इस 'खतरनाक' बीमारी से अगले 4 वर्ष में मर जाएंगे 30 लाख लोग, जानें वजह

चबाने वाले तंबाकू से मुंह व आहार नाल का कैंसर सर्वाधिक होता है।

By JP YadavEdited By: Publish:Tue, 16 Jan 2018 08:07 AM (IST) Updated:Wed, 17 Jan 2018 12:57 PM (IST)
इस 'खतरनाक' बीमारी से अगले 4 वर्ष में मर जाएंगे 30 लाख लोग, जानें वजह
इस 'खतरनाक' बीमारी से अगले 4 वर्ष में मर जाएंगे 30 लाख लोग, जानें वजह

नोएडा (धर्मेंद्र मिश्रा)। स्मॉकलेस टोबैको ऑन व‌र्ल्ड नॉलेज हब, नोएडा (एसएलटी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक चबाने वाले तंबाकू के 91 फीसद उपभोक्ता गरीब व मध्य वर्गीय देशों के हैं। दुनिया में चबाने वाले तंबाकू से होने वाली कुल मौतों का 88 फीसद दंश गरीब व मध्य वर्गीय देश ही झेल रहे हैं।

ऐसे में व‌र्ल्ड नॉलेज हब ने विश्व स्वास्थ्य संगठन व विकसित देशों से गरीब व मध्यम वर्गीय देशों को चबाने वाले तंबाकू से कैंसर के खिलाफ जंग में आर्थिक व अन्य मदद की अपील की है। साथ ही चबाने वाले तंबाकू से होने वाले कैंसर पर अधिक काम करने का सुझाव भी दिया है।

6.5 लाख लोगों की हर साल जा रही जान

व‌र्ल्ड नॉलेज हब के अनुसार 6.5 लाख से अधिक लोग प्रति वर्ष चबाने वाले तंबाकू से होने वाले कैंसर के कारण मौत के मुंह में समा रहे हैं। इनमें से करीब साढ़े पांच लाख मौतें गरीब व मध्य वर्गीय देशों में हो रही हैं। भारत, बांग्लादेश, भूटान व नेपाल में 80 फीसद से अधिक तंबाकू उपभोक्ता हैं। मौतों का अांकड़ा यही रहा तो इस हिसाब से अगले चार साल में तकरीबन 30 लाख लोगों की मौत हो जाएगी।

भारत में नेशनल क्विट लाइन शुरू होने से तंबाकू छोड़ने की इच्छा जताने वालों की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन इसमें निकोटीन (नशा) की मात्रा सिगरेट-बीड़ी की तुलना में चार गुना अधिक होने से इस अभियान में भी बाधा आ रही है। इस बाधा को दूर करने के लिए व‌र्ल्ड नॉलेज हब ने भारत सरकार को नेशनल क्विट लाइन को जल्द से जल्द स्थानीय भाषाओं में अलग-अलग राज्यों की क्विट लाइन से जोड़ने का सुझाव दिया है।

अहिंदी भाषी राज्यों के लोगों को भाषा की वजह से आ रही परेशानी

वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि तमिल, तेलगू, बंगाली, उडि़या व अन्य भाषाओं को जानने वाले लोग इसलिए नेशनल क्विट लाइन का लाभ नहीं ले पा रहे कि उन्हें अपनी भाषा में ही बात गहराई से समझ में आती है।

लोगों को कराना होगा नुकसान को लेकर अहसास

वैज्ञानिकों के अनुसार, अपनी स्थानीय भाषा में जब तंबाकू छोड़ने की इच्छा जाहिर करने वालों को प्रेरित किया जाता है, तो बात उनके दिल तक पहुंचती है। जब तक तंबाकू से होने वाले खतरे का एहसास दिल तक गहराई से नहीं होता, तब तक एसएलटी छोड़ना आसान नहीं है।

कंपनियां दिखा रही चालाकीं, बेंच रही हैं तंबाकू का विकल्ल

रिपोर्ट तैयार करने वाले मुख्य ऑथर व व‌र्ल्ड नॉलेज हब के पूर्व कंसल्टेंट डॉ. धीरेन्द्र सिन्हा ने कहा कि नए शोध में यह बात सामने आई है कि कंपनियां चालाकी से चबाने वाले तंबाकू का विकल्प (दोहरा, गुलमंजन, मावा, सूंघने वाला तंबाकू, खैनी, टॉफी, केक, चॉकलेट) तैयार कर बाजार में बेच रही हैं। इसके पीछे वजह यह है कि उपभोक्ता अधिक आकर्षित हो सकें और संशय में भी रहें जबकि यह सभी कैंसरकारक हैं। इसमें 30 से अधिक प्रकार के केमिकल्स होते हैं।

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88 फीसद मौतें गरीब देशों में हो रही हैं

पूर्व कंसल्टेंट, व‌र्ल्ड नॉलेज हब व निदेशक डॉ. धीरेंद्र सिन्हा ने बताया कि चबाने वाले तंबाकू के 91 फीसद उपभोक्ता गरीब व मध्यम वर्गीय देशों के हैं। इसकी वजह से होने वाली दुनिया की कुल मौतों में से 88 फीसद मौत भी इन्हीं देशों में हो रही है। अभी तक यह आंकड़ा दुनिया के पास नहीं था, क्योंकि इस पर कोई शोध नहीं किया गया था। अब यह ताजा आंकड़ा सामने है, इसलिए डब्ल्यूएचओ समेत विकसित देशों को चाहिए कि वह एसएलटी से होने वाले कैंसर से जंग में गरीब देशों की हर तरह मदद करें।

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स्थानीय भाषा में भी क्विट लाइन शुरू होगी

व‌र्ल्ड नॉलेज हब व एनआइसीपीआर, नोएडा के निदेशक डॉ. रवि मेहरोत्रा का कहना है कि चबाने वाले तंबाकू से मुंह व आहार नाल का कैंसर सर्वाधिक होता है। यह तंबाकू सस्ता होता है, इसलिए इसके उपभोक्ता गरीब व मध्य वर्गीय देशों में ही अधिक हैं। तंबाकू छोड़ने वालों को प्रेरित करने के लिए जल्द ही स्थानीय भाषा में भी क्विट लाइन शुरू कराने पर जोर है। कुछ नए विकल्प भी लेकर आ रहे हैं।

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