बिहार विधानमंडल का बजट सत्र: सियासत की भेंट चढ़ गए जनहित के मुद्दे, जानिए

बिहार विधानमंडल के हाल में संपन्‍न बजट सत्र में हंगामा तो खूब हुआ, लेकिन जनता के मुद्दे हाशिए पर चले गए। क्‍या है मामला, जानने के लिए पढ़ें खबर।

By Amit AlokEdited By: Publish:Wed, 04 Apr 2018 09:14 PM (IST) Updated:Thu, 05 Apr 2018 10:45 PM (IST)
बिहार विधानमंडल का बजट सत्र: सियासत की भेंट चढ़ गए जनहित के मुद्दे, जानिए
बिहार विधानमंडल का बजट सत्र: सियासत की भेंट चढ़ गए जनहित के मुद्दे, जानिए

पटना [अरविंद शर्मा]। विधानमंडल की बैठकों से जनता की उम्मीदें जुड़ी रहती हैं। 26 फरवरी से तीन अप्रैल तक चलने वाले बिहार विधानमंडल के बजट सत्र की 23 बैठकों में हंगामा, नारेबाजी, आरोप-प्रत्यारोप, धरना-प्रदर्शन और बहिष्कार पर मुख्य फोकस रहा और जनहित के मुद्दे हाशिये पर चले गए। यहां तक कि राष्ट्रमंडल संघ के सतत विकास के लक्ष्यों के अनुरूप सदन का विशेष विमर्श भी सियासत की भेंट चढऩे से नहीं बचा।

राज्य सरकार ने अपने सारे काम कर लिए। विधेयक पास हो गए। विपक्ष की सियासत भी चमक गई, किंतु जिसके लिए करोड़ों खर्च करके बैठकें बुलाई गई थीं, वह ठगा रह गया। जनहित के मुद्दों पर न चर्चा हुई, न समाधान निकला।

विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी की अपील को भी दरकिनार करते हुए विपक्ष का वेल में आकर हंगामा करना नहीं रुका, जिसकी वजह से अधिकतर दिनों में पहली पाली पांच-दस मिनट से ज्यादा नहीं चल सकी।

महागठबंधन के बिखरने के बाद नई सरकार के पहले बजट सत्र में राजद-कांग्रेस ने सदन में दमदार विपक्ष की भूमिका निभाने की बात कही थी।

पूरी कार्यवाही में मौजूद रहकर सार्थक विमर्श करने और जनविरोधी नीतियों पर सरकार को दमदारी से घेरने की तैयारी थी, लेकिन हुआ उल्टा। राजद विधायक लगातार हंगामा एवं किसी न किसी बहाने से सदन का बहिष्कार करते आए। यही कारण है कि विधानसभा में स्वीकृत 3151 प्रश्नों की सूची में महज 247 प्रश्नों के जवाब ही दिए जा सके। 2904 सवालों के जवाब ही नहीं दिए जा सके।

हैरत की बात यह कि सदन की बैठकें अधिकतर सियासी वजहों से बाधित रही। कभी एससी-एसटी एक्ट व भारत बंद तो कभी लालू प्रसाद यादव एवं अर्जित शाश्वत के मसले पर बहिष्कार होता रहा। विपक्ष राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करता रहा तो सत्ता पक्ष को जवाब देने से बचने का मौका मिलता रहा।

विधानसभा की बैठकें सत्ता पक्ष और नौकरशाह को अधिक जवाबदेह बनाने में सहायक होती हैं। विपक्ष के लिए यह बड़ा लोकतांत्रिक हथियार है, जिसके जरिए सरकार की कमियों को उजागर करके पब्लिक के सामने बेनकाब करने की कोशिश होती है। अगर सदन में भी सियासत होगी, बैठकें ही नहीं चलने दी जाएंगी, सवाल ही नहीं पूछे जाएंगे तो ऐसा विमर्श एकतरफा हो जाएगा। इसमें राज्य सरकार निरंकुश हो जाएगी। सबकुछ अपने मुताबिक करने लगेगी।

विपक्ष की कड़ी प्रतिक्रिया, आचार-विचार और व्यवहार की बातें मीडिया में जरूर आईं, लेकिन सरकार पर नहीं लग सका। बजट में कटौती प्रस्ताव पर कभी-कभी ही चर्चा हो सकी। चार महत्वपूर्ण विधेयक भी राज्य सरकार ने विपक्ष की गैरमौजूदगी में ही पास कर लिए। जाहिर है, जब कार्यवाही ही नहीं चलने दी गई तो जन-हित के मुद्दों पर संपूर्ण दृष्टिकोण से विमर्श कैसे हो सकता था।

हंगामे की भेंट चढ़ गए 12 करोड़

विधानमंडल के दोनों सदनों के सदस्यों के आने-जाने और राजधानी में रहकर बैठकों में हिस्सा लेने पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। इस दौरान शासन-प्रशासन का पूरा अमला सक्रिय रहता है। सदस्यों के सवालों के जवाब को भी बारीकी और गंभीरता से तैयार किए जाते हैं। विधानमंडल की बैठकों एवं सदस्यों के भत्ते पर प्रतिदिन 50 से 55 लाख रुपये खर्च होते हैं। बजट सत्र में कुल 23 बैठकें हुईं। इस हिसाब से राज्य सरकार के करीब 12 करोड़ रुपये से अधिक खर्च हो गए। जनता के पैसे से वेतन एवं भत्ते लेने वाले जनप्रतिनिधियों को जनहित के मुद्दों को प्राथमिकता देनी चाहिए थी।

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