लॉकडाउन से कम हुई मेहमाननवाजी तो घट गई मांग, विदेश तक है झुमरी तिलैया के मशहूर कलाकंद की डिमांड
Jhumri Telaiya Special Kalakand झुमरीतिलैया का कलाकंद वर्षो से आपसी संबंधों की मिठास बढ़ाने का भी एक बड़ा माध्यम है।
कोडरमा, जासं। कोरोना काल में लोगों की आवाजाही व मेहमाननवाजी का दौर कम हुआ तो झुमरीतिलैया का सुप्रसिद्ध रसदार व मलाई युक्त कलाकंद की मांग घट गई है। वर्तमान समय में कलाकंद पूर्व के दिनों के अनुपात में 30 से 40 फीसद ही बिक रही है। झुमरीतिलैया का कलाकंद वर्षों से आपसी संबंधों की मिठास बढ़ाने का भी एक बड़ा माध्यम रहा है। चाहे बॉस को खुश करने की बात हो या राजनीतिक पार्टियों के आला नेताओं को। या बात शादी विवाह के रिश्ते की हो। शहरवासी यहां का कलाकंद अवश्य लेकर जाते हैं।
शहर के मिठाई दुकानदारों के अनुसार यहां लॉकडाउन और कोरोना से पूर्व मिठाइयों में सर्वाधिक बिक्री कलाकंद की ही होती थी। लेकिन इन दिनों कलाकंद की बिक्री आधा से भी कम हो जाने से दुकानदारी काफी प्रभावित हुई है। शहर के दुकानों में बिकने वाली अन्य सभी तरह की मिठाइयों में आधी हिस्सेदारी कलाकंद की ही होती थी। ऐसे में कलाकंद की बिक्री आधी से भी कम हो जाने से मिठाई दुकानदार स्वभाविक रूप से परेशान हैं। वहीं दूसरी ओर दुग्ध व्यापारियों का ज्यादा दूध कलाकंद में ही खपाया ज्यादा था। ऐसे में कलाकंद की मांग नहीं होने से दूध की मांग में भी कमी आई है। इससे दुग्ध उत्पादक भी परेशान हैं।
झुमरी तिलैया के कलांकद का स्वाद चखने के बाद लोग इसे भेंट करनेवाले से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते और चाहे अनचाहे अगली मुलाकात में भी कलाकंद की फरमाइश कर बैठते हैं। इसी तरह संबंधों में प्रगाढ़ता बढ़ती जाती है। यहां पदस्थापित होने वाले अधिकारियों को स्थानांतरण के बाद भी कलाकंद का स्वाद यहां बार-बार खींच लाता है। इसके कारण भी लोगों से इनकी प्रगाढ़ता बनी रहती है। कई लोगों के लिए तो बड़े अधिकारियों से मिलने व मधुर संबंध बनाने का भी यहां का कलाकंद एक बड़ा माध्यम रहा है।
अभ्रख नगरी के नाम से मशहूर इस शहर को कलाकंद के शहर के रूप में भी जाना जाता है। यहां का कलाकंद विदेशों तक जाता है। विदेशों में बसे झुमरीतिलैया वासियों के रिश्तेदार समय-समय पर इसे खासतौर से मंगाते हैं। दो तरह के कलाकंद सफेद और केसरिया की बिक्री प्रतिदिन व्यापक पैमाने पर होती है। इनमें केसरिया कलाकंद, जो पीला रंग लिए हुए होता है, की बिक्री सबसे अधिक होती है।
कैसे हुई शुरुआत
बताया जाता है कि 1955-56 में जब यहां बड़े पैमाने पर अभ्रक का काम होता था, तब झुमरीतिलैया झंडा चौक के समीप भाटिया मिष्टान्न भंडार में सबसे पहले कलाकंद मिठाई बनाई गई। यह दुकान वर्षों पूर्व बंद हो चुकी है। होटल मालिक हंसराज भाटिया और मालिकराम भाटिया को भी तब यह नहीं पता था कि कलाकंद कैसे बनती है। उन्होंने होटल में बचने वाले छेना को जैसे-तैसे जमाकर इसे बनाना शुरू किया। लेकिन कलाकंद के अनुकूल यहां की पानी और वातावरण ने कलाकंद को काफी स्वादिष्ट और मलाईदार बना दिया।
