ग्रामीण खेल : लागत शून्य मनोरंजन भरपूर
जागरण प्रतिनिधि, बड़हरा (भोजपुर) : खेल सिर्फ मनोरंजन का साधन ही नहीं बल्कि शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक व सांस्कृतिक विकास की गति में मिल का पत्थर भी है। खेलों की भी अपनी-अपनी परंपरा होती है। और यह परंपरा मानव के संपूर्ण जीवन काल से जुड़ी है। भले ही बातों का एहसास सहजता से न हो, पर याद करें अपने बाल्यकाल में खेले व देख चुके 'पारंपरिक खेल' एक-एक कर कैसे विलुप्त होते जा रहे हैं। एक समय था जब 'आसपास' के लड़के या लड़कियां अपने-अपने समूह में खेल भरपूर मनोरंजन करते थे। 'गुली-डंडा' में लड़के दो गुटों में बंट गुली को डंडे से मार जीत के लक्ष्य को पाने की जी तोड़ कोशिश करते हैं। लागत शून्य मनोरंजन भरपूर। 'पिट्ठो' खेलने में बच्चे गेंद से साथियों के पीठ पर प्रहार कर खूब आनंद लेते थे। 'रूमाल-चोर' में दोस्तों को छकाना, 'बोड़ा-दौड़', 'सुई-धागा दौड़', 'जलेबी-दौड़' में खिलाड़ियों के साथ दर्शकों को भी मजा आता था। 'गोटी' लड़कियों की खास पसंद का खेल था। 'गोली' यानी 'अंटी' को लड़के गली में भी जमा देते थे। खेलों में 'जवनकी कबड्डी', 'बुढि़या कबड्डी' व 'चीका' की खास पहचान थी। कबड्डी की अस्मिता खतरे में है। शारीरिक व मानसिक स्फूर्ति के साथ खेले जाने वाले इस खेल में खिलाड़ी कौशल का बखूबी इस्तेमाल करते थे। चल कबड्डी आस लाल मर गया परकाश लाल तथा आव तानी रे, डेरइहे मत रे, कपार कान फुटी लड़िकपन छूटी, लड़िकपन छुटी.. 'नौ गोटिया', 'चौबीस गोटिया' अब कोई नहीं जानता। 'ओका-बोका' तीन तड़ोका लउआ लाठी चंदन काठी का जमाना बीत चुका। 'आंख-मुंदवल', 'बेटा-बेटी', 'बाघ-बकरी', 'कौआ-कौआ', 'चकवा-चकइया' क्या है? कुछ नहीं जानते बच्चे। हां 'चोर-सिपाही' की पहचान थोड़ी-थोड़ी बची है। 'डोल्हा-पाती' खेल में ही बच्चे पेड़ों पर चढ़ना सीख जाते थे। चूड़ी-चाई भी खत्म हो गया। 'घुघुआ माना' उपजे धाना, आदि हमेशा के लिए उड़ गयी। 'आन्ही बुनी आवेला, चिरइयां ढोल बजावेले, बुढ़ी माई हाली-हाली गोइठा उठावे ले, एक मुठी लाई दामाद फुसलाई, बुनी ओनहीं बिलाई, बुनी ओनही बिलाई' तथा 'तार काटो तरकुल काटो, काटो रे बन खाजा हाथी प के घुंघुरा चमक चले राजा, राजा के दुलारी बेटी खूब बजाए बाजा, तालबा खुलत नइखे चभिया मिलत नइखे, चभिया मिल गईल, तलावा खुल गईल' जैसे मनमोहक पारंपरिक गीतों के स्वर भी सुनाई अब नहीं पड़ते।
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