दादा कान्हा के जीवन से मिलती है राष्ट्र रक्षा की प्रेरणा
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कैप्शन : 4- बहीन गोशाला में स्थित दादा कान्हा रावत की प्रतिमा। - जागरण
4ए - रामशरण दास, गोशाला समिति प्रधान
4बी - सुमेर जेलदार, रावत पाल के पंच
4सी - शकुंतला देवी, गांव सरपंच
-मेले में सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ किया जाता है जागरूक
-पांच गांवों के लोगों ने जजिया कर लगाने के निर्णय का किया था विरोध
सुरेंद्र चौहान, पलवल :
मुगल सम्राट औरंगजेब के खिलाफ आंदोलन का बिगुल बजाने वाले वीर कान्हा रावत का नाम आज भी इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज है। 1682 ईसवी में शहीद हुए दादा कान्हा रावत का नाम आज भी लोग गर्व से लेते हैं और युवा उनके जीवन चरित्र से राष्ट्र रक्षा की प्रेरणा लेते हैं।
उनके पैतृक गांव बहीन में स्थित कान्हा गोशाला में उनके शहीद दिवस पर हर साल मेला लगता है। मेले में लोगों को धर्म, संस्कृति और राष्ट्र रक्षा के अलावा सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ जागरूक किया जाता है। इस बार यह मेला 21 व 22 मार्च को लगेगा।
कान्हा रावत का जन्म 1640 ईसवी में गांव बहीन में बीरबल व लीला देवी के घर हुआ था। कान्हा के छोटे भाई का नाम दलशाह था। कान्हा रावत का विवाह अलवर रियासत के गांव छीका निवासी कपूरी देवी था। उनके दो पुत्र हुए थे। छोटे पुत्र रघुनाथ के जन्म के बाद कपूरी देवी का निधन हो गया। फिर उनका विवाह हथीन के ही घर्रोंट निवासी उदय ¨सह बड़गुर्जर की पुत्री तारावती से हुआ।
मुगल सम्राट औरंगजेब ने 1679 में ¨हदुओं पर जजिया कर लगा दिया और लोगों को जबरन ¨हदू बनाया जाने लगा। बहुत से लोगों ने औरंगजेब के प्रताड़ना से तंग आकर इस्लाम धर्म स्वीकार भी कर लिया। उस समय कान्हा रावत के नेतृत्व में रावत पाल के पांच गांवों के लोगों ने महापंचायत की और जजिया कर के विरोध करने का निर्णय लिया। औरंगजेब को जब इस बात का पता चला तो उसने अब्दुल नबी को बहीन पर आक्रमण करने के लिए भेजा।
अब्दुल नबी ने फिरोजपुर झिरका में अपना पड़ाव डाला और अपने जासूसों द्वारा बहीन के बारे में जानकारी हासिल की। 1682 में फाल्गुण माह में बहीन पर आक्रमण कर दिया। रावत पाल के नौजवानों ने कान्हा रावत के नेतृत्व में अब्दुल नबी की टुकड़ी से जमकर लोहा लिया और उनकी जीत लगभग होने ही वाली थी, तभी फिरोजपुर झिरका से एक और शाही टुकड़ी वहां पहुंच गई। इस लड़ाई में रावतों के करीब दो हजार नौजवान शहीद हो गए और दादा कान्हा को गिरफ्तार कर लिया गया था।
दादा कान्हा को दिल्ली में अजमेरी गेट के पास कैद करके रखा गया और उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गई। समाचार सुनकर उनका छोटा भाई दलशाह दिल्ली गया, उसने देखा की कान्हा को आधा मिट्टी में गाड़ा हुआ था और कोड़ों से मारा जा रहा था। दादा कान्हा का शरीर लहूलुहान हो चुका था, पर उन्होंने औरंगजेब के सामने झुकने से इंकार कर दिया। दादा कान्हा ने दलशाह से वापस लौट जाने के लिए कहा और कहा कि उनकी आत्मा को तभी शांति मिलेगी, जब रावत अब्दुल नबी को मौत के घाट उतार देंगे।
दलशाह ने वापस लौटकर नौजवानों को दादा कान्हा का संदेश सुनाया, जिस पर नौजवानों ने अब्दुल नबी को पलवल के पास घेर लिया और मौत के घाट उतार दिया। अब्दुल नबी की मौत की खबर सुनकर औरंगजेब ने 1682 ईसवी में चैत्र की अमावस्या को दादा कान्हा को ¨जदा जमीन में गड़वा दिया।
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दादा कान्हा का जीवन धर्म और संस्कृति के रक्षा के लिए प्रेरित करता है, इसलिए हर साल शहीद दिवस पर सम्मेलन का आयोजन किया जाता है, ताकि युवा उनके जीवन चरित्र से प्रेरणा ले सकें।
-रामशरण दास, गोशाला समिति प्रधान।
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दादा कान्हा ने रावत पाल के नौजवानों को राष्ट्र रक्षा के लिए प्रेरित किया था। आज भी रावत पाल के युवा दादा कान्हा रावत के जीवन चरित्र को पढ़कर प्रेरणा लेकर समाज कल्याण के कार्य कर रहे हैं।
-सुमेर ¨सह जेलदार, पंच रावत पाल।
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जिस तरह से वर्तमान में युवा नशाखोरी व अन्य बुराइयों की तरफ बढ़ रहे हैं, दादा कान्हा जैसे वीरों की कहानियां उन्हें सुनहरे अतीत के बारे में बताकर अच्छे रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करती है।
-शकुंतला देवी, गांव सरपंच।