तकनीक के दौर में गुम होता बचपन, उनकी मासूमियत लौटाने के तरीके ढूंढने ही होंगे

पहले जहां बच्चे स्कूलों में अपने खेल की घंटी का बेसब्री से इंतजार करते थे चित्रकला नाटक संगीत प्रतियोगिताएं और तमाम गतिविधियों की बाट जोहते थे अब उनकी दिलचस्पी इन गतिविधियों में न होकर सिर्फ किसी इलेक्ट्रानिक उपकरण की स्क्रीन में है।

By Jagran NewsEdited By: Publish:Thu, 01 Dec 2022 12:03 AM (IST) Updated:Thu, 01 Dec 2022 12:03 AM (IST)
तकनीक के दौर में गुम होता बचपन, उनकी मासूमियत लौटाने के तरीके ढूंढने ही होंगे
बच्चों के उचित विकास के लिए परिवार जरूरी है, पर स्त्री विमर्श की एक धारा उसे सिरे से नकारती है।

क्षमा शर्मा : पिछले दिनों साहित्य अकादमी ने भारतीय भाषाओं में बच्चों के लिए लिखने वाले 23 लेखकों को बाल साहित्य के लिए पुरस्कृत किया। बाद में दो दिन के समारोह में इनमें से 21 लेखकों को सुनने और बातचीत का अवसर मिला। अपने-अपने क्षेत्र में बच्चों के लिए दशकों से काम करने वाले इन लेखकों की चिंताएं लगभग वही थीं, जो बच्चों के लिए काम करने वाले अन्य तमाम संगठन व्यक्त करते रहते हैं। सबसे प्रमुख चिंता है कि बच्चे मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटाप मिलने से बातचीत करना, खेलना-कूदना, पढ़ना भूल रहे हैं। यह समझ नहीं आ रहा कि कोरोना काल में जो मोबाइल उनके हाथ में पकड़ा दिया गया, उसे वापस कैसे लिया जाए?

पहले जहां बच्चे स्कूलों में अपने खेल की घंटी का बेसब्री से इंतजार करते थे, चित्रकला, नाटक, संगीत प्रतियोगिताएं और तमाम गतिविधियों की बाट जोहते थे, अब उनकी दिलचस्पी इन गतिविधियों में न होकर सिर्फ किसी इलेक्ट्रानिक उपकरण की स्क्रीन में है। एक तरफ तो बच्चों के हाथों में इस तरह की अत्याधुनिक तकनीकें हैं तो दूसरी तरफ लगातार उन्हें तरह-तरह के अपराधों का शिकार भी होना पड़ता है। इनमें यौन अपराध, आर्थिक अपराध और तमाम तरह के साइबर अपराध शामिल हैं।

एकल परिवारों में ज्यादातर माता-पिता अपने-अपने दैनंदिन कामों में व्यस्त हैं, क्योंकि मजबूरी भी है कि काम और नौकरी न करें तो घर कैसे चले, बच्चे कैसे पलें। इसीलिए ऐसे परिवारों के अधिकांश बच्चे डे केयर सेंटर या सहायिकाओं के भरोसे पल रहे हैं। घरों में दादा-दादी, नाना-नानी की अनुपस्थिति ने बच्चों को और भी अकेला किया है। आखिर रात-दिन व्यस्त माता-पिता से बच्चे अपने मन की बातें कैसे करें? बहुत बार तो यह होता है कि बच्चा कुछ कहना चाहता है, किसी बात की जिद करता है तो उसकी समस्या सुनने, उसके निराकरण के बदले उस वक्त उससे पिंड छुड़ाने के लिए किसी चाकलेट या किसी खिलौने से उसे बहला दिया जाता है या डांटकर चुप करा दिया जाता है।

बच्चों के प्रति अधिकांश अपराधों में यही बात सामने आती है कि वे अपने माता-पिता को अपराध के बारे में समय पर नहीं बता सके। कई बार बच्चे अपराधियों के डर से आत्महत्या तक कर लेते हैं और माता-पिता पछताते ही रह जाते हैं। माता-पिता के तनाव और झगड़ों का असर भी बच्चों पर बहुत बुरा पड़ता है और वे अपने बचपन की बुरी यादों से जीवन भर बाहर नहीं निकल पाते।

