिस्तान भारत से भी बेहतर रिश्ते बनाना चाहता है और उनकी सरकार चाहेगी कि दोनों पक्ष के नेता सभी ‘प्रमुख मुद्दों’ पर वार्ता के जरिये उनका समाधान निकालें। इमरान खान ने कहा, ‘अगर वे एक कदम बढ़ाएंगे तो हम दो कदम बढ़ाएंगे, लेकिन कम से कम हमें शुरुआत तो करनी होगी।’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इमरान खान को भेजे शुभकामना पत्र में लिखा कि भारत भी पाकिस्तान के साथ शांतिपूर्ण संबंध चाहता है। हालांकि मोदी द्वारा लिखे गए पत्र में ऐसे कोई संकेत नहीं थे कि भारत पाकिस्तान के साथ संवाद शुरू करना चाहता है। उन्होंने इतना ही कहा कि भारत पाकिस्तान के साथ ठोस एवं सार्थक सक्रियता की मंशा दिखाता रहा है। साथ ही उन्होंने दक्षिण एशिया को आतंक से मुक्ति दिलाने की दिशा में काम करने की जरूरत को भी रेखांकित किया। ऐसी ही जरूरत अमेरिका ने भी रेखांकित की, लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्री की इमरान खान से फोन पर बात को लेकर यह विवाद छिड़ गया कि दोनों के बीच क्या बातचीत हुई?

पाकिस्तान के नए-नवेले विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के बयान से यह बात एक बार फिर पुष्ट हुई कि भारत-पाकिस्तान वार्ता की राह में चुनौतियां कम नहीं हैं। ‘निरंतर निर्बाध संवाद’ की जरूरत जताने के साथ ही कुरैशी ने कहा कि भले ही हम चाहें या न चाहें, कश्मीर इसमें एक प्रमुख मुद्दा है और दोनों देश इसे भलीभांति समझते भी हैं।

चूंकि भारत वार्ता को आतंकवाद पर केंद्रित करना चाहता है वहीं पाकिस्तान कश्मीर का राग अलापता है इसलिए संवाद की प्रक्रिया के आगे बढ़ने की संभावनाएं धूमिल हो जाती हैं। पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री के रूप में इमरान खान ने कुछ प्रमुख बुनियादी घरेलू मुद्दों को उठाया है जो देश के हालात को पटरी पर लाने के लिहाज से अहम साबित हो सकते हैैं। भ्रष्टाचार को मिटाने और पाकिस्तान में सामाजिक एवं आर्थिक रूप से वंचित वर्गों पर ध्यान केंद्रित करने की उनकी मंशा भली मालूम पड़ती है, मगर इसके कोई संकेत नहीं दिखते कि वह हर चीज को अपने कब्जे में करने वाली बेलगाम सेना पर नजर टेढ़ी करने की मंशा या क्षमता रखते हैं, जबकि तमाम जानकारों की राय में वही पाकिस्तान की तमाम मुश्किलों की जड़ है।

इमरान खान सरकार ने ऐसी अर्थव्यवस्था की कमान संभाली है जो भुगतान संकट के मुहाने पर खड़ी है। बढ़ते व्यापार घाटे और घटते विदेश मुद्रा भंडार ने नई सरकार के समक्ष विकल्प सीमित कर दिए हैं। पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आइएमएफ से 12 अरब डॉलर का भारी-भरकर राहत पैकेज लेने की भी तैयारी कर रहा है। अमेरिका ने आइएमएफ को पहले ही चेता दिया है कि पाकिस्तान को यह कर्ज चीनी कर्ज का बोझ उतारने के लिए नहीं दिया जा सकता। पाकिस्तान का सदाबहार दोस्त चीन संकट की इस घड़ी में उसे नपे-तुले अंदाज में ही मदद मुहैया करा रहा है। बीजिंग ने विदेशी मुद्रा की तात्कालिक जरूरत को पूरा करने के लिए इस्लामाबाद को कथित रूप से 2 अरब डॉलर की राशि दी है।

चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा यानी सीपीईसी का मकसद पाकिस्तान में बुनियादी ढांचे का विकास कर उसकी निष्प्राण पड़ी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना है। चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआइ के तहत पाकिस्तान में 27 अरब डॉलर के निवेश से तैयार होने वाली 20 से अधिक परियोजनाओं पर काम भी चल रहा है।

जब चीन को म्यांमार और मलेशिया जैसे देशों से बीआरआइ के मोर्चे पर विरोध का सामना करना पड़ रहा है जो उसके कर्ज-जाल में फंसने को लेकर सतर्क हुए हैं तब चीन को पाकिस्तान की और ज्यादा जरूरत पड़ने वाली है। इमरान खान के लिए यह आसान नहीं होगा कि वह चीन के साथ रिश्तों की दिशा को ही बदल दें। उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि सीपीईसी परियोजना ऐसी सफेद हाथी न बन जाए जिसकी कीमत पाकिस्तानी करदाताओं को वर्षों तक चुकानी पड़े।

कुल मिलाकर इमरान खान असुरक्षित प्रधानमंत्री ही बने रहेंगे। वह पाकिस्तानी सेना और उसके प्रभाव वाले गठजोड़ की मेहरबानी से ही इस कुर्सी तक पहुंचे हैं और उन्हें पता है कि अगर उन्होंने अपनी मर्जी चलानी शुरू की तो इस कुर्सी को हिला दिया जाएगा। पाकिस्तान की तमाम समस्याओं की वजह वहां की सेना है और इसके कोई संकेत नहीं दिखते कि उसने अपनी पुरानी गलतियों से कोई सबक सीखा है। ऐसे में यह संभावना कम ही दिखती है कि पाकिस्तानी सेना के रवैये और उसकी प्राथमिकताओं में कोई बदलाव आएगा।

इमरान खान ने यह दलील भी दी है कि नया पाकिस्तान बनाने के लिए नई सोच की भी दरकार होगी, लेकिन अभी तक तो ऐसे कोई संकेत नहीं दिखे हैं कि पाकिस्तान के सबसे शक्तिशाली संस्थानों की सोच में कोई नई सोच उभर रही है। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या नई सोच के बिना नया पाकिस्तान बनाने का इमरान खान का अरमान पूरा हो सकता है?

[ लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं ]

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