कॉल संबंधी दिक्कतें जुगाड़ के कारण
पुरानी तकनीक को ही जोड़-जुगाड़ के जरिये अपग्रेड करने की टेलीकॉम कंपनियों की कोशिशों के कारण ही भारतीय ग्राहकों को कॉल ड्रॉप समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
संजय सिंह, नई दिल्ली: वक्त के साथ पूर्णतया नई तकनीक व तंत्र अपनाने के बजाय पुरानी तकनीक को ही जोड़-जुगाड़ के जरिये अपग्रेड करने की टेलीकॉम कंपनियों की कोशिशों के कारण ही भारतीय ग्राहकों को कॉल ड्रॉप ही नहीं बल्कि कॉल फेल जैसी नेटवर्क और कनेक्टिविटी से जुड़ी अन्य समस्याओं का सामना भी करना पड़ रहा है।
एक अध्ययन के मुताबिक 60 फीसद मोबाइल ग्राहक नेटवर्क व कनेक्टिविटी की किसी न किसी समस्या से जूझ रहे हैं। इनमें कॉल ड्रॉप के अलावा खराब वॉइस क्वालिटी, आवाज फटना या कट-कट कर आना, घरों या इमारतों के भीतर धीमी आवाज तथा रोमिंग के वक्त इंटरनेट कनेक्ट न होना शामिल है। यदि आप ट्रेन में चल रहे हैं अथवा आपकी फ्लाइट ने तुरंत लैंड किया है तो काल कनेक्ट नहीं होती या इसमें वक्त लगता है। ऊंची इमारतों, घनी बस्तियों या सुदूर इलाकों में रहने वाले लोग इन समस्याओं से सर्वाधिक त्रस्त हैं। गुड़गांव के कई कांप्लेक्सों में आज भी मोबाइल सिग्नल गायब रहते हैं।
टेलीकॉम कंपनियां इसका सबसे बड़ा कारण स्पेक्ट्रम की कमी बताते हैं। भारतीय टेलीकॉम आपरेटरों के पास उतना स्पेक्ट्रम नहीं है, जितना दूसरे देशों की कंपनियों के पास है। उदाहरण के लिए सिंगापुर और दिल्ली में सबसे प्रमुख टेलीकाम ऑपरेटर के पास लगभग एक समान मोबाइल ग्राहक होने के बावजूद दिल्ली की कंपनी के पास सिंगापुर की कंपनी के मुकाबले केवल 20 प्रतिशत स्पेक्ट्रम है। अत्यधिक कीमत के चलते मोबाइल कंपनियां उपलब्ध स्पेक्ट्रम की भी पर्याप्त खरीद नहीं करती हैं। आज तक यहां किसी भी आपरेटर के पास 700 मेगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम नहीं है। जबकि कनेक्टिविटी के लिहाज से इसे सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
दूसरी समस्या टावरों की है। शुरू में मोबाइल कंपनियों ने तेजी से टावर लगाए थे। लेकिन बाद में जब स्वास्थ्य संगठनों ने रेडिएशन का शोर मचाया, अनेक जगहों से टावर हटवा दिए गए। इससे एक समय तो कॉल ड्रॉप और कनेक्टविटी का स्तर एकदम रसातल पर चला गया था। फिर जब कॉल ड्रॉप को लेकर हल्ला शुरू हुआ और सरकार के दबाव में कंपनियों ने नई जगहों पर टावर लगाए तो पहले जैसी बात नहीं बनी क्योंकि तब तक ग्राहकों, इमारतों के विस्तार के साथ-साथ मोबाइल तकनीक बदल चुकी थी। फिर जिन नए स्थानों पर टावर लगाए गए, उनसे पुरानी स्थान ठीक से कनेक्ट नहीं हो पाये हैं।
टेलीकाम कंपनियों का कहना है कि वे इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च बढ़ाने को तैयार हैं। मगर उनकी आमदनी में वांछित बढ़ोतरी नहीं हो रही है। हालत यह है कि एक अरब से यादा मोबाइल ग्राहकों के बावजूद यादातर ग्राहक सौ-डेढ़ सौ रुपये जैसी छोटी राशि हर महीने खर्च करते हैं। यह विश्व में सबसे कम हैं जो इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध है, उसका भी ग्राहक ठीक से इस्तेमाल नहीं करते। नेटवर्क व्यस्त होने के बावजूद इंतजार करने के बजाय लगातार डायल करते रहते हैं। इससे नेटवर्क पर दबाव पड़ता है।
भारतीय टेलीकॉम ऑपरेटर 850 से लेकर 900, 1800, 2100 और 2300 मेगाहट्र्ज के स्पेक्ट्रम से काम चला रहे हैं। इनमें भी बहुत कम स्पेक्ट्रम का उपयोग जीएसएम तकनीक के लिए हो रहा हैं। बाकी यादातर सीडीएमए, सीडीएमए-वन, सीडीएमए 2000, यूएमटीएस, एचएसपीए, एलटीई, एलटीए-ए, टीडी-एलटीए, ईवीडीओ, वाइमैक्स तथा एचएसडीपीए या इन सबकी सम्मिलित तकनीक पर निर्भर हैं जो 2जी व 3जी तथा कुछ हद तक 4जी को सपोर्ट करती हैं। जिन ऑपरेटरों ने 2जी से शुरुआत की थी उन्होंने बाद में 3जी और फिर 4जी के लिए नया तंत्र स्थापित करने के बजाय सस्ती जुगाड़ तकनीकों को पुरानी तकनीक के साथ जोड़ा है। कई ऑपरेटर एलटीए तकनीक को 4जी कहकर बेच रहे हैं।