बिहार में मिलने-बिछड़ने की सियासत जारी, फिर टूट की ओर बढ़ रहा अटूट महागठबंधन

लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद महागठबंधन में एक बार फिर से टूट की खबरें आ रही हैं। अपने-अपने स्वार्थ के लिए फिर से मिलने बिछड़ने की सियासत जारी है।

By Kajal KumariEdited By: Publish:Fri, 07 Jun 2019 09:57 AM (IST) Updated:Sat, 08 Jun 2019 01:53 PM (IST)
बिहार में मिलने-बिछड़ने की सियासत जारी, फिर टूट की ओर बढ़ रहा अटूट महागठबंधन
बिहार में मिलने-बिछड़ने की सियासत जारी, फिर टूट की ओर बढ़ रहा अटूट महागठबंधन

पटना [अरविंद शर्मा]। बिहार की सियासत में सांकेतिक गतिविधियां सिर्फ राजग में ही नहीं, बल्कि दूसरी तरफ भी चल रही हैं। घटक दलों की बेकरारी बता रही है कि महागठबंधन में मतलब की यारी फिर टूटने वाली है। जिनके बीच याराना था, वे अब कन्नी काटने लगे हैं। दुश्मन की भाषा बोलने लगे हैं।

 लोकसभा चुनाव से पहले राजग के खिलाफ बिहार में पांच दल एकजुट हुए थे। राजद-कांग्रेस गठबंधन से जदयू के हटने के बाद हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम), राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) और नवगठित वीआईपी का महागठबंधन में प्रवेश हुआ था। सबने मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाया। चुनाव लड़े और हार गए। अब यूपी की तरह फिर नई राह पर हैं। 

 लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव अज्ञातवास में हैं। नतीजे के बाद से ही बिहार से बाहर हैं। दोनों सीटों पर खुद हारकर रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा दोहरे सदमे में हैं। समीक्षा करा रहे हैं।

रिपोर्ट का इंतजार है कि लालू का वोट बैंक ट्रांसफर हुआ या नहीं। यादवों ने अगर वोट नहीं किया तो गठजोड़ का मतलब क्या रह जाएगा। कुशवाहा की गतिविधियां बता रही हैं कि धीरे-धीरे एकला चलो की राह पर बढ़ रहे हैं।

 मुकेश सहनी सियासत की दुनिया से निकलकर मुंबई लौट गए हैं। व्यवसाय में व्यस्त हो गए हैं। जीतनराम मांझी को महागठबंधन का माहौल रास नहीं आ रहा है। वह नए कुनबे से प्रेरित-प्रोत्साहित हो रहे हैं। इफ्तार की दावत के बहाने आना-जाना शुरू हो चुका है। गले मिल चुके हैं। दिल का मिलन अभी बाकी है।

कांग्रेस और राजद के रिश्ते में भी पहले जैसा भाव नहीं दिख रहा है। कांग्रेस के कुछ लोग अकेले चलने के पक्ष में हैं तो कुछ को आलाकमान का अनुसरण करना है। दिल्ली से निर्देश मिलना बाकी है। फिलहाल नफा-नुकसान का आकलन किया जा रहा है। 

 कल गोद में, आज विरोध में

लोकसभा चुनाव के पहले जातीय गठजोड़ करके एक-दूसरे के सहारे संसद पहुंचने के सपने सजाए कई दल सक्रिय हो गए थे। सबको राजद का माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण दिख रहा था। राजद के नए उत्तराधिकारी को भी जातियों की व्यापक गोलबंदी दिख रही थी।

 कुशवाहा, मांझी और सहनी एक-एक करके राजग की गोद से उछलकर राजद-कांग्र्रेस गठबंधन के साथ खड़े हो गए। पाला बदला तो मौकापरस्ती की परिभाषा भी बदल दी। चार साल तक जिनके पास शिक्षा महकमा था, उन्हें शिक्षा व्यवस्था में अचानक खोट दिखने लगी है।

 समाजवादी नेता शरद यादव ने भी जब जैसा-तब तैसा की बड़ी नजीर पेश की। राजद की राजनीति का विरोध करके मधेपुरा से लालू को हराने वाले शरद इस बार मतलब निकालने के लिए गोद में बैठ गए।

 इसी तरह मंडल की राजनीति से पहले लालू प्रसाद ने कांग्रेस के विरोध के लिए भाजपा से भी परहेज नहीं किया था। लालू खुद को जेपी की संपूर्ण क्रांति की उपज बताते हैं। जेपी की यह क्रांति कांग्रेस के विरोध में हुई थी, किंतु लालू आज कांग्रेस के बड़े साझीदार हैं।

 चुनाव प्रक्रिया के दौरान भी यू-टर्न 

बिहार में महागठबंधन का नेतृत्व करने वाले तेजस्वी यादव ने प्रारंभ में तो बाहुबली विधायक अनंत सिंह को बैड एलीमेंट  बताया। कांग्र्रेस अड़ी और राजद को जरूरत महसूस हुई तो तेजस्वी ने अनंत को गले से भी लगा लिया। अपने प्रमुख नेता रघुवंश प्रसाद सिंह के समर्थन में वैशाली में अनंत सिंह का रोड शो कराया।

 पाटलिपुत्र सीट पर अपनी बहन डॉ. मीसा भारती की जीत सुनिश्चित कराने के लिए भी तेजस्वी को अनंत के बाहुबल की जरूरत महसूस हुई। तेजस्वी ने खुद भी अनंत के लिए मुंगेर में चार-चार सभाएं की। महज कुछ दिनों के दौरान ही विचारों की पलटी का यह बड़ा उदाहरण है। 

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