फिल्‍मी नहीं हकीकत है यह कहानी, एक 'गुंडा' जिसे बापू ने बना दिया 'गांधी'

गांधी के किरदार में जब इतना दम है तो गांधी में कितना होगा, समझा जा सकता है। इसने एक गुंडा को अहिंसा का पुजारी बना दिया। आज उसकी पहचान गांधी' के रूप में है। कौन है वह, जानिए...

By Amit AlokEdited By: Publish:Sun, 05 Aug 2018 11:33 AM (IST) Updated:Mon, 06 Aug 2018 10:16 PM (IST)
फिल्‍मी नहीं हकीकत है यह कहानी, एक 'गुंडा' जिसे बापू ने बना दिया 'गांधी'
फिल्‍मी नहीं हकीकत है यह कहानी, एक 'गुंडा' जिसे बापू ने बना दिया 'गांधी'

पटना [कुमार रजत]। कहानी फिल्मी लगती है, मगर है हकीकत। 80 के दशक में एक गुंडा था जिसकी पटना के खजांची रोड, महेंद्रू और पटना विश्वविद्यालय के आसपास के इलाकों में तूती बोलती थी। वह थप्पड़ पहले मारता और बात बाद में करता। खौफ इतना कि उसके आने से पहले इलाके में हल्ला हो जाता कि भागो... हज्जू आ रहा है। आज उसी हज्जू की पहचान पूरी राजधानी में 'गांधी' के रूप में है।
रोचक है गुंडा से गांधी तक का सफर
हिंसा के लिए कुख्यात हज्जू आज अहिंसा के पुजारी हैं। इस शख्स का पूरा नाम है- सुरेश कुमार 'हज्जू' मगर रंगमंच की दुनिया में वे हज्जू के नाम से ही प्रसिद्ध हैं। एक गुंडे से गांधीवादी बनने की कहानी भी कम रोचक नहीं। अब 58 वर्ष के हो चुके हज्जू उसी रोचकता से इसे बताते भी हैं।
विलेन की तरह ही पहनता था कपड़े
कहते हैं, 1980 के समय मेरी पहचान एक दादा यानी गुंडे के रूप में थी। ऐसा नहीं था कि मैं आदतन अपराधी था मगर स्वभाव हिंसक था। कपड़े भी वैसे ही पहनता जैसे उस दौर में फिल्मी विलेन पहनते थे। चमड़े से बने, या तो एकदम सफेद या काले।
फिल्‍में देखने और एक्टिंग का था शौक
फिल्में देखने का शौक भी था। जो फिल्म देखता, उसकी पूरी कहानी एक्टिंग कर दोस्तों को सुनाता। इसी बीच मेरे दोस्त सुनील ने मुझे एक्टिंग करने की सलाह दी और मैं रंगमंच से जुड़ गया।

नाटक के बाद मारने दौड़ी थी पब्लिक
1983 में पटना कॉलेज में उन्हें पहला नाटक करने का मौका मिला। पहला रोल ही मिला विलेन का। हज्जू की पहचान पहले से ही इलाके में गुंडे की थी, उसपर विलेन का जीवंत किरदार। नाटक खत्म होते-होते पब्लिक हज्जू को पीटने दौड़ पड़ी। वे भागे-भागे दरभंगा हाउस पहुंचे। बाद में नाटक के निर्देशक और कॉलेज प्रबंधन ने गुस्साए लोगों को समझाया कि ये नाटक का किरदार मात्र है।
बापू के किरदार से आया बदलाव
इसके बाद रंगमंच से हज्जू का जो जुड़ाव हुआ वो बढ़ता ही चला गया। लेकिन निर्णायक मोड़ आना अभी शेष था। हज्जू कहते हैं, मैं रंगमंच से जुड़ तो गया मगर हिंसा कहीं न कहीं अब तक मुझमे जिंदा थी। मेरी जिंदगी का अहम पड़ाव आया वर्ष 1991 में जब मैंने पहली बार महात्मा गांधी का किरदार निभाया। यह एक स्कूल का कार्यक्रम था।
इसके पहले कई कलाकार इस रोल को करने से मना कर चुके थे क्योंकि बापू का किरदार निभाने के लिए सिर मुड़वाने की शर्त रखी गई थी। मैंने हामी भर दी। गांधी के किरदार को जीते हुए मैंने सच और अहिंसा की ताकत महसूस की। अगले साल ही गांधी मैदान में दो अक्टूबर को फिर से गांधी जी का किरदार निभाया। उनकी शहादत का सीन देखकर तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद काफी प्रभावित हुए और सरकारी नौकरी ऑफर की। विद्युत विभाग में नौकरी मिली भी।
करीब से महसूस किया गांधीजी के प्रति श्रद्धा
पिछले साल चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष में हज्जू ने 11 से 17 अप्रैल तक पटना से चंपारण पैदल मार्च किया। वे कहते हैं, इस दौरान गांधीजी के प्रति लोगों की श्रद्धा को और करीब से महसूस किया। जिधर से मैं गुजरता, ग्रामीणों का जत्था बापू की जय-जयकार करता पीछे-पीछे चलने लगता। कोई पांव धोता तो कोई खाने का सामान लेकर आता। चंपारण के ग्रामीण मिलने आए तो बोले- गांधी जी आप फिर आइए, आपकी जरूरत है...। उस समय मेरी भी आंखें भर आईं।
पता ही नहीं चला कब गायब हो गई हिंसा
हज्जू कहते हैं, ये रंगकर्म और बापू के किरदार का ही असर है कि मेरे अंदर की हिंसा कब गायब हो गई, पता ही नहीं चला। जो हज्जू बम-बंदूक की बात करता था, अब लोगों को अहिंसा की सीख देता है। हज्जू कहते हैं, बापू ने मेरा जीवन बदला। अच्छा लगता है, जब मुझे लोग गांधी जी के नाम से पुकारते हैं।

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