Love All Review: खेलों में होने वाले 'खेल' की इमोशनल कहानी, केके मेनन की एक और शानदार परफॉर्मेंस
Love All Movie Review लव ऑल बैडमिंटन के एक ऐसे खिलाड़ी की कहानी है जो एक हादसे की वजह से ओलम्पिक नहीं खेल सका। उसके साथ राजनीति हो गयी। अपनी कड़वी यादों से वो बेटे को बचाना चाहता है जिसके लिए उसे खेलने से रोकता है मगर जब बेटा जाने-अनजाने बैडमिंटन खेलने लगता है तो उसकी जिंदगी में एक नया मोड़ आता है।
प्रियंका सिंह, मुंबई। लव-आल का बैडमिंटन के खेल में मतलब होता है, खेल या नए सेट की शुरुआत, जब दोनों खिलाड़ियों का स्कोर शून्य पर होता है। लव-आल फिल्म की कहानी के केंद्र में बैडमिंटन का खेल ही है, जिसके आसपास एक कहानी को रचा गया है।
क्या है लव ऑल की कहानी?
सिद्धार्थ शर्मा (केके मेनन) अपनी पत्नी जया (श्रीस्वरा दुबे) और बेटे आदित्य (अर्क जैन) के साथ ट्रांसफर होकर कई साल बाद अपने गृहनगर भोपाल लौटता है। वह रेलवे कर्मचारी है। अपने बेटे को खेल से दूर रखता है। इसके पीछे खास वजह है, सिद्धार्थ कभी बैडमिंटन चैम्पियन हुआ करता था। वह ओलंपिक के लिए चुना जाने वाला था, लेकिन खेल में राजनीति के चलते, उस पर हमला होता है।
घायल होने के बावजूद वह फाइनल खेलने पहुंचता है, लेकिन दर्द की वजह से उसे खेल बीच में छोड़ना पड़ता है, जिसका फायदा सामने वाले खिलाड़ी को पहुंचता है। खेल कोटा से उसे रेलवे में नौकरी मिल जाती है, लेकिन उसके अंदर एक गुस्सा रह जाता है कि वह ऊंचे पद पर बैठे कुछ लोगों की उपेक्षा की वजह से खेल में आगे नहीं बढ़ पाया।
वह नहीं चाहता कि उसका बेटा भी इस दर्द से गुजरे। आदित्य को स्कूल में एडमिशन के लिए एक खेल चुनना अनिवार्य होता है। उसे बैडमिंटन में जगह मिलती है। जया और आदित्य, सिद्धार्थ से यह बात छुपाते हैं। इसमें दोनों की मदद सिद्धार्थ का बचपन का दोस्त विजेंद्र भी करता है। क्या होगा, जब सिद्धार्थ को पता चलेगा कि उसका बेटा छुपकर बैडमिंटन खेल रहा है? कहानी इस पर आगे बढ़ती है।
खेलों का ग्लैमर नहीं, हकीकत दिखाती फिल्म
इस फिल्म की कहानी दूसरी खेल पर बनी फिल्मों से अलग इसलिए लगती है, क्योंकि ग्लैमराइज करने के लिए फिल्म में कोई शोरशराबे वाला बैकग्राउंड स्कोर नहीं है, कोई हीरोइक एंट्री वाले दृश्य नहीं है। फिर भी अंत में जब योग्य खिलाड़ी जीतता है, तो जोश में कोई कमी नहीं दिखती है।
फिल्म के लेखक, निर्माता और निर्देशक सुधांशु कहानी की पकड़ कहीं पर कमजोर नहीं होने देते हैं। एक खिलाड़ी अपने खेल को लेकर टूटा हुआ भरोसा, कैसे अपने बेटे के जरिए दोबारा हासिल करता है, वह उन्होंने खूबसूरत तरीके से दिखाया है।
पिता और पुत्र की कहानी के जरिए खिलाड़ियों के साथ होने वाली राजनीति, खेल एसोसिएशन का बड़ी पहुंच रखने वाले खिलाड़ियों की तरफ फेवरेटिज्म, खेल कोटा से मिलने वाली नौकरियां, प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को बराबरी के मौके देने और खेल सुविधाएं और बुनियादी ढांचा खिलाड़ियों का अधिकार होना चाहिए जैसे कई मुद्दों पर फिल्म में बात की गई है।
कैसा है स्क्रीनप्ले, अभिनय और संवाद?
फिल्म की पटकथा और संवाद सोनल और सुंधाशु के हैं। कुछ संवाद, जैसे - सबसे बड़ा मैच होता है- एक ऐसा युद्ध, जिसे लड़कर जीतना पड़ता है अपने ही विरुद्ध..., किसी को घायल करके जीतना, उसकी खुशी मनाना असली खेल नहीं होता है... या खेल एक आर्डिनरी बच्चे को खिलाड़ी बनाता है... खेल की असली भावना समझा जाते हैं।
केके मेनन ने इस फिल्म में भी साबित किया है कि वह अभिनय के मैदान के चैम्पियन हैं। भावुक दृश्य में वह आंखें नम करते हैं, साथ ही कभी सख्त कोच, तो कभी जिम्मेदार पिता के बीच झूलती कहानी को अपने अभिनय से बखूबी संतुलित करते हैं। अर्क खुद नेशनल बैडमिंटन खिलाड़ी हैं, ऐसे में खेल को लेकर उनका तकनीक पक्ष परफेक्ट तो था ही, लेकिन अभिनय भी उन्होंने सहजता से किया है।
इंटरवल से पहले पिता से डरे-सहमे बेटे की भूमिका हो या फिर खेल में छोटी सी जीत हासिल करने पर उसी पिता के सामने अंहकार की भावना हो, हर सीन में अर्क साबित करते हैं कि वह इस पेशे में भी भविष्य बना सकते हैं। दोस्त विजेंद्र की भूमिका में सुमित अरोड़ा जीवन में एक ऐसे दोस्त की जरूरत समझा जाते हैं।
श्रीस्वरा दुबे, स्वस्तिका मुखर्जी छोटी सी भूमिका में याद रह जाती हैं। सिद्धार्थ की युवा भूमिका में कलाकार दीप रंभिया का काम भी सराहनीय है। हालांकि सुधांशु इन किरदारों को स्थापित करने में अतुल श्रीवास्तव और रॉबिन दास जैसे कलाकारों के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। फिल्म के गाने लौट आया फिर कोई मौसम की तरह..., गीली सी सुबह... कर्णप्रिय हैं।