विशेषज्ञ कहते हैं कि माता-पिता को अपने बच्चों के सामने कभी नहीं लड़ना चाहिए, लेकिन जो माता-पिता अलग हो जाते हैं, तलाक हो जाता है, उन परिवारों में बच्चों की मुसीबतें और भी बढ़ जाती हैं। वे माता-पिता के झगड़ों के बीच में फंस जाते हैं। जबकि बच्चे के सही विकास के लिए माता-पिता दोनों चाहिए। समस्या यह है कि हर विमर्श एक-दूसरे के विरुद्ध नजर आता है। बच्चों के लिए काम करने वाले उनके सही विकास के लिए परिवार को जरूरी बताते हैं।

इन दिनों बुजुर्गों की जो स्थिति हो चली है, उसमें भी परिवार की भूमिका को बार-बार रेखांकित किया जाता है, लेकिन स्त्री विमर्श की एक धारा परिवार को सिरे से ही नकारती है। यह धारा औरतों की हर मुसीबत का ठीकरा परिवार के सिर ही फोड़ देती है। ऐसे में कैसे समस्याओं का हल हो। आखिर बच्चों में बच्चियां भी होती हैं और फिर सिर्फ बच्चियों की ही क्यों, बच्चों की भी बात होनी चाहिए। किसी लड़के के मानवाधिकार लड़कियों से कम नहीं होते। सभी बच्चों को सही पालन-पोषण, सही खान-पान, देखभाल, शिक्षा, मनोरंजन, अपनी बात कहने और सुनाने की आजादी का अधिकार होना चाहिए।

लेखकों की चिंता मातृभाषाओं के सवाल पर भी थी। कहा भी जाता है कि मातृभाषाओं को जानने से बच्चों का सही विकास हो सकता है, मगर जमीनी सच्चाई सालती है। साधन-संपन्न माता-पिता अपने बच्चों के लिए मातृभाषा के मुकाबले अंग्रेजी को प्राथमिकता देते हैं। इसका एक बड़ा कारण है कि अंग्रेजी को बच्चों की सफलता और उज्ज्वल भविष्य से जोड़ दिया गया है। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाली महिला ने बताया कि मातृभाषा के माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों के बायोडाटा नौकरी के वक्त एक तरफ खिसका दिए जाते हैं। लेखकों ने यह भी कहा कि वे किसी भी भाषा के विरोधी नहीं हैं। अंग्रेजी के भी नहीं, लेकिन मातृभाषाओं को ज्यादा प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

बहुत से शोधों ने यह साबित किया है कि बच्चा गर्भ में ही अपने घर वालों द्वारा बोली हुई भाषा को न केवल समझने लगता है, बल्कि आवाज से पहचानने भी लगता है। अभिमन्यु की कथा भी लगभग ऐसी ही है, लेकिन जब से देश में मध्य वर्ग का विस्तार हुआ है, तब से शिक्षा का मतलब मातृभाषाओं के मुकाबले अंग्रेजी को मान लिया गया, बना दिया गया। यह हर जगह दिखता है। एक लेखक ने तो यहां तक कहा कि मजबूरी में उसे अंग्रेजी में अपना भाषण पढ़ना पड़ रहा है।

सवाल है कि आखिर लेखकों की इन वाजिब चिंताओं पर कैसे ध्यान दिया जाएगा? कैसे मातृभाषाओं में भी पढ़ाई करने पर बच्चों को नौकरी तथा अन्य काम-धंधों के अच्छे अवसर प्राप्त होंगे? कैसे वे अपने मन की बात अपने परिवार वालों को बता सकेंगे? कैसे उपेक्षा या डांट के बजाय उनकी समस्या हल हो सकेगी? कैसे वे हिंसा से बच सकेंगे? कैसे बच्चे अकेलेपन की समस्या से मुक्त होंगे? कुछ लोग सलाह देते हैं कि अनाथालयों और वृद्धाश्रमों को अगर जोड़ दिया जाए तो बच्चों एवं बुजुर्गों का अकेलापन कम हो सकता है।

(लेखिका साहित्यकार हैं)

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