गर्मी बढ़ते ही ताल-तलैया सूखे, पानी की तलाश में जंगल से बाहर निकल रहे वन्य जीव

पश्चिमी चंपारण। वाल्मीकि ब्याध्र परियोजना के वन्यक्षेत्र में गर्मी बढ़ने के साथ ही जलस्त्रोतों के सूखने से वन्यजीव भी पेयजल के लिए भटकने लगे हैं।

By JagranEdited By: Publish:Fri, 29 May 2020 09:08 PM (IST) Updated:Sat, 30 May 2020 06:14 AM (IST)
गर्मी बढ़ते ही ताल-तलैया सूखे, पानी की तलाश में जंगल से बाहर निकल रहे वन्य जीव
गर्मी बढ़ते ही ताल-तलैया सूखे, पानी की तलाश में जंगल से बाहर निकल रहे वन्य जीव

पश्चिमी चंपारण। वाल्मीकि ब्याध्र परियोजना के वन्यक्षेत्र में गर्मी बढ़ने के साथ ही जलस्त्रोतों के सूखने से वन्यजीव भी पेयजल के लिए भटकने लगे हैं। नरदेवी जंगल से सटा त्रिवेणी मृत कैनाल है, जहां जंगली वन्य जीव अक्सर पानी पीने आते हैं। गर्मी के मौसम आते ही यह मृत कैनाल सूखने के कगार पर है। जिससे यहां विचरण करने वाले वन्यजीव पानी के भटक रहे हैं। यहीं हाल जंगल के मध्य स्थित प्राकृतिक जल स्त्रोतों का भी है। बाघ, तेन्दुआ, हिरण, खरगोश, लोमड़ी व अन्य कई शाकाहारी व मांसाहारी वन्य जीवों का हाल एक सा ही है। जंगलों और झील में पानी की कमी होने से वन्यजीव पानी के तलाश में भटकते हुए सडक़ किनारों तक पहुंच जाते हैं। जिसके बाद सडक़ हादसों में कई वन्यजीवों की जान चली जाती है या वे शिकारियों के हत्थे भी चढ़ जाते हैं। गर्मियों में भोजन पानी के तलाश में वन्य जीवों का रिहायशी इलाकों में आना आम बात है। हालांकि गंडक, तमसा एवं सोनभद्र नदी के तट पर अधिकांश वन्यजीव अपनी प्यास बुझाते हैं। कभी नील की खेती के लिए खोदी गयी नहर अब बड़े तालाब में परिणत हो चुकी है। इस मृत कैनाल में फिलहाल मछली पालन किया जाता है। गर्मी के प्रारंभ में ही यह जलाशय अब सूखने लगा है। ऐसी स्थिति में जहां जल संक्षरण के संवाहक स्त्रोतों का अस्तित्व खतरे में है, वही वन्य जीवों के समक्ष पेयजल का संकट उत्पन्न हो गया है। जानकारों की मानें तो अब तालाबों का उपयोग जल संचय के बजाय कूड़ा-कर्कट फेंकने के रूप में किया जा रहा है। आजादी से पूर्व 1910 ई में अंग्रे•ाो के द्वारा इस कैनाल का निर्माण कराया गया था। उस समय यह कैनाल प्राकृतिक रमणीयता के बीच सिचाई का प्रमुख साधन था। मगर सामाजिक सोच में आए बदलाव एवं प्रशासनिक उदासीनता के चलते यह ऐतिहासिक धरोहर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में एक बूंद पानी के लिए स्वयं प्यासा है।

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जल संरक्षण के संवाहक स्त्रोतों के निर्माण कार्य पर मनरेगा सहित अन्य योजनाओं के तहत लाखों रुपये प्रतिवर्ष खर्च हो रहे हैं। लेकिन, जो पूर्व से निíमत धरोहर हैं, उनका रख-रखाव एवं साफ-सफाई कराना क्या संभव नहीं है। मगर इसका जवाब प्रशासनिक अधिकारियों एवं पंचायत प्रतिनिधियों के लिए दे पाना कठिन है। बदहाली के कारण पहले जल संरक्षक के संवाहक स्त्रोतों पर ही आम आदमी से लगायत वन्य प्राणियों की पेयजल व्यवस्था आश्रित थी। अब हर घर चापाकल व बोरिग की व्यवस्था हो जाने से लोगों का ध्यान तालाब, कुंआ आदि को संरक्षित रखने से हट गया है। समाज के कुछ प्रबुद्ध लोग इसे बचाने के लिए प्रयास भी कर रहे हैं तो उन्हें प्रतिनिधियों व प्रशासनिक अधिकारियों का सहयोग नहीं मिल रहा है। आज इस कैनाल की जो स्थिति है, वह बेहद दयनीय है। सूखे पड़े तालाबों को लोग शौचालय के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। इस ओर किसी की नजरें इनायत नहीं हो रही है। जो अभियान की सफलता पर सवाल खड़ा कर रहा है। मछली पालक नंद किशोर सहनी बताया कि जल संरक्षण के लिए तालाबों को बचाना बेहद जरूरी है। ऐतिहासिक धरोहर को बचाना न सिर्फ प्रशासनिक बल्कि सामाजिक स्तर पर हम सबकी जिम्मेदारी है।

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