कहते हैं कि दूध फाड़ने के बाद बने छेना में क्रिस्टल जमा होते गए और उसे जमावट का रूप दिया गया। शुरुआती दिनों में ग्राहकों ने इस मिठाई की काफी सराहना की और धीरे-धीरे परिष्कृत होते-होते इसने कलाकंद का रूप ले लिया। पहले सफेद कलाकंद बनते थे। समय के साथ मांगलिक कार्यों में मिठाई के तौर पर इसका इस्तेमाल होने से इसके रंग में भी परिवर्तन आया।
बाद में इसे हल्का पीला किया गया। वहीं इसमें केसर का इस्तेमाल किया जाने लगा, जो केसरिया कलाकंद के रूप में मशहूर हुआ। शहर की सभी दुकानों को मिलाकर एक अनुमान के अनुसार करीब 20 क्विंटल कलाकंद की बिक्री आम दिनों में होती है जो कोरोना काल में घटकर लगभग आधी या उससे भी कम हो गई है।
चार तरह के बनते हैं कलाकंद
झुमरीतिलैया कन्हैया मिष्ठान भंडार के विकास सेठ ने बताया कि उनके यहां कलाकंद चार तरह के बनते हैं। केसरिया साधारण व सफेद कलाकंद ₹360 प्रति किलो, केसरिया स्पेशल ₹400 प्रति किलो व शुगर फ्री कलाकंद ₹400 प्रति किलो की दर से बिकते हैं। वर्तमान में इसकी बिक्री में करीब 60% तक की गिरावट आई है, क्योंकि यहां के लोग कलाकंद का इस्तेमाल कम करते हैं।
ज्यादातर गिफ्ट के रूप में लोग अपने चहेतों व संबंधियों को भेंट करते हैं। इसके अलावा ट्रेन-बस से आने-जाने वाले दूसरे शहरों के लोग इसे ज्यादा खरीद कर ले जाते हैं। लेकिन कोरोना के दौर में यातायात बंद होने से इसकी बिक्री सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है।
विदेशों तक जाता है यहां का कलाकंद
विदेशों में भी यहां से केसरिया कलाकंद भेजा जाता है, लेकिन पांच किलो से ज्यादा नहीं जा पाता। इसका कारण परिवहन खर्च बताया जाता है। एक किलोग्राम कलाकंद ले जाने में तकरीबन 1200 रुपये खर्च होते हैं, जबकि केसरिया कलाकंद अधिकतम 400 रुपये प्रतिकिलो बिकता है। कन्हैया मिष्ठान के विकास सेठ ने बताया कि ज्यादातर लोग दुबई ले जाते हैं, लेकिन कच्चा मिठाई होने के कारण खराब होने का डर रहता है।
इसके इस्तेमाल की अधिकतम अवधि 48 घंटे की होती है। लिहाजा अपने सगे-संबंधी और मित्रों को मिठाई खिलाने के लिए थोड़ी मात्रा में ही कलाकंद ले जाते हैं। शुरुआती दौर में कलाकंद की बिक्री एक ही दुकान में होती थी। फिलहाल शहर में आनंद विहार, वंदना स्वीट्स, कन्हैया मिष्टान्न, अन्नपूर्णा मिष्ठान, राज स्वीट्स सहित मिठाई की अन्य दुकानों में भी कलाकंद बिकता है।
क्यों प्रसिद्ध है झुमरीतिलैया का कलाकंद
वैसे तो कलाकंद कई शहरों में बिकते हैं, लेकिन झुमरीतिलैया के कलाकंद की कोई तुलना नहीं है। यहां का कलाकंद क्रीमी व रसदार होते हैं, जबकि दूसरे जगह में छेना जमाने के बाद भुरभुरा हो जाता है। इस संबंध में कन्हैया मिष्ठान के विकास सेठ बताते हैं कि यह यहां के पानी व जलवायु का असर है। यहीं के कारीगर जब दूसरी जगह जाकर बनाते हैं तो वह झुमरीतिलैया के कलाकंद जैसा नहीं बन पाता है।
वहीं वंदना स्वीट्स के अंकित चौधरी बताते हैं कि कई अवसरों पर जब यहीं के कारीगरों को दूसरे जगह पर ले जाकर उनसे कलाकंद बनवाया गया, तो यहां के जैसा चिकनाईयुक्त क्लेवर व स्वाद नहीं आ पाया। इसलिए माना जा रहा है कि यहां के जलवायु का ही यह असर है। अंकित बताते हैं कि लॉकडाउन व कोरोना काल में कलाकंद की बिक्री 50 फीसद से भी ज्यादा प्रभावित हुई है।